हम सभी जानते हैं की ग्रह दो प्रकार के होते हैं एक शुभ और दूसरे अशुभ । अतः प्रथम शुभ और अशुभ ग्रहों का सामान्यतः किस तरह का फल मिलता है यह ध्यान में लाना चाहिए ।
शुभ ग्रह दशा फल
- आरोग्य, धनवृद्धि, शत्रु पराजय,
इष्ट कार्य की सिद्धि, ऐश्वर्य आदि सुख
।
अशुभ ग्रह दशा
फल - लोकोपवाद, विश्वासघात, द्रव्यं हानि,
रोग, सदस्यों की मृत्यु, वियोग
और कार्य में हानि आदि ।
ग्रह दशा का फल
निश्चित करने से पूर्व प्रथम उस ग्रह की स्थिति का विचार नीचे लिखे अनुसार करना
चाहिए ।
1)ग्रह किस भाव
वा राशि में हैं, उच्च अथवा नीच और शुभ अथवा अशुभ भाव
में हैं ।
2)ग्रह शुभ वा
अशुभ ग्रह से युक्त या दृश्ट हैं अथवा नहीं ।
3)महादशा के
ग्रह से अन्तर्दशा का ग्रह किस स्थान में है और दोनों परस्पर शुभ योग करते हैं
अथवा अशुभ फलदायी हैं ।
4)महादशा का
स्वामी और अन्तर्दशा का स्वामी परस्पर शत्रु हैं या मित्र और गोचर ग्रह, शत्रु
फलदायी हैं अथवा अशुभ फलदायी हैं ।
महादशा का
स्वामी और अन्तर्दशा का स्वामी परस्पर शत्रु हों तो अधिक अशुभ, मित्र
हों तो शुभ, सम हों तो साधारण फल मिलता है । इसी प्रकार
जन्म दशा का स्वामी और गोचर ग्रह दोनों अनुकूल हों तो शुभ फल, प्रतिकूल
हों तो अशुभ फल और एक अनुकूल दूसरा प्रतिकूल हो तो मध्यम फल मिलता है ।
इस तरह प्रत्येक
विषय अर्थात् भाग्योदय काल, विद्या, उद्योग व्यापार,
नौकरी, धन लाभ आदि का विचार करने से योग्य फल
मिल सकता है ।
ग्रहों की दशा
अन्तर्दशा आदि का फल कहते समय यदि गोचर में शुभ ग्रहों की दृष्टि महादशा अन्तर्दशा
और प्रत्यन्तर्दशा के स्वामियों पर हों तो कुछ अशुभ फलों का नष्ट होना सम्भव है ।
इसके विपरीत यदि अशुभ ग्रह से इन दशाओं के स्वामी युक्त वा दृष्ट हों अशुभ फल अधिक
बढ़ेगा ।
इस तरह किसी भी
ग्रह का शुभ या अशुभ फल कुंडली के रहते हैं, अथवा जिस दूसरे स्थान के स्वामी हों वह राशि
जैसी शुभ ग्रहों पर से ध्यान में आ सकता है ।
1,4,7,10 केन्द्र स्थान
हैं, 5,9,त्रिकोण, 3,6,11 त्रिषड़ाय स्थान
और 2,8,12 आपोक्लिम
स्थान कहलाते हैं ।
दशा फल कहने से
पहले ग्रहों के शुभाशुभत्व में विशेषता देखनी चाहिए । ग्रहों में शुभाशुभत्व दो
प्रकार से देखना चाहिए । एक तो स्वाभाविक, दूसरा तात्कालिक
।
स्वाभाविक
शुभाशुभ - सू.मं. शनि नैसर्गिक क्रूर तथा गुरु शुभ नैसर्गिक पूर्ण बली चन्द्रमा
शुभ, क्षीण बली पापी होता है तथा राहु केतु सहचर्य
से फलप्रद हैं ।
और तात्कालिक
शुभाशुभ इस प्रकार कहा है, त्रिकोण का स्वामी हो तो शुभ फलदायक
होता है और यदि त्रिषड़ाय का स्वामी हो तो पाप फलदायक होता है ।
इससे सिद्ध हुआ
कि स्वभाविक पाप ग्रह भी त्रिकोणपति हो तो शुभ होता है तथा स्वभाविक शुभ ग्रह यदि
त्रिकोणपति हो तो अत्यन्त शुभदायक होता है । इसी प्रकार स्वभाविक शुभ भी यदि
त्रिषड़ायपति हो तो पाप फलदायक होता है तथा स्वभाविक पाप ग्रह त्रिषड़ायपति हो तो
अत्यन्त पाप फलदायक होता है ।
इसी प्रकार यदि
शुभ ग्रह (गुरु, शुक्र, बुध पूर्ण
चन्द्र) केन्द्र के अधिपति हों तो प्राणियों को शुभाशुभ फल नहीं देते तथा पाप ग्रह
(क्षीणचन्द्र, पापयुत बुध, रवि, शनि,
मंगल) यदि केन्द्र के स्वामी हों तो अपने स्वभावानुसार पाप फल नहीं
देते । अतः केन्द्र के स्वामी होने से शुभ ग्रह में पापत्व और पापग्रह में शुभत्व
आ जाता है । इस से यह स्पष्ट है कि केन्द्राधिप न शुभ फल देता है और न अशुभ फल
देता है ।
लग्न से
द्वादशेष तथा द्वितीयेष दूसरे ग्रहों के साहचर्य से तथा अपने स्थानान्तर (अन्य
स्थानों) के अनुसार ही शुभ अथवा अशुभ दशा फल को देते हैं । इससे, सिद्ध
है कि व्ययेश और धनेष स्वभावानुसार शुभाशुभ फल नहीं देते । जिस प्रकार शुभ या अशुभ
स्थान में रहते हैं, तथा जिस प्रकार के शुभ या अशुभ भावेश
के साथ रहते हैं अथवा
जिस दूसरे स्थान के स्वामी हो वह राशि जैसे शुभ या अशुभ भाव में
हो तदनुसार ही शुभ या अशुभ फल देते हैं । भावार्थ यह है कि द्वितीयेश आदि के साथ
जो ग्रह रहता है वह तदनुसार ही फल देता है । यदि बहुत ग्रह साथ में हों तो उनमें
जो बली हो तदनुरूप ही फल देता है ।
शुभ ग्रहों का
केन्द्राधिपत्य दोष जो कहा गया है वह गुरु और शुक्र का बलवान होता है तथा शुभ
ग्रहों के मारकत्व (सप्तमेशत्व) होने पर भी गुरु शुक्र में ही विशेषकर मारकत्व दोष
होता है । इन दोनों में
न्यून दोष बुध मे और
बुध से न्यून चन्द्रमा में होता है । अष्टमेष यदि
त्रिकोणपति हो तो शुभ फलदायक और यदि त्रिपड़ायपति हो तो अत्यन्त अशुभ फलदायक होगा ।
इसी प्रकार यदि
पाप ग्रह केन्द्र पति हो तो उसका स्वभाविक पापत्व मात्र नष्ट होता है । अतः
केन्द्रपति होकर यदि त्रिकोणपति भी हो जावे तो उसमें शुभत्व आ जाता है । इससे यह
भी सिद्ध हुआ कि स्वभाविक पाप ग्रह यदि केन्द्रपति होकर त्रिषड़ायपति हो तो
पापकारक हो जाता है ।
प्रबल होने पर
भी राहु और केतु जिस भाव में और जिस - जिस भावेश के साथ रहते हैं उसी के अनुसार
शुभ या अशुभ फल देते हैं । जैसे कहा है -
यद्यद्भावगतै
वाऽपि यद्यदभावेश संयुतै ।
ततत्फलानि
प्रबलौ प्रदर्शितातमौ ग्रहौ ॥
योग – केन्द्रेश
और त्रिकोणेश में परस्पर सम्बन्ध हो किसी अन्य भाव के स्वामी से न हो तो विशेषकर
शुभ लाभदायक होते हैं ।
ग्रहो की अवस्था
जैसे दीप्तादि अवस्था के भेद से भी फल में विशेषता हो जाती है, यथा - दीप्त, स्वस्थ हर्षित
और शान्त अवस्था बलि ग्रहों की दशा शुभ और अन्य अवस्था वालों की दशा अशुभ है ।
ग्रह अपनी उच्चराशि में हो तो दीप्त अपनी राशि
में स्वस्थ, मित्र राशि में हर्षित, शुभ
राशि में शान्त, नीच राशि में दीन, शत्रु
राशि में पीड़ित, उदय राशि में शक्त, अस्तंगत
राशि में लुप्त अवस्था होती है।
ग्रहावस्था फल –
दीप्त अवस्था
सुस्वरूप, कांतिमान्, बुद्धिमान तीनों
में जाने वाला और शत्रु का नाश करने वाला।
स्वस्थ अवस्था -
विजयी, राजपूजित, कीर्तिमान,
सदा प्रसन्न, मलकीयत कराने वाला व ज्योतिषी।
हर्षित अवस्था -
धर्मात्मा, सदाचारी ।
शान्त अवस्था -
तेजस्वी, शान्त, बंधनमुक्त।
दीन अवस्था-
बुद्धिहीन, पर स्त्री आसक्त।
पीड़ित अवस्था –
चिंता युक्त,मानसिक दुख रोगी
शक्त अवस्था - निरोगी, सुन्दर,
मधुर भाषी, प्रशंसनीय ।।
लुप्त अवस्था -
अधर्मी, रोगी, शत्रु पीड़ित ।
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