पुराणों में उच्च गुरु के अशुभ फल इस प्रकार से वर्णित हैं :-
जन्म लग्ने
गुरुश्चैव, रामचंद्रो वनेगतः !
तृतीयं बलि
पाताले, द्विलोकेन त्यक्तयेत !!
चतुर्थे दुर्गति
हरिश्चंद्रः, डोम हस्तेगतः!
षष्टे द्रोपदी
चीरहरणंच हंति रावण अष्टमे !
दशमे दुर्योधनः
हंते, द्वादशे पांडव वनागतम् !!
अर्थात - बृहस्पति के लग्न में विद्यमान होने पर, रामचन्द्रजी को वन जाना पड़ा !
तृतीय भाव के गुरू होने पर बलि का राजपाट चला गया और पाताल जाना पड़ा !
चतुर्थ भाव में अकेले वृहस्पति के होने पर राजा हरिश्चन्द्र की दुर्गति हो गयी और चांडाल के हाथ बिकना पड़ा !
छठे भाव के बृहस्पति के कारण द्रोपदी का चीरहरण हुआ, और आठवें भाव के गुरु के कारण रावण मारा गया !
दसवें भाव में बृहस्पति के होने पर दुर्योधन का वध हुआ और बारहवें भाव में बृहस्पति के होने पर पांडवो को राजपाट से हाथ धोकर वन जाना पड़ा !
इस प्रकार अत्यन्त सौम्य ग्रह होते
हुए भी बृहस्पति बुरा फल ही देते हैं, इसीलिए कहावत
प्रचलित है कि - "जँह जँह पांव पड़ै संतन कै, तंह तंह होवे
बंटाधार !"
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