बुधवार, 16 जून 2010

वैवाहिक जीवन में क्लेश

वैवाहिक जीवन में क्लेश
1)सप्तम भाव, सप्तमेश और द्वितीय भाव पर क्रूर ग्रहों का प्रभाव वैवाहिक जीवन में क्लेश उत्पन्न करता है।
2)लग्न, सप्तम भाव, सप्तमेश की कारक शुक्र, राहु, केतु या मंगल से दृष्टि या युति के फलस्वरूप दाम्पत्य जीवन में क्लेश पैदा होता है।
3)यदि जातक व जातका का कुंडली मिलान (अष्टकूट) सही न हो, तो दाम्पत्य जीवन में वैचारिक मतभेद रहता है।
4)यदि जातक व जातका की राशियों में षडाष्टक भकूट दोष हो, तो दोनों के जीवन में शत्रुता, विवाद, कलह अक्सर होते रहते हैं।
5)यदि जातक व जातका के मध्य द्विर्द्वादश भकूट दोष हो, तो खर्चे व दोनों परिवारों में वैमनस्यता आती है जिसके फलस्वरूप दोनों के मध्य क्लेश रहता है।
6)यदि पति-पत्नी के ग्रहों में मित्रता न हो, तो दोनों के बीच वैचारिक मतभेद रहता है। जैसे यदि ज्ञान, धर्म, रीति-रिवाज, परंपराओं, प्रतिष्ठा और स्वाभिमान के कारक गुरु तथा सौंदर्य, भौतिकता और ऐंद्रिय सुख के कारक शुक्र के जातक और जातका की मानसिकता, सोच और जीवन शैली बिल्कुल विपरीत होती है।
7)पति-पत्नी के गुणों (अर्थात स्वभाव) में मिलान सही न होने पर आपसी तनाव की संभावना बनती है। अर्थात पति-पत्नी के मध्य अष्टकूट मिलान बहुत महत्वपूर्ण है, जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार कर लेना चाहिए।
8)मंगल दोष भी पति-पत्नी के मध्य तनाव का कारक होता है। स्वभाव से गर्म व क्रूर मंगल यदि प्रथम (अपना), द्वितीय (कुटुंब, पत्नी या पति की आयु), चतुर्थ (सुख व मन), सप्तम (पति या पत्नी, जननेंद्रिय और दाम्पत्य), अष्टम (पति या पत्नी का परिवार और आयु) या द्वादश (शय्या सुख, भोगविलास, खर्च का भाव) भाव में स्थित हो या उस पर दृष्टि प्रभाव से क्रूरता या गर्म प्रभाव डाले, तो पति-पत्नी के मध्य मनमुटाव, क्लेश, तनाव आदि की स्थिति पैदा होती है।
9)राहु, सूर्य, शनि व द्वादशेश पृथकतावादी ग्रह हैं, जो सप्तम (दाम्पत्य) और द्वितीय (कुटुंब) भावों पर विपरीत प्रभाव डालकर वैवाहिक जीवन को नारकीय बना देते हैं। दृष्टि या युति संबंध से जितना ही विपरीत या शुभ प्रभाव होगा उसी के अनुरूप वैवाहिक जीवन सुखमय या दुखमय होगा।
  10)द्वितीय भाव में सूर्य के सप्तम, सप्तमेश, द्वादश और द्वादशेश पर (राहु पृथकतावादी ग्रह) प्रभाव से दाम्पत्य जीवन में क्लेश की, यहां तक कि तलाक की नौबत आ जाती है।

सोमवार, 14 जून 2010

वैवाहिक जीवन के अशुभ योग

  • यदि सप्तमेश शुभ युक्त न होकर षष्ठ, अष्टम या द्वादश भावस्थ हो और नीच या अस्त हो, तो जातक या जातका के विवाह में बाधा आती है।
  • यदि षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश सप्तम भाव में विराजमान हो, उस पर किसी ग्रह की शुभ दृष्टि न हो या किसी ग्रह से उसका शुभ योग न हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा आती है।
     
  • सप्तम भाव में क्रूर ग्रह हो, सप्तमेश पर क्रूर ग्रह की दृष्टि हो तथा द्वादश भाव में भी क्रूर ग्रह हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा आती है। सप्तमेश व कारक शुक्र बलवान हो, तो जातक को वियोग दुख भोगना पड़ता है।
     
  • यदि शुक्र सप्तमेश हो (मेष या वृश्चिक लग्न) और पाप ग्रहों के साथ अथवा उनसे दृष्ट हो, या शुक्र नीच व शत्रु नवांश का या षष्ठांश में हो, तो जातक स्त्री कठोर  चित्त वाली, कुमार्गगामिनी और कुलटा होती है। फलतः उसका वैवाहिक जीवन नारकीय हो जाता है।
     
  • यदि शनि सप्तमेश हो, पाप ग्रहों के साथ व नीच नवांश में हो अथवा नीच राशिस्थ हो और पाप ग्रहों से दृष्ट हो, तो जीवन साथी के दुष्ट स्वभाव के कारण वैवाहिक जीवन क्लेशमय होता है।
     
  • राहु अथवा केतु सप्तम भाव में हो व उसकी क्रूर ग्रहों से युति बनती हो या उस पर पाप दृष्टि हो, तो वैवाहिक जीवन अक्सर तनावपूर्ण रहता है। यदि सप्तमेश निर्बल हो और  भाव ६, ८ या १२ में स्थित हो तथा कारक शुक्र कमजोर हो, तो जीवन साथी की निम्न सोच के कारण वैवाहिक जीवन क्लेशमय रहता है।
     
  • सूर्य लग्न में व स्वगृही शनि सप्तम भाव में विराजमान हो, तो विवाह में बाधा आती आती है या विवाह विलंब से होता है।
     
  • सप्तमेश वक्री हो व शनि की दृष्टि सप्तमेश व सप्तम भाव पर पड़ती हो, तो विवाह में विलंब होता है।
     
  • सप्तम भाव व सप्तमेश पाप कर्तरी योग में हो, तो विवाह में बाधा आती है।
     
  • शुक्र शत्रुराशि में स्थित हो और सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह विलंब से होता है।
     
  • शनि सूर्य या चंद्र से युत या दृष्ट हो, लग्न या सप्तम भाव में स्थित हो, सप्तमेश कमजोर हो, तो विवाह में बाधा आती है।
     
  • शुक्र कर्क या सिंह राशि में स्थित होकर सूर्य और चंद्र के मध्य हो और शनि की दृष्टि शुक्र पर हो, तो विवाह नहीं होता है।
     
  • शनि की सूर्य या चंद्र पर दृष्टि हो, शुक्र शनि की राशि या नक्षत्र में में हो और लग्नेश तथा सप्तमेश निर्र्बल हों, तो विवाह में बाधा निश्चित रूप से आती है।

गुरुवार, 10 जून 2010

प्रश्न : रत्नों के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय का वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय तथ्य क्या है? उपरत्नों का प्रयोग कितना सार्थक है? रत्नों की धारण विधि, प्रभाव, चयन आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दें।

  
रत्नों के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय के वैज्ञानिक आधार को स्पष्ट करने के लिए यह समझना अति आवश्यक है कि मानव शरीर मात्र एक भौतिक रूप नहीं है। सृष्टि में, दृष्टि से नहीं दिखने वाले बहुत पदार्थ हैं, जिसे आधुनिक विज्ञान पूर्ण सत्य स्थापित कर चुका है। हर शरीर के बाह्यमंडल पर ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव होता है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि जब विद्युतधारा प्रवाहित होती है तो, वह नहीं दिखाई देती है लेकिन उसका कार्य बिजली के बल्ब या चलते हुए पंखे से ज्ञात होता है, वैसे ही ग्रह नक्षत्रों के ऊर्जा रश्मि का, मानव के कार्य कलाप पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जन्मकुंडली के निर्माण के बाद व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का खाका प्रायः अच्छे प्रतिशत तक ज्ञात हो जाता है अर्थात ग्रह-नक्षत्रों के ऊर्जा स्रोत का सम्मिश्रण सामने आ जाता है। व्यक्ति जिस ग्रह-नक्षत्र के ऊर्जा रश्मि स्रोत में क्षीण होता है, उसके कारक तत्व में वह शिथिलता दर्शाता है। ऐसी स्थति में उन ग्रहों से संबंधित रत्न द्वारा उसके वाह्य शरीर में उन ऊर्जाओं की भरपाई करना ही एक उपाय बचता है। भौतिक शास्त्र कहता है- कि प्रत्येक तत्व में ऊर्जा शक्ति है, फिर प्रकृति द्वारा प्रदत्त ये रत्न, इससे, कैसे वंचित हो सकते हैं? आज तरंगों से संबंधित उपकरणों जैसे मोबाइल आदि हमेशा हृदय या कान पर रखने से दुष्परिणाम दर्शाते हैं। तो रत्न, जो अपने परिवेश में ग्रह-नक्षत्रों की रश्मियां लाते हैं, व्यक्ति के बाह्य एवं शरीर पिंड को क्यों प्रभावित नहीं करेंगे?

रत्नों के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय का वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय तथ्य :

मनुष्य जीवन सूर्य से प्राप्त श्वेत प्रकाश द्वारा ही चल रहा है। यह श्वेत प्रकाश सात रंगों से मिलकर बना होता है। जिसे 'इंद्रधनुष'' के नाम से भी जानते हैं। यह अवसर बारिश के मौसम में दिखाई देता है। इन्हीं सात रंगों से उत्पन्न कॉस्मिक किरणों (अर्थात् पराबैंगनी) का प्रभाव मनुष्य जीवन में चारों स्तर जैसे- शारीरिक, मानसिक (स्वास्थ्य रूप में) आर्थिक (धन रूप में) तथा सामाजिक (प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य आदि) पर पड़ता है। इन्हीं सतरंगी किरणों के कॉस्मिक प्रभाव को रत्नों के माध्यम से जीवन में उतारकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इन रत्नों से निकलने वाली चुंबकीय शक्ति की तरंगे मनुष्य जीवन को एक विशेष ढंग से प्रभावित करती हैं। सूर्य की श्वेत किरणों में सात रंग छिपे होते हैं। प्रत्येक रंग एक विशेष रश्मि की किरणों द्वारा मनुष्य के जीवन को अपने प्रतीक, आवर्तन (अपवर्तन), परावर्तन, प्रतिक्षिप्त, स्पंदन तथा स्पर्श द्वारा प्रभावित करता है। सभी रत्नों में इन रंगों की रश्मियां अधिकतम मात्रा में होती हैं, जिसके कारण ये सभी रत्न, इनसे संबंधित निर्बल ग्रह की किरणों को मजबूती देकर उस ग्रह की प्रभाव शक्ति को संबंधित मनुष्य के लिए बढ़ाता है। वास्तव में प्रकाश का रूप रंग, जो दिखाई देता है, वह वास्तविक नहीं है। इसके वास्तविक रूप-रंग को देखने के लिए त्रिकोण कांच (प्रिज्म) का उपयोग करना चाहिए। त्रिकोण कांच अर्थात् प्रिज्म के प्रायोगिक अध्ययन द्वारा प्रकाश के रूप-रंग का वास्तविक होने का पता चलता है। अर्थात् प्रकाश (श्वेत) को प्रिज्म द्वारा गुजारते हैं तो यह श्वेत प्रकाश, सात रंगों से मिलकर बना हुआ है। ऐसा ज्ञात होता है। सौरमंडल के इन ७ ग्रहों की सातों किरणें, संपूर्ण ब्रह्मांड को सात रंगों से आच्छादित किये रहती है। ये सातो रंग निम्न दो क्रमानुसार (सीधे एवं उल्टे) होते हैं।
सीधा क्रम : विब्ग्योर (Vibgyor) अर्थात् बैनीआहपीनाला। (बै-बैंगनी, नी- नीला, आसमानी), हरा पीला नारंगी व लाल।
उल्टा क्रम : रॉयग्बिव(Roygbiv) अर्थात् लानापीहआनीबे।
अंग्रेजी में हिंदी में
V- Violet  बैंगनी
I-Indigo  नीला
B-Blue आसमानी
G-Green हरा
Y-Yellow पीला
O-Orange नारंगी
R-Red लाल
इन दोनों ही शब्दों को भौतिकी में प्रकाश के लिए उपयोग में लेते हैं। जो रंगों में हिंदी एवं अंग्रेजी नाम के पहले अक्षरों को मिलकर बनाया गया है। अर्थात् उपरोक्त दोनों शब्द इन रंगों का ही संक्षिप्त रूप (नाम) हैं।

उपरत्नों के उपयोग की सार्थकता :

ग्रहों को अनुकूल कर बलवान बनाने के लिए किये जाने वाले विभिन्न उपायों जैसे रत्न, उपरत्न, जड़ी-बूटी, यंत्र, मंत्र, तंत्र, व्रत, दान, टोटके, लाल किताब एवं वास्तु तथा फेंगशुई आदि में अभी तक शोधानुसार सबसे कारगर उपाय ÷रत्न' धारण करना ही साबित हुए हैं। क्योंकि रत्नों में ग्रहों को अनुकूल कर बलवान बनाने की अदभुत शक्ति प्राकृतिक रूप विद्यमान रहती है। ये नौ रत्न, नौ ग्रहों के समाधान का मूल उपाय है। तभी तो नौ ग्रहों के रत्नों के लिए ÷नवरत्न' शब्द का प्रयोग किया जाता है। यदि इनमें भी छाया ग्रह राहु एवं केतु को छोड़कर मूल रूप में देखें तो इन सात ग्रहों के रत्नों के लिए सप्त -महारत्न' शब्द का प्रयोग किया जाता है।

रत्नों का कार्य सिद्धांत :

जब रत्न को इसके ग्रह से संबंधित देव मंत्रों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा कर सिद्ध किया जाए तो यह ग्रहों से आने वाली अशुभ किरणों को इनकी रंग की शक्ति द्वारा हर समय अवशोषित अर्थात् छानकर शुभ एवं अनुकूल करके इन्हें शरीर के अंदर भेजता है। जिससे व्यक्ति की कोशिकाओं, मन, मस्तिष्क व दिल पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा करीब ३-६ महीने के भीतर जातक की सोच अर्थात मनोविज्ञान पर अच्छा परितर्वन आ जाता है। जिससे जातक को उस ग्रह से संबंधित शुभ फल मिलते हैं। यही रत्नों के कार्य करने का सिद्धांत भी है।
इस प्रकार व्यक्ति विशेष को रत्नों का हर समय लाभ मिलता रहता है। इस कारण से रत्नों को सबसे कारगर उपाय माना जाता है।
रत्न भी निम्न दो प्रकार से शरीर पर धारण किये जाते हैं।
अंगूठी के रूप में अंगुली में।
पैंडल या लॉकेट के रूप में गले में।
उपरोक्त में से प्रथम तरीके में अर्थात् रत्नों की अंगूठी के रूप में अंगुली में धारण करना सबसे अधिक तथा तुरंत प्रभावशाली माना जाता है। क्योंकि रत्न की अंगूठी, अंगुली की त्वचा को हर समय अर्थात् सोते, जागते, चलते, फिरते, आदि कर्म करते समय बराबर स्पर्श किए रहती है। जिससे अधिक सपंर्क में आने के कारण लाभ अधिक मिलता है। जबकि रत्नों को लॉकेट के रूप में गले में धारण करने पर रत्न शरीर की त्वचा को हर समय स्पर्श नहीं कर पाते हैं। अतः रत्नों को गले में धारण करने से हाथ की अंगुलियों की अपेक्षा लाभ कम मिलता है। यदि दोनों में तुलना करें तो अंगुलियों में रत्नों को धारण करने पर यदि अधिकतम लाभ ९०-९५ प्रतिशत मिलता है तो गले में धारण करने पर ८०-९० प्रतिशत के बीच में ही लाभ मिलेगा।
गले में मुख्यतः भगवान के लॉकेट, रुद्राक्ष तथा विभिन्न मालाएं आदि धारण की जाती हैं। इसके पीछे कारण यह है कि भगवान या इष्ट देव को सदैव हृदय या दिल में स्थान दिया जाता है। अर्थात् हृदय के पास लगाया जाता है।

ज्योतिषीय के तौर पर रत्नों का प्रयोगः

प्राचीन काल से ही रत्न अपनी आभा, दुर्लभता, अदभुत गुणों एवं अपनी अन्य दिव्य विलक्षणताओं के लिए संसार भर में आकर्षण का एक केंद्र बने रहे हैं। गरुड़ पुराण, श्रीरामचरितमानस, महाभारत, नारदपुराण, विष्णु पुराण आदि ग्रंथों में रत्नों का विशद उल्लेख किया गया है। तुलसीदास ने रामायण में
लिखा है-
मनि दीप राजहिं भवन भ्रातहिं देहरी बिद्रुमरची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुन्दर मनोहर मंदिरायत अजिर रूचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
इसके अतिरिक्त आचार्य वराहमिहिर ने भी अपनी महान् कृति ÷बृहत्संहिता' में भी रत्नों का विशद वर्णन किया है वे रत्नपरीक्षाध्याय में लिखते हैं :
रत्नेन शुभेन शुभं भवति नृपाणाम -निवटमशुभेन। यस्मादवः परीक्ष्य दैव रत्नाश्रि्रतं तज्झैः
अर्थात् ÷शुभ रत्न धारण करने से राजा को सदैव शुभ तथा अशुभ रत्न धारण करने से सदैव अशुभता की प्राप्ति होती है। अतः रत्नज्ञों द्वारा रत्नों की परीक्षा की जानी चाहिए।
आज के इस आधुनिक काल में हर मनुष्य तरक्की करता है। अतः अपनी तरक्की में वृद्धि हेतु वह रत्न-रुद्राक्ष का, ज्योतिष-वास्तु आदि का प्रयोग करता है। भाग्य परिवर्तन व कष्ट निवारण में रत्नों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अतः ग्रहों की स्थिति के अनुसार उनके रत्न पहने जाते हैं। मणिमाला में लिखा है-
धन्यं यश्स्यमायुष्यं श्रीमद् व्यसनसूदनं। हर्षणं काम्यमोजस्यं रत्नाभरणधारणं
रत्नजड़ित आभूषण धारण करने से धन, सुख, शक्ति यश, तेज, हर्ष, आयु में वृद्धि होती है व व्यसनों का नाश होता है। मुख्य रूप से नवरत्नों का सर्वाधिक महत्व है- माणिक, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद व लहसुनिया। ये क्रमशः नौ ग्रहों के लिए पहनाए जाते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण :

ग्रहों से सभी मनुष्य इतने अधिक प्रभावित होते हैं कि मनुष्य के सृजन-संहार की शक्ति भी ग्रहों में होती है। रत्नों में ग्रहों की शक्ति को बढ़ाने अथवा घटाने की क्षमता होती है। रत्नों में अपने अधिपति ग्रहों की रश्मियों, चुंबकत्व शक्ति तथा स्पंदन को आकर्षित करके परिवर्तन करने की भी शक्ति होती है। इसी शक्ति का प्रयोग करने हेतु रत्नों का उपयोग किया जाता है।
किसी भी कुंडली में दशानुसार ग्रह का उपाय तथा रत्नधारण करने से शुभत्व में वृद्धि होती है। वैज्ञानिक रूप से विशिष्ट ग्रह का मंत्रोच्चारण करने से प्रयुक्त ग्रह की रश्मियों की मानव शरीर के पास सुरक्षा रेखा बन जाती है व रत्न रश्मियों को सौंपकर मानव शरीर में प्रवाहित कर शुभत्व में वृद्धि करता है।
अब प्रश्न ये उठता है कि रत्नों की उत्पत्ति कैसे होती है। धरती के गर्भ में खनिज पदार्थों की भरमार है। खनिजों में कार्बन, मैंगनीज, सोडियम, तांबा, लोहा, बेरियम, गंधक, जस्ता, आदि कई पदार्थों के संयोग तथा धरती के दबाव आदि से ही रत्नों में कठोरता, रूप, आभा का अंतर होता है।

उपरत्नों का प्रयोग :

जो जातक मुख्य रत्न लेने में समर्थ नहीं है, उनके लिए उपरत्नों का प्रयोग बताया गया है। ८४ रत्नों का समाहार ग्रन्थों में कहा गया है, जिनमें से ९ रत्न मुख्य हैं तथा अन्य ७५ रत्न उपरत्न कहलाते है।

चयन विधि :

किसी भी व्यक्ति को रत्न पहनने से पहले अपने शारीरिक भार, ग्रहों के बलाबल-शुभाशुभ, का ध्यान रखते हुए ही रत्न का वजन निर्धारित करना चाहिए। सर्वदा दोष रहित रत्न ही धारण करें। किस ग्रह के लिए किस रत्न को पहना जाए, इसके लिए हम एक तालिका दी गयी हैं, जिससे अपने लिए सही रत्न का चयन कर सकते हैं। हर रत्न की अपनी आयु होती है, अतः उस आयु के पूर्ण होने पर, जब रत्न का प्रभाव क्षीण हो जाए तो जातक को रत्न का पूजन करके उसे किसी नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए या इसके पश्चात पुनः पूजा करवाकर पहनें। जब एक से अधिक रत्न धारण करें, तो रत्न के शत्रु का भी ध्यान रखें। हर भाव से आठवां भाव उसका मारकेश होता है। इस सिद्धांत को सर्वदा ध्यान में रखकर ही रत्न पहनाएं। माणिक के लिए हीरा, नीलम व गोमेद वर्जित हैं। मोती के लिए गोमेद व लहसुनिया वर्जित है। मूंगे के लिए हीरा, नीलम व गोमेद वर्जित है। पन्ने के लिए मोती वर्जित है। पुखराज के लिए हीरा व नीलम वर्जित है। हीरे व नीलम के लिए माणिक्य, मूंगा व पुखराज वर्जित हैं। गोमेद के लिए माणिक, मूंगा व मोती वर्जित है। लहसुनिया के लिए मोती वर्जित है। पंचधातु व अष्टधातु पहनानी हो, तो सब धातु समान मात्रा में मिलावें। रत्न को धारण करने से पूर्व परीक्षा के लिए रत्न स्वामी ग्रह के रंग के सूती वस्त्र में रत्न को बांधकर दाहिने हाथ में बांधकर फल देखें। परीक्षा के लिए रत्न के स्वामी के वार के दिन ही हाथ में बांधे व अगले, यानी ८ दिन बाद, उसी वार के पश्चात, ९वें दिन उसे हाथ से खोल लें, तो रत्न द्वारा गत ९ दिनों का शुभाशुभ का निर्णय हो जाएगा। रत्न की मर्यादा का भी अवश्य पालन करना चाहिए। बार-बार रत्न को उतारना रत्न का अपमान है। यदि रत्न खो जाए, चोरी हो जाए, जो समझें कि ग्रहदोष उतर गया है। यदि रत्न में दरार पड़े तो समझें कि ग्रह बहुत प्रभावशाली हैं- उसकी शांति करवाएं।

धारण विधि :

रत्न को धारण करने की विधि के विषय में भारतीय दैवज्ञों ने बताया है कि रत्न धारण करने से पूर्व उस रत्न को रत्न स्वामी के वार में, उसी की होरा में, उसी के मंत्रों द्वारा जागृत करके, धारण करना चाहिए। सर्वप्रथम रत्नधारण हेतु शुभ मुहूर्त का चयन करें तथा सौम्य नक्षत्रों में सौम्य रत्न तथा क्रूर नक्षत्रों में क्रूर रत्नों को धारण करना चाहिए। रत्न को पंचामृत से स्नान कराकर, फूल-नैवेद्यादि से पूजित करें तथा रत्न स्वामी के मंत्र की एक माला जप अवश्य करें। शत्रु वर्ग के रत्न को एक साथ धारण नहीं करना चाहिए। रत्नों के दो समूह होते हैं। उनके आधार पर परस्पर शत्रु ग्रहों के रत्न एक साथ एक ही हाथ में नहीं पहनते हैं। इसके अलावा यदि लग्नेश और राशीश परस्पर शत्रु हों तो लग्नेश के रत्न एवं इसके संबंधित रत्न को पुरुष के दाएं हाथ में तथा राशीश एवं इससे संबंधित रत्न को पुरुष के बाएं हाथ में धारण करवाते हैं। स्त्री के इसके विपरीत होता है।
रत्न धारण करने में दांयें एवं बांयें हाथ का सिद्धांत तथा रत्नों का वजन :
चूंकि ऊपर यह बताया गया है कि पुरुष जातक को दांये अर्थात् सीधे हाथ में तथा स्त्री जातक को बायें अर्थात् उल्टे हाथ में रत्न धारण करने चाहिए। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण निम्न दो हैं-
१. चूंकि चिकित्सा शास्त्रानुसार, पुरुष का दायां ;त्पहीजद्ध हाथ गर्म तथा बायां ;स्मजि द्ध हाथ ठंडा होता है तथा चूंकि स्त्री, पुरुष की विपरीत होती है। अतः प्रकृति अनुसार स्त्री का दायां हाथ ठंडा तथा बायां हाथ गर्म होता है। चूंकि कुछ रत्न प्रकृति अनुसार गर्म होते हैं अर्थात् पुखराज, हीरा, माणिक, मूंगा आदि गर्म प्रकृति के रत्न होते हैं। तथा कुछ रत्न जैसे- मोती, पन्ना, नीलम, गोमेद, लहसुनिया आदि ठंडी प्रकृति के होते हैं। अतः रत्नों से प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष एवं स्त्री जातक दोनों को, पूरा लाभ मिले। इसके लिए जातक के हाथ एवं रत्न की प्रकृति अनुसार ही रत्न को क्रमशः दांये या बांये हाथ में निम्न नियमानुसार धारण किये जाते हैं।

गर्म रत्न -

( माणिक, मूंगा, पुखराज एवं हीरा) पुरुष जातक दायां हाथ की तर्जनी एवं अनामिका में धारण करें। क्योंकि अंगुलियों में भी दायें हाथ की ये अंगुलियां तर्जनी एवं अनामिका गर्म होती है। अतः गर्म हाथ की गर्म अंगुलियों में गर्म रत्न धारण करने पर परिणाम १०० प्रतिशत शुभ एवं शुद्ध प्राप्त होता है। स्त्री जातक, इन रत्नों को बायां हाथ की गर्म अंगुलियां तर्जनी, अनामिका में ही धारण करें।

ठंडे रत्न -

(मोती, पन्ना, नीलम, गोमेद, लहसुनिया), पुरुष जातक बांये हाथ की मध्यमा एवं कनिष्ठिका अंगुली में धारण करें। क्योंकि पुरुष जातक के बांये ठंडे हाथ की भी अंगुलियां मध्यमा एवं कनिष्ठका ठंडी होती है। अतः ठंडे हाथ की ठंडी अंगुलियों में ठंडे रत्न धारण करने पर फल १०० प्रतिशत शुभ एवं अच्छे प्राप्त होते हैं।
रत्नों का प्रभाव :

माणिक्य :

माणिक्य धारण करने से सिरदर्द, बुखार, नेत्रपीड़ा, पित्तविकार, मुर्च्छा, चक्कर आना, दाह (जलन), हृदय रोग, अतिसार, अग्निशास्त्र, विषजन्य विकार, पशु व शत्रु व भय, आदि कष्ट की शांति होती है। यदि माणिक्य जातक के लिए शत्रुवर्ग का हो, तो ऊपर लिखे सभी कष्ट जातक को सूर्य की दशा में प्राप्त होते हैं।

मोती :

मोती धारण करने से चंद्रमा की शांति होती है। क्रोध शांत होता है तथा मानसिक तनाव भी दूर होते हैं। इसके विपरीत यदि मोती जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक में आलस्य, कंधों में पीड़ा, तेजहीनता सदी का बुखार, नशा करने की आदत, अनिद्रा आदि होती है। मूंगा :
मूंगा धारण करने से रक्त साफ होता है, नजरदोष का नाश होता है, रक्त में वृद्धि होती है, भूतभय व प्रेतबाधा मिटती है, तथा मंगल जनित कष्ट क्षीण होते हैं। इसके विपरीत यदि मूंगा जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक में पेशाब का विकार, विकारी स्वभाव, क्रोध, मस्तिष्क की अस्थिरता, सर्पभय, आदि होते हैं। पन्ना :
पन्ना धारण करने से नेत्ररोग का नाश, ज्वरशांति, सन्निपात, दमा, शोध आदि का नाश होता है तथा वीर्य में वृद्धि होती है। इसे धारण करने से बुध-कोप की शांति होती है। इससे जातक के काम, क्रोध, आदि विकार भी शांत रहते हैं तथा तांत्रिक अभिचार, टोने-टोटके से भी ये मुक्ति देता है।

पुखराज :

पुखराज धारण करने से ज्ञान, शक्ति, सुख, धन, आदि में वृद्धि होती है। गुरु जनित कष्टों का अंत होता है। जिन जातकों के विवाह में दिक्कत हों, तो वह पुखराज धारण करें। इसके विपरीत यदि ये जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक के घुटने में दर्द, पेट की बीमारी, भी हो जाती है।

हीरे :

हीरा धारण करने से जातक को सुख, ऐश्वर्य, राजसम्मान, वैभव, विलासिता, आदि प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत यदि हीरा जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक को मूत्र विकार, नेत्रविकार, मैथुनशक्ति का नाश, असत्यवाचन, कफ रोग, आदि देता है। जो स्त्री पुत्र की कामना करे, उन्हें हीरा धारण नहीं करना चाहिए।

नीलम :

नीलम धारण करने से भूत-प्रेतबाधा निवारण, सर्प विष निवारण, रक्त प्रवाह को रोकना आदि कर्म होते हैं। नीलम शनि कृत कष्टों को शांत कर देता है। नीलम आंतरिक शांति देता है। श्वास, पित्त, खांसी की बीमारी दूर करता है। प्रेम में प्रगाढ़ता, दोष निवारण, दुख-दारिद्रय नाश, रोग नाश, सिद्धियों का दाता है नीलम रत्न। यही नीलम राजा को रंक तथा रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है।

गोमेद :

गोमेद धारण करने से भ्रम नाश, निर्णय शक्ति, आत्मबल का संचार, दरिद्रता का नाश, शत्रु की हार, नशे की आदत का नाश, सफलता, विवाह-बाधा नाश, पाचन शक्ति की प्रबलता, अजातशत्रुता, आत्म संतुष्टि, संतान बाधा का नाश, सुगम विकास शक्ति प्राप्त होती है। वात व कफ की बाधा भी शांत होती है।

लहसुनिया :

लहसुनिया धारण करने से दुखों का नाश, केतु की शांति, भूत-बाधा निवारण, व्याधि नाश तथा नेत्र रोग का नाश, स्वस्थ काया की प्राप्ती होती है सरकारी कार्यों में सफलता तथा दुर्घटना का नाश करने वाला रत्न लहसुनिया पित्तज रोगों का नाश करने वाला, केतु कृत समस्त रोगों व कष्टों का निवारण करता है।
के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय के वैज्ञानिक आधार को स्पष्ट करने के लिए यह समझना अति आवश्यक है कि मानव शरीर मात्र एक भौतिक रूप नहीं है। सृष्टि में, दृष्टि से नहीं दिखने वाले बहुत पदार्थ हैं, जिसे आधुनिक विज्ञान पूर्ण सत्य स्थापित कर चुका है। हर शरीर के बाह्यमंडल पर ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव होता है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि जब विद्युतधारा प्रवाहित होती है तो, वह नहीं दिखाई देती है लेकिन उसका कार्य बिजली के बल्ब या चलते हुए पंखे से ज्ञात होता है, वैसे ही ग्रह नक्षत्रों के ऊर्जा रश्मि का, मानव के कार्य कलाप पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जन्मकुंडली के निर्माण के बाद व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का खाका प्रायः अच्छे प्रतिशत तक ज्ञात हो जाता है अर्थात ग्रह-नक्षत्रों के ऊर्जा स्रोत का सम्मिश्रण सामने आ जाता है। व्यक्ति जिस ग्रह-नक्षत्र के ऊर्जा रश्मि स्रोत में क्षीण होता है, उसके कारक तत्व में वह शिथिलता दर्शाता है। ऐसी स्थति में उन ग्रहों से संबंधित रत्न द्वारा उसके वाह्य शरीर में उन ऊर्जाओं की भरपाई करना ही एक उपाय बचता है। भौतिक शास्त्र कहता है- कि प्रत्येक तत्व में ऊर्जा शक्ति है, फिर प्रकृति द्वारा प्रदत्त ये रत्न, इससे, कैसे वंचित हो सकते हैं? आज तरंगों से संबंधित उपकरणों जैसे मोबाइल आदि हमेशा हृदय या कान पर रखने से दुष्परिणाम दर्शाते हैं। तो रत्न, जो अपने परिवेश में ग्रह-नक्षत्रों की रश्मियां लाते हैं, व्यक्ति के बाह्य एवं शरीर पिंड को क्यों प्रभावित नहीं करेंगे?

रत्नों के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय का वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय तथ्य :

मनुष्य जीवन सूर्य से प्राप्त श्वेत प्रकाश द्वारा ही चल रहा है। यह श्वेत प्रकाश सात रंगों से मिलकर बना होता है। जिसे 'इंद्रधनुष'' के नाम से भी जानते हैं। यह अवसर बारिश के मौसम में दिखाई देता है। इन्हीं सात रंगों से उत्पन्न कॉस्मिक किरणों (अर्थात् पराबैंगनी) का प्रभाव मनुष्य जीवन में चारों स्तर जैसे- शारीरिक, मानसिक (स्वास्थ्य रूप में) आर्थिक (धन रूप में) तथा सामाजिक (प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य आदि) पर पड़ता है। इन्हीं सतरंगी किरणों के कॉस्मिक प्रभाव को रत्नों के माध्यम से जीवन में उतारकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इन रत्नों से निकलने वाली चुंबकीय शक्ति की तरंगे मनुष्य जीवन को एक विशेष ढंग से प्रभावित करती हैं। सूर्य की श्वेत किरणों में सात रंग छिपे होते हैं। प्रत्येक रंग एक विशेष रश्मि की किरणों द्वारा मनुष्य के जीवन को अपने प्रतीक, आवर्तन (अपवर्तन), परावर्तन, प्रतिक्षिप्त, स्पंदन तथा स्पर्श द्वारा प्रभावित करता है। सभी रत्नों में इन रंगों की रश्मियां अधिकतम मात्रा में होती हैं, जिसके कारण ये सभी रत्न, इनसे संबंधित निर्बल ग्रह की किरणों को मजबूती देकर उस ग्रह की प्रभाव शक्ति को संबंधित मनुष्य के लिए बढ़ाता है। वास्तव में प्रकाश का रूप रंग, जो दिखाई देता है, वह वास्तविक नहीं है। इसके वास्तविक रूप-रंग को देखने के लिए त्रिकोण कांच (प्रिज्म) का उपयोग करना चाहिए। त्रिकोण कांच अर्थात् प्रिज्म के प्रायोगिक अध्ययन द्वारा प्रकाश के रूप-रंग का वास्तविक होने का पता चलता है। अर्थात् प्रकाश (श्वेत) को प्रिज्म द्वारा गुजारते हैं तो यह श्वेत प्रकाश, सात रंगों से मिलकर बना हुआ है। ऐसा ज्ञात होता है। सौरमंडल के इन ७ ग्रहों की सातों किरणें, संपूर्ण ब्रह्मांड को सात रंगों से आच्छादित किये रहती है। ये सातो रंग निम्न दो क्रमानुसार (सीधे एवं उल्टे) होते हैं।
सीधा क्रम : विब्ग्योर (Vibgyor) अर्थात् बैनीआहपीनाला। (बै-बैंगनी, नी- नीला, आसमानी), हरा पीला नारंगी व लाल।
उल्टा क्रम : रॉयग्बिव(Roygbiv) अर्थात् लानापीहआनीबे।
अंग्रेजी में हिंदी में
V- Violet  बैंगनी
I-Indigo  नीला
B-Blue आसमानी
G-Green हरा
Y-Yellow पीला
O-Orange नारंगी
R-Red लाल
इन दोनों ही शब्दों को भौतिकी में प्रकाश के लिए उपयोग में लेते हैं। जो रंगों में हिंदी एवं अंग्रेजी नाम के पहले अक्षरों को मिलकर बनाया गया है। अर्थात् उपरोक्त दोनों शब्द इन रंगों का ही संक्षिप्त रूप (नाम) हैं।

उपरत्नों के उपयोग की सार्थकता :

ग्रहों को अनुकूल कर बलवान बनाने के लिए किये जाने वाले विभिन्न उपायों जैसे रत्न, उपरत्न, जड़ी-बूटी, यंत्र, मंत्र, तंत्र, व्रत, दान, टोटके, लाल किताब एवं वास्तु तथा फेंगशुई आदि में अभी तक शोधानुसार सबसे कारगर उपाय ÷रत्न' धारण करना ही साबित हुए हैं। क्योंकि रत्नों में ग्रहों को अनुकूल कर बलवान बनाने की अदभुत शक्ति प्राकृतिक रूप विद्यमान रहती है। ये नौ रत्न, नौ ग्रहों के समाधान का मूल उपाय है। तभी तो नौ ग्रहों के रत्नों के लिए ÷नवरत्न' शब्द का प्रयोग किया जाता है। यदि इनमें भी छाया ग्रह राहु एवं केतु को छोड़कर मूल रूप में देखें तो इन सात ग्रहों के रत्नों के लिए सप्त -महारत्न' शब्द का प्रयोग किया जाता है।

रत्नों का कार्य सिद्धांत :

जब रत्न को इसके ग्रह से संबंधित देव मंत्रों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा कर सिद्ध किया जाए तो यह ग्रहों से आने वाली अशुभ किरणों को इनकी रंग की शक्ति द्वारा हर समय अवशोषित अर्थात् छानकर शुभ एवं अनुकूल करके इन्हें शरीर के अंदर भेजता है। जिससे व्यक्ति की कोशिकाओं, मन, मस्तिष्क व दिल पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा करीब ३-६ महीने के भीतर जातक की सोच अर्थात मनोविज्ञान पर अच्छा परितर्वन आ जाता है। जिससे जातक को उस ग्रह से संबंधित शुभ फल मिलते हैं। यही रत्नों के कार्य करने का सिद्धांत भी है।
इस प्रकार व्यक्ति विशेष को रत्नों का हर समय लाभ मिलता रहता है। इस कारण से रत्नों को सबसे कारगर उपाय माना जाता है।
रत्न भी निम्न दो प्रकार से शरीर पर धारण किये जाते हैं।
अंगूठी के रूप में अंगुली में।
पैंडल या लॉकेट के रूप में गले में।
उपरोक्त में से प्रथम तरीके में अर्थात् रत्नों की अंगूठी के रूप में अंगुली में धारण करना सबसे अधिक तथा तुरंत प्रभावशाली माना जाता है। क्योंकि रत्न की अंगूठी, अंगुली की त्वचा को हर समय अर्थात् सोते, जागते, चलते, फिरते, आदि कर्म करते समय बराबर स्पर्श किए रहती है। जिससे अधिक सपंर्क में आने के कारण लाभ अधिक मिलता है। जबकि रत्नों को लॉकेट के रूप में गले में धारण करने पर रत्न शरीर की त्वचा को हर समय स्पर्श नहीं कर पाते हैं। अतः रत्नों को गले में धारण करने से हाथ की अंगुलियों की अपेक्षा लाभ कम मिलता है। यदि दोनों में तुलना करें तो अंगुलियों में रत्नों को धारण करने पर यदि अधिकतम लाभ ९०-९५ प्रतिशत मिलता है तो गले में धारण करने पर ८०-९० प्रतिशत के बीच में ही लाभ मिलेगा।
गले में मुख्यतः भगवान के लॉकेट, रुद्राक्ष तथा विभिन्न मालाएं आदि धारण की जाती हैं। इसके पीछे कारण यह है कि भगवान या इष्ट देव को सदैव हृदय या दिल में स्थान दिया जाता है। अर्थात् हृदय के पास लगाया जाता है।

ज्योतिषीय के तौर पर रत्नों का प्रयोगः

प्राचीन काल से ही रत्न अपनी आभा, दुर्लभता, अदभुत गुणों एवं अपनी अन्य दिव्य विलक्षणताओं के लिए संसार भर में आकर्षण का एक केंद्र बने रहे हैं। गरुड़ पुराण, श्रीरामचरितमानस, महाभारत, नारदपुराण, विष्णु पुराण आदि ग्रंथों में रत्नों का विशद उल्लेख किया गया है। तुलसीदास ने रामायण में
लिखा है-
मनि दीप राजहिं भवन भ्रातहिं देहरी बिद्रुमरची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुन्दर मनोहर मंदिरायत अजिर रूचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
इसके अतिरिक्त आचार्य वराहमिहिर ने भी अपनी महान् कृति ÷बृहत्संहिता' में भी रत्नों का विशद वर्णन किया है वे रत्नपरीक्षाध्याय में लिखते हैं :
रत्नेन शुभेन शुभं भवति नृपाणाम -निवटमशुभेन। यस्मादवः परीक्ष्य दैव रत्नाश्रि्रतं तज्झैः
अर्थात् ÷शुभ रत्न धारण करने से राजा को सदैव शुभ तथा अशुभ रत्न धारण करने से सदैव अशुभता की प्राप्ति होती है। अतः रत्नज्ञों द्वारा रत्नों की परीक्षा की जानी चाहिए।
आज के इस आधुनिक काल में हर मनुष्य तरक्की करता है। अतः अपनी तरक्की में वृद्धि हेतु वह रत्न-रुद्राक्ष का, ज्योतिष-वास्तु आदि का प्रयोग करता है। भाग्य परिवर्तन व कष्ट निवारण में रत्नों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अतः ग्रहों की स्थिति के अनुसार उनके रत्न पहने जाते हैं। मणिमाला में लिखा है-
धन्यं यश्स्यमायुष्यं श्रीमद् व्यसनसूदनं। हर्षणं काम्यमोजस्यं रत्नाभरणधारणं
रत्नजड़ित आभूषण धारण करने से धन, सुख, शक्ति यश, तेज, हर्ष, आयु में वृद्धि होती है व व्यसनों का नाश होता है। मुख्य रूप से नवरत्नों का सर्वाधिक महत्व है- माणिक, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद व लहसुनिया। ये क्रमशः नौ ग्रहों के लिए पहनाए जाते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण :

ग्रहों से सभी मनुष्य इतने अधिक प्रभावित होते हैं कि मनुष्य के सृजन-संहार की शक्ति भी ग्रहों में होती है। रत्नों में ग्रहों की शक्ति को बढ़ाने अथवा घटाने की क्षमता होती है। रत्नों में अपने अधिपति ग्रहों की रश्मियों, चुंबकत्व शक्ति तथा स्पंदन को आकर्षित करके परिवर्तन करने की भी शक्ति होती है। इसी शक्ति का प्रयोग करने हेतु रत्नों का उपयोग किया जाता है।
किसी भी कुंडली में दशानुसार ग्रह का उपाय तथा रत्नधारण करने से शुभत्व में वृद्धि होती है। वैज्ञानिक रूप से विशिष्ट ग्रह का मंत्रोच्चारण करने से प्रयुक्त ग्रह की रश्मियों की मानव शरीर के पास सुरक्षा रेखा बन जाती है व रत्न रश्मियों को सौंपकर मानव शरीर में प्रवाहित कर शुभत्व में वृद्धि करता है।
अब प्रश्न ये उठता है कि रत्नों की उत्पत्ति कैसे होती है। धरती के गर्भ में खनिज पदार्थों की भरमार है। खनिजों में कार्बन, मैंगनीज, सोडियम, तांबा, लोहा, बेरियम, गंधक, जस्ता, आदि कई पदार्थों के संयोग तथा धरती के दबाव आदि से ही रत्नों में कठोरता, रूप, आभा का अंतर होता है।

उपरत्नों का प्रयोग :

जो जातक मुख्य रत्न लेने में समर्थ नहीं है, उनके लिए उपरत्नों का प्रयोग बताया गया है। ८४ रत्नों का समाहार ग्रन्थों में कहा गया है, जिनमें से ९ रत्न मुख्य हैं तथा अन्य ७५ रत्न उपरत्न कहलाते है।

चयन विधि :

किसी भी व्यक्ति को रत्न पहनने से पहले अपने शारीरिक भार, ग्रहों के बलाबल-शुभाशुभ, का ध्यान रखते हुए ही रत्न का वजन निर्धारित करना चाहिए। सर्वदा दोष रहित रत्न ही धारण करें। किस ग्रह के लिए किस रत्न को पहना जाए, इसके लिए हम एक तालिका दी गयी हैं, जिससे अपने लिए सही रत्न का चयन कर सकते हैं। हर रत्न की अपनी आयु होती है, अतः उस आयु के पूर्ण होने पर, जब रत्न का प्रभाव क्षीण हो जाए तो जातक को रत्न का पूजन करके उसे किसी नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए या इसके पश्चात पुनः पूजा करवाकर पहनें। जब एक से अधिक रत्न धारण करें, तो रत्न के शत्रु का भी ध्यान रखें। हर भाव से आठवां भाव उसका मारकेश होता है। इस सिद्धांत को सर्वदा ध्यान में रखकर ही रत्न पहनाएं। माणिक के लिए हीरा, नीलम व गोमेद वर्जित हैं। मोती के लिए गोमेद व लहसुनिया वर्जित है। मूंगे के लिए हीरा, नीलम व गोमेद वर्जित है। पन्ने के लिए मोती वर्जित है। पुखराज के लिए हीरा व नीलम वर्जित है। हीरे व नीलम के लिए माणिक्य, मूंगा व पुखराज वर्जित हैं। गोमेद के लिए माणिक, मूंगा व मोती वर्जित है। लहसुनिया के लिए मोती वर्जित है। पंचधातु व अष्टधातु पहनानी हो, तो सब धातु समान मात्रा में मिलावें। रत्न को धारण करने से पूर्व परीक्षा के लिए रत्न स्वामी ग्रह के रंग के सूती वस्त्र में रत्न को बांधकर दाहिने हाथ में बांधकर फल देखें। परीक्षा के लिए रत्न के स्वामी के वार के दिन ही हाथ में बांधे व अगले, यानी ८ दिन बाद, उसी वार के पश्चात, ९वें दिन उसे हाथ से खोल लें, तो रत्न द्वारा गत ९ दिनों का शुभाशुभ का निर्णय हो जाएगा। रत्न की मर्यादा का भी अवश्य पालन करना चाहिए। बार-बार रत्न को उतारना रत्न का अपमान है। यदि रत्न खो जाए, चोरी हो जाए, जो समझें कि ग्रहदोष उतर गया है। यदि रत्न में दरार पड़े तो समझें कि ग्रह बहुत प्रभावशाली हैं- उसकी शांति करवाएं।

धारण विधि :

रत्न को धारण करने की विधि के विषय में भारतीय दैवज्ञों ने बताया है कि रत्न धारण करने से पूर्व उस रत्न को रत्न स्वामी के वार में, उसी की होरा में, उसी के मंत्रों द्वारा जागृत करके, धारण करना चाहिए। सर्वप्रथम रत्नधारण हेतु शुभ मुहूर्त का चयन करें तथा सौम्य नक्षत्रों में सौम्य रत्न तथा क्रूर नक्षत्रों में क्रूर रत्नों को धारण करना चाहिए। रत्न को पंचामृत से स्नान कराकर, फूल-नैवेद्यादि से पूजित करें तथा रत्न स्वामी के मंत्र की एक माला जप अवश्य करें। शत्रु वर्ग के रत्न को एक साथ धारण नहीं करना चाहिए। रत्नों के दो समूह होते हैं। उनके आधार पर परस्पर शत्रु ग्रहों के रत्न एक साथ एक ही हाथ में नहीं पहनते हैं। इसके अलावा यदि लग्नेश और राशीश परस्पर शत्रु हों तो लग्नेश के रत्न एवं इसके संबंधित रत्न को पुरुष के दाएं हाथ में तथा राशीश एवं इससे संबंधित रत्न को पुरुष के बाएं हाथ में धारण करवाते हैं। स्त्री के इसके विपरीत होता है।
रत्न धारण करने में दांयें एवं बांयें हाथ का सिद्धांत तथा रत्नों का वजन :
चूंकि ऊपर यह बताया गया है कि पुरुष जातक को दांये अर्थात् सीधे हाथ में तथा स्त्री जातक को बायें अर्थात् उल्टे हाथ में रत्न धारण करने चाहिए। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण निम्न दो हैं-
१. चूंकि चिकित्सा शास्त्रानुसार, पुरुष का दायां ;त्पहीजद्ध हाथ गर्म तथा बायां ;स्मजि द्ध हाथ ठंडा होता है तथा चूंकि स्त्री, पुरुष की विपरीत होती है। अतः प्रकृति अनुसार स्त्री का दायां हाथ ठंडा तथा बायां हाथ गर्म होता है। चूंकि कुछ रत्न प्रकृति अनुसार गर्म होते हैं अर्थात् पुखराज, हीरा, माणिक, मूंगा आदि गर्म प्रकृति के रत्न होते हैं। तथा कुछ रत्न जैसे- मोती, पन्ना, नीलम, गोमेद, लहसुनिया आदि ठंडी प्रकृति के होते हैं। अतः रत्नों से प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष एवं स्त्री जातक दोनों को, पूरा लाभ मिले। इसके लिए जातक के हाथ एवं रत्न की प्रकृति अनुसार ही रत्न को क्रमशः दांये या बांये हाथ में निम्न नियमानुसार धारण किये जाते हैं।

गर्म रत्न -

( माणिक, मूंगा, पुखराज एवं हीरा) पुरुष जातक दायां हाथ की तर्जनी एवं अनामिका में धारण करें। क्योंकि अंगुलियों में भी दायें हाथ की ये अंगुलियां तर्जनी एवं अनामिका गर्म होती है। अतः गर्म हाथ की गर्म अंगुलियों में गर्म रत्न धारण करने पर परिणाम १०० प्रतिशत शुभ एवं शुद्ध प्राप्त होता है। स्त्री जातक, इन रत्नों को बायां हाथ की गर्म अंगुलियां तर्जनी, अनामिका में ही धारण करें।

ठंडे रत्न -

(मोती, पन्ना, नीलम, गोमेद, लहसुनिया), पुरुष जातक बांये हाथ की मध्यमा एवं कनिष्ठिका अंगुली में धारण करें। क्योंकि पुरुष जातक के बांये ठंडे हाथ की भी अंगुलियां मध्यमा एवं कनिष्ठका ठंडी होती है। अतः ठंडे हाथ की ठंडी अंगुलियों में ठंडे रत्न धारण करने पर फल १०० प्रतिशत शुभ एवं अच्छे प्राप्त होते हैं।
रत्नों का प्रभाव :

माणिक्य :

माणिक्य धारण करने से सिरदर्द, बुखार, नेत्रपीड़ा, पित्तविकार, मुर्च्छा, चक्कर आना, दाह (जलन), हृदय रोग, अतिसार, अग्निशास्त्र, विषजन्य विकार, पशु व शत्रु व भय, आदि कष्ट की शांति होती है। यदि माणिक्य जातक के लिए शत्रुवर्ग का हो, तो ऊपर लिखे सभी कष्ट जातक को सूर्य की दशा में प्राप्त होते हैं।

मोती :

मोती धारण करने से चंद्रमा की शांति होती है। क्रोध शांत होता है तथा मानसिक तनाव भी दूर होते हैं। इसके विपरीत यदि मोती जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक में आलस्य, कंधों में पीड़ा, तेजहीनता सदी का बुखार, नशा करने की आदत, अनिद्रा आदि होती है। मूंगा :
मूंगा धारण करने से रक्त साफ होता है, नजरदोष का नाश होता है, रक्त में वृद्धि होती है, भूतभय व प्रेतबाधा मिटती है, तथा मंगल जनित कष्ट क्षीण होते हैं। इसके विपरीत यदि मूंगा जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक में पेशाब का विकार, विकारी स्वभाव, क्रोध, मस्तिष्क की अस्थिरता, सर्पभय, आदि होते हैं। पन्ना :
पन्ना धारण करने से नेत्ररोग का नाश, ज्वरशांति, सन्निपात, दमा, शोध आदि का नाश होता है तथा वीर्य में वृद्धि होती है। इसे धारण करने से बुध-कोप की शांति होती है। इससे जातक के काम, क्रोध, आदि विकार भी शांत रहते हैं तथा तांत्रिक अभिचार, टोने-टोटके से भी ये मुक्ति देता है।

पुखराज :

पुखराज धारण करने से ज्ञान, शक्ति, सुख, धन, आदि में वृद्धि होती है। गुरु जनित कष्टों का अंत होता है। जिन जातकों के विवाह में दिक्कत हों, तो वह पुखराज धारण करें। इसके विपरीत यदि ये जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक के घुटने में दर्द, पेट की बीमारी, भी हो जाती है।

हीरे :

हीरा धारण करने से जातक को सुख, ऐश्वर्य, राजसम्मान, वैभव, विलासिता, आदि प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत यदि हीरा जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक को मूत्र विकार, नेत्रविकार, मैथुनशक्ति का नाश, असत्यवाचन, कफ रोग, आदि देता है। जो स्त्री पुत्र की कामना करे, उन्हें हीरा धारण नहीं करना चाहिए।

नीलम :

नीलम धारण करने से भूत-प्रेतबाधा निवारण, सर्प विष निवारण, रक्त प्रवाह को रोकना आदि कर्म होते हैं। नीलम शनि कृत कष्टों को शांत कर देता है। नीलम आंतरिक शांति देता है। श्वास, पित्त, खांसी की बीमारी दूर करता है। प्रेम में प्रगाढ़ता, दोष निवारण, दुख-दारिद्रय नाश, रोग नाश, सिद्धियों का दाता है नीलम रत्न। यही नीलम राजा को रंक तथा रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है।

गोमेद :

गोमेद धारण करने से भ्रम नाश, निर्णय शक्ति, आत्मबल का संचार, दरिद्रता का नाश, शत्रु की हार, नशे की आदत का नाश, सफलता, विवाह-बाधा नाश, पाचन शक्ति की प्रबलता, अजातशत्रुता, आत्म संतुष्टि, संतान बाधा का नाश, सुगम विकास शक्ति प्राप्त होती है। वात व कफ की बाधा भी शांत होती है।

लहसुनिया :

लहसुनिया धारण करने से दुखों का नाश, केतु की शांति, भूत-बाधा निवारण, व्याधि नाश तथा नेत्र रोग का नाश, स्वस्थ काया की प्राप्ती होती है सरकारी कार्यों में सफलता तथा दुर्घटना का नाश करने वाला रत्न लहसुनिया पित्तज रोगों का नाश करने वाला, केतु कृत समस्त रोगों व कष्टों का निवारण करता है।

शुक्रवार, 4 जून 2010

क्या है स्वप्न का विज्ञान ?

पं. किशोर घिल्डियाल

आदि काल से ही मानव मस्तिष्क अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के प्रयत्नों में सक्रिय है। परंतु जब किसी भी कारण इसकी कुछ अधूरी इच्छाएं पूर्ण नहीं हो पाती (जो कि मस्तिष्क के किसी कोने में जाग्रत अवस्था में रहती है) तो वह स्वप्न का रूप ले लती हैं।

आधुनिक विज्ञान में पाश्चात्य विचारक सिगमंड फ्रायड ने इस विषय में कहा है कि स्वप्न'' मानव की दबी हुई इच्छाओं का प्रकाशन करते हैं जिनको हमने अपनी जाग्रत अवस्था में कभी-कभी विचारा होता है। अर्थात स्वप्न हमारी वो इच्छाएं हैं जो किसी भी प्रकार के भय से जाग्रत्‌ अवस्था में पूर्ण नहीं हो पाती हैं व स्वप्नों में साकार होकर हमें मानसिक संतुष्टि व तृप्ति देती है।

सपने या स्वप्न आते क्यों है? इस प्रश्न का कोई ठोस प्रामाणिक उत्तर आज तक खोजा नहीं जा सका है। प्रायः यह माना जाता है कि स्वप्न या सपने आने का एक कारण ÷नींद' भी हो सकता है। विज्ञान मानता है कि नींद का हमारे मस्तिष्क में होने वाले उन परिवर्तनों से संबंध होता है, जो सीखने और याददाश्त बढ़ाने के साथ-साथ मांस पेशियों को भी आराम पहुंचाने में सहायक होते हैं। इस नींद की ही अवस्था में न्यूरॉन (मस्तिष्क की कोशिकाएं) पुनः सक्रिय हो जाती हैं।

वैज्ञानिकों ने नींद को दो भागों में बांटा है पहला भाग आर ई एम अर्थात्‌ रैपिड आई मुवमेंट है। (जिसमें अधिकतर सपने आते हैं) इसमें शरीर शिथिल परंतु आंखें तेजी से घूमती रहती हैं और मस्तिष्क जाग्रत अवस्था से भी ज्यादा गतिशील होता है। इस आर ई एम की अवधि १० से २० मिनट की होती है तथा प्रत्येक व्यक्ति एक रात में चार से छह बार आर ई एम नींद लेता है। यह स्थिति नींद आने के लगभग १.३० घंटे अर्थात ९० मिनट बाद आती है। इस आधार पर गणना करें तो रात्रि का अंतिम प्रहर आर ई एम का ही समय होता है (यदि व्यक्ति समान्यतः १० बजे रात सोता है तो ) जिससे सपनों के आने की संभावना बढ़ जाती है।

सपने बनते कैसे हैं : दिन भर विभिन्न स्रोतों से हमारे मस्तिष्क को स्फुरण (सिगनल) मिलते रहते हैं। प्राथमिकता के आधार पर हमारा मस्तिष्क हमसे पहले उधर ध्यान दिलवाता है जिसे करना अति जरूरी होता है, और जिन स्फुरण संदेशों की आवश्यकता तुरंत नहीं होती उन्हें वह अपने में दर्ज कर लेता है। इसके अलावा प्रतिदिन बहुत सी भावनाओं का भी हम पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। जो भावनाएं हम किसी कारण वश दबा लेते हैं (गुस्सा आदि) वह भी हमारे अवचेतन मस्तिष्क में दर्ज हो जाती हैं। रात को जब शरीर आराम कर रहा होता है मस्तिष्क अपना काम कर रहा होता है। (इस दौरान हमें चेतनावस्था में कोई स्कुरण संकेत भावनाएं आदि नहीं मिल रही होती) उस समय मस्तिष्क दिन भर मिले संकेतों को लेकर सक्रिय होता है जिनसे स्वप्न प्रदर्शित होते हैं। यह वह स्वप्न होते हैं जो मस्तिष्क को दिनभर मिले स्फुरण, भावनाओं को दर्शाते हैं जिन्हें दिनमें हमने किसी कारण वश रोक लिया था। जब तक यह प्रदर्शित नहीं हो पाता तब तक बार-बार नजर आता रहता है तथा इन पर नियंत्रण चाहकर भी नहीं किया जा सकता।

शकुन व इसका आधार

पं. किशोर घिल्डियाल

शकुनो में कोई ना कोई विशेष शक्ति होती है जो मनुष्यों को सावधान करने के लिए तथा शुभाशुभ फल प्रदान करने हेतु पूर्व सूचना देती है।

शकुन' विषय पर विभिन्न व्यक्तियों के विभिन्न विचार होते हैं किसी के लिए ÷शकुन' ऐसा परिणाम सूचक है जो निकट भविष्य में होने वाला है। किसी के लिए शकुन दैवीय प्रेरणा या कृपा है जो शुभाशुभ फल के रूप में प्राप्त होती है।

अनेक विद्वान ÷शकुन' को अंग विद्या का एक हिस्सा मानते हैं जो मानव जीवन को पक्षियों की गतिविधियों को आधार बनाकर फलकथन कर अपना कल्याण करने की प्रेरणा देते हैं। शकुन का अर्थ पक्षी होता है जिससे पता चलता है कि यह विद्या मानव ने पक्षियों की गतिविधियों से देखकर तथा अनुभव की कसौटी पर कस कर अपने भावी जीवन हेतु अपनाई।

शकुन का वैज्ञानिक आधार

शकुनों का आधार ज्योतिष के साथ-साथ वैज्ञानिक भी रहा है। जो शुभ सिद्ध होने पर लाभदायक तथा अशुभ होने पर सावधान करने वाला भी है। पक्षियों की विशेष गतिविधियों को निश्चित समय पर करते देख विज्ञान ने समय के साथ इस पर शोधकर नए-नए विषयों पर काम किया जिससे मनुष्य जीवन की बहुत सी कठिनाइयों व परेशानियों का अंत भी हुआ, जैसे मोर पक्षी का नाचना आज भी बरसात आगमन की सूचना दे देता है और इसे विज्ञान भी मानता है। भूकंप आदि आने से पहले सांप-बिच्छु आदि अपने बिल से बाहर आकर इधर-उधर दौड़ने लगते हैं।

शकुनों की सार्थकता

आज के युग में कुछ बुद्धिजीवी शकुन विज्ञान पर विश्वास न कर इन्हें व्यर्थ का मनोविकार बताते हैं वहीं कुछ लोग इन्हें सार्थक तथा व्यर्थ दोनों ही परिपेक्ष्य में गिनते हैं।

जो व्यक्ति अनुभव प्राप्त कर लेते हैं (जैसे बिल्ली के रास्ता काट जाने पर इच्छित कार्य का ना होना) वो शकुनों के प्रति विश्वासी हो जाते हैं जिससे आज के युग में भी इन शकुनों की सार्थकता बनी हुई है।

इसके विपरित जब कभी किसी मनुष्य को कोई शकुन अशुभफल प्रदान करता है तो शकुनों की विश्वसनीयता पर संदेह हो जाता है। उदाहरण हेतु यदि किसी की छत पर कौआ बोलने लगे तो यह मेहमान के आगमन की सूचना माना जाता है। परंतु यदि उस व्यक्ति की कोई कीमती वस्तु उस दिन खो जाए तो वह कौअे के इस कॉंव-कांव को ही उसका कारण मानेंगें। ऐसे में शकुन विचार विपरीत दृष्टिकोण को दर्शाएगा।

इस प्रकार ऐसे कई विवरण हो सकते हैं जिनसे यह समझा व माना जाता है कि शकुनो में कोई ना कोई विशेष शक्ति होती है जो मनुष्यों को सावधान करने के लिए तथा शुभाशुभ फल प्रदान करने हेतु पूर्व सूचना देती है।


मंगलवार, 1 जून 2010

रुद्राक्ष द्वारा चिकित्सा

आयुर्वेद में रुद्राक्ष को महा औषधि की संज्ञा दी गई है। इसके विभिन्न औषधीय गुणों के कारण रोगोपचार हेतु इसका उपयोग आदिकाल से ही होता आया है। जानकारी के अभाव में आम जन उसके इस लाभ से वंचित रह जाते हैं। पाठकों के लाभार्थ, किस रोग के उपचार में कौन-सा रुद्राक्ष उपयोगी होता है इसका एक विशद विश्लेषण यहां प्रस्तुत है।

वात, पित्त और कफ जन्य रोगों के

शमन हेतु

रुद्राक्ष के विषय में कहा गया है कि यह उष्ण और अम्लीय होता है। अपने इस गुण के कारण यह त्रिदोष जन्य रोगों का शमन करता है। अम्ल और विटामिन सी युक्त होने के कारण यह रक्त-शोधक तथा रक्त-विकार नाशक है। उष्ण होने के कारण यह सर्दी और कफ के असंतुलन से होने वाले सभी रोगों को दूर करने में उपयोगी है।

रक्तचाप को सामान्य रखने और हृदय

रोग से मुक्ति हेतु

रुद्राक्ष की माला धारण करने से उच्च रक्तचाप सामान्य होता है और हृदय रोगों से मुक्ति मिलती है। माला इस तरह धारण करें कि यह वक्षस्थल को स्पर्श करती रहे।

रुद्राक्ष और स्वर्ण भस्म बराबर मात्रा में १-१ रत्ती सुबह और शाम नियमित रूप से मलाई के साथ सेवन करें, रक्तचाप सामान्य हो जाएगा।

रुद्राक्ष घिसकर आधा चम्मच प्याज के रस तथा शहद मिलाकर खाएं और फिर लौकी का रस पीएं। यह क्रिया नियमित रूप से करें, हृदयाघात से रक्षा होगी।

चेचक जन्य पीड़ा से मुक्ति हेतु

रुद्राक्ष और काली मिर्च समान भार में लेकर दोनों को पीस लें और मिश्रण का कपड़-छान कर चेचक के रोगी को बासी पानी के साथ पिलाएं। ऐसा तीन दिनों तक करें, रोगी को जलन और बेचैनी से मुक्ति मिलेगी।

कच्चे नारियल के तेल में रुद्राक्ष का एक दाना तीन घंटे तक रखें। फिर दाने को चम्मच या किसी अन्य उपकरण से निकाल लें। ध्यान रहे, हाथ से कदापि न निकालें। फिर उस तेल से रोगी की मालिश करें, चेचक के दाग भर जाएंगे और चेहरे पर कांति आ जाएगी। यह प्रयोग एक से डेढ़ मास तक नियमित रूप से करें।

स्मरण शक्ति की कमी, खांसी और

दमा रोग से मुक्ति के लिए

रुद्राक्ष को दूध में उबालकर पीने से स्मरण शक्ति तीव्र होती है।

दस मुखी रुद्राक्ष को गाय के ताजे दूध के साथ घिसकर दिन में तीन बार उसका सेवन करें। यह क्रिया नियमित रूप से करते रहें, कुछ ही दिनों में पुरानी से पुरानी खांसी से मुक्ति मिलेगी।

पांच मुखी रुद्राक्ष के कुछ दानें फोड़कर उबाल लें और उस पानी का सेवन करें। ऐसा नियमित रूप से करें, दमे व श्वास रोग से राहत मिलेगी।

रुद्राक्ष को घिसकर शहद के साथ दिन में ३ बार लें, खांसी से मुक्ति मिलेगी।

एक भाग छह मुखी रुद्राक्ष और चार भाग सितोपलादि का चूर्ण मिलाकर शहद के साथ नियमित रूप से लें, श्वास रोग से बचाव होगा।

कोलेस्टेरॉल के स्तर को सामान्य

करने के लिए

एक कप दूध उबालकर उसमें एक रुद्राक्ष तथा लहसुन की फांक रखें। कुछ देर छोड़ दें और फिर रुद्राक्ष को निकाल कर दूध का सेवन करें और लहसुन की फांक खा लें। ऐसा तीन महीने तक नियमित रूप से करते रहें, कोलेस्टेरॉल का स्तर सामान्य हो जाएगा।

मानसिक शांति हेतु

गाय के दूध में ४ रुद्राक्ष उबालकर दूध का सेवन करें, मानसिक रोग से मुक्ति मिलेगी और मन शांत रहेगा। यह क्रिया तीन माह तक करें।

बवासीर एवं गुर्दे के रोग से बचाव

के लिए

एक रुद्राक्ष और उसके चार गुने भार के बराबर अपामार्ग के बीज सवा लीटर पानी में खौलाएं। जब पानी का लगभग दसवां भाग रह जाए, तो उसमें गाय का दो गुना घी मिला दें। फिर इसकी १२ से १५ बूंदों की मात्रा का प्रतिदिन सेवन करें, बवासीर और गुर्दे की बीमारी से राहत मिलेगी।

प्रदर रोग से मुक्ति हेतु

प्रदर रोग से ग्रस्त स्त्रियां एक भाग रुद्राक्ष, दो भाग चौलाई की जड़ और दो भाग रसौत का चूर्ण बनाकर चार गुने पानी में मिलाएं और उसे मिट्टी के पात्र में रात भर रखें। सुबह उसे छान लें और चावल के धोवन के साथ दस ग्राम की मात्रा में सेवन करें, प्रदर रोग से मुक्ति मिलेगी।

रुद्राक्ष धारण से लाभ

शिखा में अथवा मस्तक पर रुद्राक्ष धारण करें, सिर-दर्द, आंखों के धुंधलेपन, नजला-जुकाम, दिमाग की कमजोरी, स्मरण शक्ति में कमी आदि से रक्षा होगी।

कंठ में रुद्राक्ष धारण करें, टॉन्सिल अपनी सामान्य स्थिति में रहेगा, स्वर का भारीपन दूर होगा तथा हकलाहट कम होगी।

वात रोग के प्रकोप से मुक्ति हेतु दायीं भुजा तथा स्नायविक विकारों से मुक्ति हेतु बायीं भुजा पर रुद्राक्ष धारण करें। दोनों भुजाओं पर रुद्राक्ष धारण करने से ऊपर वर्णित रोगों से मुक्ति के साथ-साथ पक्षाघात से भी बचाव होता है।

कमर में रुद्राक्ष धारण करने से कमर दर्द, रीढ़ की हड्डी के रोग, पेट की बीमारी आदि से मुक्ति मिलती है। महिलाओं के लिए कमर में रुद्राक्ष धारण करना अत्यधिक लाभप्रद होता है। इससे उनका प्रदर रोग तथा अनियमित रजोधर्म से बचाव होता है। साथ ही, प्रसव भी सरलता से होता है। ध्यान रहे, रुद्राक्ष कमर में नाभि के ऊपर ही धारण करें।

ग्रह जन्य रोगों से मुक्ति तथा बचाव

में रुद्राक्ष का उपयोग

ब्रह्मांड में फैले ग्रह विभिन्न रोगों के कारक हैं। विभिन्न मुखों वाले रुद्राक्ष विभिन्न ग्रहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यहां किस ग्रह के कारण उत्पन्न रोग से मुक्ति हेतु कौन सा रुद्राक्ष धारण करना चाहिए, इसका एक संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है।

सूर्य मस्तिष्क ज्वर, शरीर में जलन, पित्त रोग, हृदय रोग, नेत्र-पीड़ा, हड्डी के रोग आदि का कारक है। इन रोगों से मुक्ति हेतु एक और बारह मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

मिर्गी, अपस्मार, नींद की कमी या नींद न आना, कफ, सर्दी, जुकाम, नजला, छाती में बलगम जमना, अतिसार, संग्रहणी, स्त्रियों के रजोधर्म में अनियमितता, निमोनिया, सर्दी के कारण बुखार आदि चंद्र के कारण होते हैं। इनसे मुक्ति के लिए दो मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

मंगल ग्रह जनित रोगों जैसे उच्च रक्तचाप, रक्ताल्पता अथवा रक्त विकार, मज्जा के रोग, गुल्म रोग आदि से बचाव हेतु तीन मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

बुध मस्तिष्क की बीमारियों, स्नायु रोग, स्मरण शक्ति की कमी, नाड़ियों से संबंधित रोग, सांस की नली, गले एवं फेफडे+ के रोग, नर्वस बे्रक-डाउन, चर्म रोग आदि का कारक है। इन रोगों से बचाव हेतु चार मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

जंघा एवं लीवर की बीमारियां, शरीर में चर्बी एवं कोषिकाओं की वृद्धि से उत्पन्न रोग, अंतड़ियों का ज्वर, पीलिया, गुर्दे की बीमारी आदि गुरु के कारण होते हैं। इनसे बचाव हेतु पांच मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

शुक्र ग्रह मूत्र रोग, प्रमेह, मधुमेह, जननेंद्रिय रोग, शरीर के सूखने, गुर्दे के रोग, आंखों की ज्योति की कमी आदि का कारक है। इन रोगों के शमनार्थ तीन तथा तेरह मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

शनि के कारण उत्पन्न रोगों जैसे वायु विकार, जोडो+ं के दर्द, पक्षाघात, हड्डियों की कमजोरी, टांगों के दर्द, लड़खड़ाहट, निम्न रक्तचाप आदि से मुक्ति हेतु सात और चौदह मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

विषादि जन्य रोग, कोढ़ आदि राहु के कारण उत्पन्न रोगों से मुक्ति हेतु आठ मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

केतु गुप्त रोगों का कारक है। इन रोगों से मुक्ति तथा बचाव के लिए नौ मुखी रुद्राक्ष धारण करें।

रुद्राक्ष-जल चिकित्सा

स्वच्छ जल में रुद्राक्ष डुबाकर उस जल का सेवन करने से भी कुछ बीमारियां दूर होती हैं। किंतु रुद्राक्ष को जल में ज्यादा से ज्यादा तीन दिनों तक रखना चाहिए। आवश्यकता पड़ने पर पुनः नया रुद्राक्ष-जल तैयार कर लेना चाहिए। यहां कुछ रोगों से बचाव हेतु रुद्राक्ष-जल के उपयोग की विधि का विवरण प्रस्तुत है।

रात को सोने से पहले रुद्राक्ष के कुछ दानें स्वच्छ जल में डाल दें। प्रातः काल खाली पेट उस जल का सेवन करें, कब्ज तथा अन्य विभिन्न रोगों से मुक्ति मिलेगी।

अकारण ही बेचैनी या घबराहट महसूस होती हो, या मितली आती हो, तो रुद्राक्ष-जल के दो-तीन चम्मच थोड़ी-थोड़ी देर पर पीएं, आराम मिलेगा।

आंखों में जलन, धुंधलापन आदि से बचाव के लिए रुद्राक्ष-जल के छींटे मारें और फिर उन्हें पोंछकर कुछ पलों के लिए बंद कर लें। यह क्रिया नियमित रूप से करते रहें, लाभ होगा।

आंखों में दर्द या पीड़ा हो, अथवा किसी कारणवश सूजन आ गई हो, तो पांच मुखी रुद्राक्ष को घिसकर काजल की तरह लगाएं, आश्चर्यजनक लाभ मिलेगा।

नाक के दोनों छिद्रों से रुद्राक्ष-जल खींचें, सर्दी, जुकाम और नजले से राहत मिलेगी।

कान पक गया हो, मवाद आता हो, कम सुनाई पड़ता हो, तो रुद्राक्ष-जल की कुछ बूंदें कान में डालें, लाभ मिलेगा।

सरसों के तेल में पांच मुखी रुद्राक्ष उबालकर उसे ठंडा होने के लिए कुछ देर छोड़ दें। फिर उसकी एक से दो बूंदें कान में डालें, दर्द दूर होगा।

घाव, पके फोडे+-फुंसियों आदि को रुद्राक्ष-जल से धोएं, राहत मिलेगी।

पांच मुखी रुद्राक्ष की भस्म को गोमूत्र अथवा गोबर और गंगाजल में मिलाकर चर्म रोग से ग्रस्त स्थान पर लगाएं, लाभ होगा।

जिह्‌वा के चटक जाने, स्वर में भारीपन आ जाने अथवा गले में किसी प्रकार का रोग हो जाने पर रुद्राक्ष-जल के गरारे करें, आराम मिलेगा।

रुद्राक्ष-भस्म, लेप तथा चूर्ण चिकित्सा

ब्राह्मण जाति के नौ मुखी रुद्राक्ष की भस्म बना लें और तुलसी के पत्तों के रस के साथ उसका लेप बनाकर कुष्ठग्रस्त अंग पर लगाएं। लेप नियमित रूप से लगाते रहें, कुछ ही सप्ताहों में आराम मिलेगा।

रुद्राक्ष को नीम की पत्तियों के साथ घिसकर खुजलीग्रस्त अंग पर उसका लेप करें। यह क्रिया नियमित रूप से करते रहें, खुजली से मुक्ति मिलेगी।

रुद्राक्ष को जल के साथ चंदन की तरह घिस लें। फिर इस लेप को फोडे+-फुंसियों पर लगाएं, लाभ होगा। यह लेप रक्त-दोष या एलर्जी के चकत्तों को भी दूर करता है।

रुद्राक्ष और बावची का एक-एक भाग हरताल और गोमूत्र के साथ पीसकर सफेद कुष्ठ से ग्रस्त स्थान पर उसका नियमित रूप से लेप करें, लाभ होगा।

रुद्राक्ष और बावची को समभाग में नीम के पत्तों के साथ पीसकर लेप लगाने से खुजली तथा अन्य चर्म रोग दूर होते हैं।

रुद्राक्ष, हल्दी और हरी दूब को समान भाग में छाछ के साथ पीसकर लेप बनाएं और दाद, खाज, खुजली पर लगाएं, लाभ होगा।

रुद्राक्ष, आंवले, यवक्षार और राल का समान मात्रा में कंजी के साथ लेप बनाकर सेहुंआ के सफेद दागों पर लगाएं, कुछ ही दिनों में दाग दूर होने लगेंगे।

चोट या मोच आ गई हो, या किसी अन्य कारण से शरीर के किसी भाग में सूजन आ गई हो, तो रुद्राक्ष, साठी, सोंठ, देवदारु, सहजन और सफेद सरसों समान मात्रा में लेकर कंजी के साथ पीसकर उसका प्रभावित भाग पर लेप करें, राहत मिलेगी।

किसी जहरीले जानवर के काट लेने पर रुद्राक्ष को घिसकर कटे हुए भाग पर लगाएं, विष का प्रभाव दूर हो जाएगा।

विषैले बरसाती कीड़े, बिच्छू, ततैया आदि के काट लेने पर उसका विष बड़ी+ पीड़ा देता है। ऐसी स्थिति में रुद्राक्ष, कलिहारी, मूली के बीज, अतीस, कडुवी, तुंबी तथा तोरई के बीज समान मात्रा में लेकर कंजी के साथ पीसकर उसका लेप प्रभावित भाग पर लगाएं, विष का प्रभाव तुरत दूर हो जाएगा।

आग से जलने पर रुद्राक्ष और चंदन को पीसकर जले हुए स्थान पर लेप करें, शीतलता मिलेगी और घाव शीघ्र भर जाएगा।

रुद्राक्ष, गेरु, गिलोय, लाल चंदन तथा वंशलोचन का समान मात्रा में चूर्ण बनाकर उसमें गोघृत मिलाकर लेप बना लें। फिर यह लेप नियमित रूप से शरीर पर लगाते रहें, घाव शीघ्र भर जाएंगे और चेहरे पर पडे+ दाग, मुहांसे आदि मिट जाएंगे।

रुद्राक्ष के चूर्ण और मोती तथा मूंगे की भस्म का समान रूप से मिश्रण तैयार कर २ ग्राम की मात्रा का नियमित रूप से सेवन करें, स्नायु की गड़बड़ी से मुक्ति मिलेगी।

रुद्राक्ष के चूर्ण को तुलसी की डंडी के चूर्ण में मिलाकर शहद के साथ नियमित रूप से सुबह खाली पेट सेवन करें, खांसी दूर होगी।

दो ग्राम रुद्राक्ष के चूर्ण को शहद में मिलाकर दो महीने तक भोजन के बाद नियमित रूप से सेवन करें, शरीर की ऊर्जा बनी रहेगी।

मिर्गी और अपस्मार की प्रारंभिक स्थिति में 1 ग्राम रुद्राक्ष के चूर्ण को २ ग्राम सरस्वती के साथ मिलाकर १०-१५ दिनों तक दिन में २ बार सेवन करें, लाभ होगा। इस दौरान मछली, मांस, अंडे, अचार, अमचूर आदि न खाएं।

छह मुखी रुद्राक्ष को जल के साथ घिसकर उसका लेप माथे पर नियमित रूप से लगाएं, मूर्च्छा नहीं आएगी।

रुद्राक्ष चूर्ण की पिट्ठी में नींबू का रस और चंदन का चूर्ण मिलाकर चेहरे पर कुछ दिनों तक नियमित रूप से लेप करें, काले धब्बे दूर हो जाएंगे।

२ ग्राम शुद्ध रुद्राक्ष का चूर्ण और आधा ग्राम मूंगे की भस्म को शहद के साथ मिलाकर जीभ पर लेप करें। यह क्रिया २१ दिनों तक नियमित रूप से करते रहें, जीभ की लड़खड़ाहट, तुतलाहट, हकलाहट, जलन आदि से मुक्ति मिलेगी। ध्यान रहे, यह लेप करने के बाद तीस मिनट तक कुछ भी ग्रहण नहीं करें।

रुद्राक्ष के १०-१५ दानों को तिल के २०० मिली ग्राम तेल में आधे घंटे तक उबालें। फिर नीचे उतारकर ठंडा कर लें और छान लें। अब निमोनियाग्रस्त व्यक्ति की छाती पर इस तेल की मालिश करें, उसे राहत मिलेगी। इसकी मालिश से छाती के दर्द से भी बचाव होता है।

घुटनों तथा शरीर के किसी अन्य जोड़ पर सूजन आ गई हो, तो रुद्राक्ष और सीताफल के पत्तों के चूर्ण समान रूप से मिलाकर सरसों के तेल के साथ मालिष करें, सूजन कम होगी।

स्वर्णमाक्षिक और दो मुखी रुद्राक्ष की भस्मों को बराबर की मात्रा में मिला लें और दूध, दही या मलाई के साथ 1 रत्ती सुबह और 1 रत्ती षाम नियमित रूप से लें, रक्तचाप सामान्य रहेगा।

एक ग्राम रुद्राक्ष तथा एक ग्राम स्वर्ण भस्मों को मिलाकर २१ दिनों तक दिन में दो बार नियमित रूप से गाय के दूध के मट्ठे या मक्खन के साथ सेवन करें, अनिद्रा दूर होगी। इस दौरान उष्ण पदार्थों से परहेज करें। शीघ्र लाभ हेतु दवा के सेवन के साथ-साथ रोज शाम को टहलें।

सुंदरता में निखार की कमी को दूर

करने हेतु

रुद्राक्ष, दालचीनी, लाल चंदन, कुल्थी और कूठ समान भाग में लेकर पानी मिलाकर उबटन बनाएं तथा उसका शरीर पर लेप करें। लेप सूखने के पष्चात स्वच्छ जल से इसे धो दें या स्नान करें। साबुन, षैंपू आदि का प्रयोग नहीं करें। ऐसा नियमित रूप से करते रहें, कुछ ही दिनों में शरीर से दुर्गंधयुक्त पसीने का निकलना बंद हो जाएगा और सौंदर्य में निखार आएगा।

रुद्राक्ष से चार गुना बादाम की गिरी और मसूर की दाल इतने ही गुलाब जल के साथ पीसकर चेहरे पर लेप करें और लेप के सूख जाने पर धो डालें। यह क्रिया नियमित रूप से करते रहें, चेहरा कांतिमय और आभायुक्त हो जाएगा।

रुद्राक्ष, काली मिर्च और वंषलोचन समान मात्रा में लेकर लेप बना लें और उसका नियमित रूप से चेहरे पर लेप करें, कुछ ही दिनों में कील-मुहांसे मिट जाएंगे।

गुलाब जल में आठ मुखी रुद्राक्ष व बादाम की गिरी का चूर्ण मिलाकर चेहरे पर लगाएं और एक घंटे बाद धोएं। यह क्रिया नियमित रूप से करते रहें, सुंदरता में वृद्धि होगी।

गुप्त रोगों से मुक्ति हेतु

रुद्राक्ष की मात्रा का दोगुना हर्रे, रसौत और सिरस की छाल चार गुना की मात्रा में लेकर कूट-पीसकर चूर्ण बनाएं और कपडे+ से छान कर शहद मिलाकर घावों पर लगाएं। यह लेप नियमित रूप से करते रहें, उपदंष शीघ्र दूर होगा।

तीन मुखी रुद्राक्ष को पत्थर पर घिसकर नाभि पर लगाने से धातु रोग से बचाव होता है ।

१४ मुखी रुद्राक्ष का जल के साथ लेप बनाकर प्रतिदिन रात्रि को मस्तक पर लगाएं, कामशक्ति का विकास होगा।

अन्य बीमारियों से मुक्ति हेतु रुद्राक्ष

का उपयोग

रुद्राक्ष को प्याज के रस के साथ घिसकर सिर के गंजे भाग पर लगाएं, गंजापन दूर होगा।

दस ग्राम दूब के रस के साथ एक ग्राम रुद्राक्ष की भस्म सुबह-शाम नियमित रूप से लें, बवासीर से राहत मिलेगी।

रुद्राक्ष को नीम की छाल के साथ घिसकर शरीर के कुष्ठग्रस्त भाग पर लेप करें, कुष्ठ का बढ़ना रुक जाएगा।

रुद्राक्ष के दाने को बकरी के दूध में घिसकर सेवन करें तथा शरीर के प्रभावित भाग की सिकाई करें। यह क्रिया नियमित रूप से करें, गठिये का दर्द कम होगा।

तुलसी के रस के साथ रुद्राक्ष की भस्म दो माह तक नियमित रूप से लें, शरीर में शर्करा की मात्रा सामान्य हो जाएगी और मधुमेह से मुक्ति मिलेगी।

चार मुखी रुद्राक्ष को उबालकर उस जल सेवन करें। यह क्रिया नियमित रूप से करें, पेशाब की जलन से मुक्ति मिलेगी।

चौदह मुखी रुद्राक्ष को घिसकर सफेद चंदन के साथ माथे पर लगाएं, अवसाद से मुक्ति मिलेगी।

रुद्राक्ष के कुछ दानों को पानी से भरे तांबे के लोटे में रात भर छोड़ दें। सुबह उस जल का सेवन करें। यह क्रिया नियमित रूप से करें, थाइरॉइड से रक्षा होगी। शीघ्र लाभ हेतु रुद्राक्ष के १२ दानों की माला गले पर बांधें।

रुद्राक्ष चूर्ण २ ग्राम, सौंफ ४ ग्राम तथा मिश्री ८ ग्राम पानी से भरे तांबे के लोटे में भिगोकर पानी में ही मसल लें और उसका सेवन करें, एसिडिटी दूर होगी।

रुद्राक्ष की भस्म 1 ग्राम, वंश लोचन 1 ग्राम और भृंग श्रृंग की भस्म 1 ग्राम शहद में मिलाकर ६ माह तक सेवन करें, तपेदिक से मुक्ति मिलेगी।

बार-बार हिचकी आती हो, तो एक-एक ग्राम रुद्राक्ष व मोर पंख की भस्म शहद के साथ सेवन करें।

एक भाग रुद्राक्ष तथा चार भाग शुद्ध घी में भुने आंवले के चूर्ण को कांजी के साथ पीसकर नियमित रूप से मस्तक पर लेप करें, नकसीर से छुटकारा मिलेगा।

शूद्र वर्ण का रुद्राक्ष स्त्री की कमर में बांध दें, गर्भ की रक्षा होगी।

पांच मुखी रुद्राक्ष को तुलसी के रस में घिसकर उसमें नींबू का रस मिलाकर चेहरे पर क्रीम की तरह लगाएं। लेप नियमित रूप से करें, कुछ ही दिनों में त्वचा में निखार आएगा और दाग-धब्बे मिट जाएंगे।

एक भाग रुद्राक्ष और चार भाग तिल के फूलों का चूर्ण बनाकर छान लें। फिर शहद के साथ मिलाकर बालों की जड़ों में लगाएं और एक घंटे बाद धो लें। यह क्रिया नियमित रूप से करते रहें, बाल शीघ्र ही बढ़ने लगेंगे।

रुद्राक्ष के काढ़े से रोग निवारण

रुद्राक्ष का काढ़ा भी बनता है जो अनेक रोगों का शमन करता है। यह शरीर को स्वस्थ रखता है और खून साफ करता है। इसके सेवन से चुस्ती और फुर्ती बनी रहती है। रुद्राक्ष का काढ़ा बनाने की विधि और उसके सेवन का विवरण यहां प्रस्तुत है।

रुद्राक्ष, किशमिश, हर्रे और अडू+से की जड़ की छाल समान मात्रा में लेकर बत्तीस गुना जल में मिलाकर खौलाएं और १/८ अंश रह जाने पर उतार लें। फिर २ से ३ ग्राम की मात्रा में शहद मिलाकर प्रातः काल नियमित रूप से सेवन करें, सांस की बीमारी, खांसी और पित्त जन्य रोग दूर होंगे।

रुद्राक्ष, शुष्ठी, कुटकी, गिलोय, दारुहल्दी, पुनर्नवा और नीम की छाल को समान मात्रा में लेकर पीस लें और ऊपर वर्णित विधि के अनुसार जल में मिलाकर काढ़ा बनाएं। फिर उतारकर थोड़ी देर के लिए छोड़ दें। जब थोड़ा गुनगुना रह जाए, तो उसका सेवन करें। यह क्रिया नियमित रूप से करते रहें, श्वास, पीलिया, पेट तथा पसलियों के दर्द से मुक्ति मिलेगी। यह काढ़ा शोथ को भी दूर करता है।

रुद्राक्ष, देवदारु, चित्रक, शुष्ठी, गिलोय, दारुहल्दी, हर्रे और पुनर्नवा का समभाग में ऊपर वर्णित विधि के अनुसार काढ़ा बनाकर सेवन करें, हाथ, पैर, चेहरे, उदर आदि की सूजन दूर होगी।