सोमवार, 29 नवंबर 2010

भाग्य अंक द्वारा शुभ मुहूर्त जानिए

ज्योतिष शास्त्र में किसी विशेष कार्य को करने  के लिए चन्द्र की गति एवं नक्षत्र आदि की गणना  से उचित समय (मुहूर्त ) को निकाला जाता हैं परन्तु अंक ज्योतिष में भाग्यांक के अनुसार दिए गए समय में कोई भी अपना शुभ मुहूर्त का समय जान सकता हैं | यहाँ मैं उसी भाग्यांक मुहूर्त तालिका को पाठको हेतु प्रेषित कर रहा हूँ |

भाग्यांक १) प्रात: ५.२० से ८ तथा दोपहर १.२० से ४ बजे तक 

भाग्यांक २) प्रात: ८ से १०.४० तथा सायं ६.४० से ९.२० बजे तक 

भाग्यांक ३) प्रात: ५.२० से ८ तथा दोपहर १.२० से ४ बजे तक

भाग्यांक ४) प्रात: ८ से १०.४०  तथा सायं ६.४० से ९.२० बजे तक 

भाग्यांक ५) प्रात: ६.४०  से १.२०  तथा सायं ४ से ६.४० बजे तक 

भाग्यांक ६) प्रात: ५.२० से ८ तथा दोपहर १.२० से ४ बजे तक

भाग्यांक ७) प्रात: १०.४० से १.२० तथा सायं ५ से ६.४० बजे तक 

भाग्यांक ८)प्रात: ८ से १०.४० तथा सायं ६.४० से ९.२० बजे तक 

भाग्याक ९) दोपहर १.२० से ४ तथा रात्रि ९.२० से १२ बजे तक 

अंक ज्योतिष के आधार पर दिन के २४ घंटो में प्रत्येक २.४० मिनट के अंतराल पर "समय खंड"के लिए एक खास अंक रखा गया हैं जिसे "समयांक" कहाँ जाता हैं और अगर यह समयांक आपके भाग्यांक के मित्रो में आता हैं तो अवश्य ही वह आपके लिए हितकर होगा | दी  गयी तालिका के समयानुसार आ़प कोई भी शुभ कार्य कर सकते हैं |

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

भाग्य अंक का मंत्र

हमारी जन्म तारीख का योग भाग्यांक कहलाता हैं यह भाग्यांक बहुत सी  जानकारी व्यक्ति विशेष के बारे में देता हैं प्रत्येक भाग्यांक का  एक निश्चित मंत्र होता हैं जिस को प्रतिदिन  जपने से भाग्य प्रबल  होता हैं  यहाँ प्रत्येक भाग्यांकानुसार मंत्र दिया जा रहा हैं आशा हैं पाठकगण इनसे लाभान्वित होंगे |

भाग्यांक १ का मंत्र हैं "ॐ"हैं जिसे १० बार प्रतिदिन जपना चाहिए इस अंक के इष्ट देवता "श्री विष्णु" हैं |

भाग्यांक २ का मंत्र "श्री माँ "हैं जिसे ११ बार जपना चाहिए इस अंक के इष्ट "माँ लक्ष्मी" हैं |                             

भाग्यांक ३ का मंत्र "श्री राम "हैं जिसे २१ बार जपना चाहिए इस अंक के इष्ट "श्री राम " हैं |

भाग्यांक ४ का मंत्र "हरे कृष्ण "हैं जिसे ११ बार जपना चाहिए इस अंक के इष्ट "श्री कृष्ण " हैं | 

भाग्यांक ५ का मंत्र "नमः शिवाय"हैं जिसे २१ बार जपना चाहिए इस अंक के इष्ट "भगवान शंकर" हैं |

भाग्यांक ६ का मंत्र "ॐ नमः शिवाय"हैं जिसे २१ बार जपना चाहिए इस अंक के इष्ट "भगवान शंकर " हैं |

भाग्यांक ७ का मंत्र "श्री गणेशाय नमः"हैं जिसे २१ बार जपना चाहिए इस अंक के इष्ट " श्री गणेश " हैं |

भाग्यांक  ८  का मंत्र "ॐ नमो नारायणाय" हैं जिसे ११ बार जपना चाहिए इस अंक के इष्ट "श्री विष्णु "हैं |

भाग्यांक ९ का मंत्र "ॐ गं गणपतये नमः "हैं जिसे २१ बार जपना चाहिए इस अंक के इष्ट देवता "श्री गणेश "हैं |

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

मांगलिक दोष परिहार

ज्योतिष शास्त्र में अनेक स्थानों पर लिखा गया है कि यदि मंगल ग्रह जन्मकुंडली  मे प्रथम,चतुर्थ,सप्तम,अष्टम और द्वादस भावो  में हो तो व्यक्ति विशेष को मांगलिक दोष होता हैं | दक्षिण भारत में दुसरे भाव स्थित मंगल ग्रह को भी मंगल दोष में रखा गया हैं |

मांगलिक दोष प्राय: लग्न कुंडली से देखा जाता हैं परन्तु शास्त्रों में इसे चन्द्र कुंडली से भी देखने के लिए कहाँ गया हैं | कुंडली में इस प्रकार देखने पर मंगल दोष लगभग आधी कुंडलियो में प्राप्त होता हैं जिससे अधिकाँश मेलापक कुंडलियो  में मांगलिक दोष मिलना स्वाभाविक हो जाता हैं | शास्त्रों में इसी आधार पर मांगलिक दोष होने पर उसके परिहार सम्बन्धी नियम भी  बताये गए हैं जिनसे मंगलदोष समाप्त अथवा प्रभावहीन माना जाता हैं | ऐसे नियम या योग हैं जो मांगलिक दोष को भंग कर देते हैं ऐसे ही कुछ योग निम्न हैं | 

१) यदि मंगल स्वराशी अथवा ऊँच राशी का हो |
२) यदि मंगल गुरु ग्रह की राशी में हो अथवा राहू के साथ हो |
३) केंद्र त्रिकोण में शुभ ग्रह,तीसरे,छठे,ग्यारहवे भावो में पाप ग्रह तथा सप्तमेश सप्तम में हो |
४) सप्तमस्थ मंगल पर गुरु की दृष्टी हो |
५) यदि एक कुंडली में मंगली योग हो तथा दुसरे की कुंडली में उन्ही भावो में पाप ग्रह(राहू,शनि ) हो |
६) यदि अधिक गुण मिलते हो |
७) वर या कन्या की  कुंडली में से एक मंगली हो और दुसरे की कुंडली में ३,६,११,भावो में मंगल,राहू या शनि हो |
८) यदि १२ भाव में मंगल,शुक्र व बुध स्वराशि का हो |
९) यदि मंगल वक्री,नीच या अस्त हो |
१०) ४ तथा ७ भाव में मेष अथवा कर्क का मंगल हो |
११) यदि गुरु बली हो और शुक्र ऊँच अथवा स्वराशी का होकर सप्तम भाव  में हो |
१२) मंगल,सूर्य,राहू या शनि संग स्थित हो |
१३)चन्द्र मंगल् का योग हो(केंद्र व धन स्थान में ) |
१४) मंगल गुरु की युति हो अथवा गुरु मंगल पर दृष्टी ड़ाल रहा हो |
१५) कुंडली में गुरु व शनि अधिक बलवान हो | ............................................

गुरुवार, 11 नवंबर 2010

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

" ज्योतिष एवं दीपावली"

ज्ञान (प्रकाश) और साधना(दीपक) के द्वारा दिवाली  के दिन माँ लक्ष्मी की लक्ष्मी प्राप्ति हेतु पूजा,अर्चना की जाती हैं, आदिकाल से ही चंचला लक्ष्मी को अपने घर परिवार में बुलाने का उपक्रम दिवाली की रात्रि को किया जाता हैं इस विश्वास के साथ की माँ लक्ष्मी प्रसन्न  होकर साधक अथवा जातक को सम्पतिवान कर देंगी |

ज्योतिष के अनुसार सूर्य को राजा एवं चन्द्र को रानी का दर्जा दिया गया हैं अमावस की रात इन दोनों के मिलन की रात होती हैं (इसी प्रकार भगवान राम और सीता का मिलन भी इसी अमावस की रात में हुआ था ) चन्द्रमा मन के अतिरिक्त जनता का तथा सूर्य आत्मा,पद व मान का प्रतिनिधित्व करते हैं, अयोध्या की जनता ने शायद अपने सुर्यवंसी राजा राम के दर्शनों हेतु इसी कारण अमावश (जब सूर्य चन्द्र मिलते हैं ) का दिन चुना होगा | धरती पर अमावस का दिन सूर्य (आत्मा) व चन्द्र (मन) का आत्मरूप होना दर्शाता हैं जो की अध्यात्मिक दृष्टी से एक दुर्लभ संयोग हैं | यहाँ ये भी ध्यान दे की चन्द्र (उच्च) का वृष राशी में तृतीय अंश (सूर्य के कृतिका नक्षत्र में) में होना ही उसे उच्चता प्रदान करता हैं जो इस बात का घोतक हैं की बिना आत्मा के मन नहीं हो सकता इसलिए मन और आत्मा के भेद बताने की रात्रि हैं "दीपावली"

जहाँ  प्रकाश होता हैं वहां अन्धकार नहीं रह सकता हैं और जहाँ अन्धकार  नहीं होता वहां धन समृद्दी को आना ही पड़ता हैं वैसे भी वर्षा ऋतू के बाद कार्तिक मास ठण्ड की अधिकता दर्शाने लगता हैं जिससे दीपक  की गर्मी व आरोग्यता का आगमन जन साधारण हेतु लाभदायक हो जाता हैं |

दीप अथवा दिया (मंगल) तेल (शनि)के मिलने से प्रकाश (बिजली) जन्म लेती हैं जिसके बिना ये संसार चलायमान नहीं रह सकता | पीली लौ (गुरु) तथा सफ़ेद प्रकाश (शुक्र) व इनके योगो से हरा (बुध) व धुंआ राहू केतु का प्रतीक बनते हैं जो की दिवाली की रात्रि सम्पूर्ण नवग्रह व ब्रह्माण्ड की उपयोगिता ज्योतिष शास्त्र में सम्पूर्ण करते दिखाई देते हैं |  

बुधवार, 22 सितंबर 2010

कॉमनवेल्थ खेल 2

कॉमनवेल्थ खेल का ज्योतिषीय आंकलन -भारत की कुंडली कर्क राशी व वृष लग्न की हैं राशी द्वारा देखने पर कुंडली के तीसरे भाव तथा लग्नानुसार देखने पर पंचम भाव में कन्या राशी आती हैं | चन्द्र कुंडली को प्रधान मानते हुए यदि देखे तो तीसरा भाव खेल का पता बताता हैं जहाँ वर्तमान समय (खेलो के दौरान ) सूर्य,बुध व शनि की युति होगी | चौथे भाव में शुक्र, मंगल, छठे भाव में राहू, नवे में गुरु, १२वे में केतु तथा लग्न में चंद्रमा स्वराशी का होगा यहाँ एक संयोग भी मिल रहा हैं जन्मकालीन चन्द्र राशी व नक्षत्र दोनों ही सामान हैं (कर्क राशी व पुष्य नक्षत्र)

खेलो के दौरान चन्द्र धनु राशी तक भ्रमण करेगा तथा शुक्र व गुरु वक्री रहेंगे | जन्मस्थ चन्द्र से यदि गोचरस्थ ग्रहों का भ्रमण देखे तो सूर्य तीसरे भाव से "धनलाभ" चन्द्र लग्न से "भोगो का उदय" मंगल चतुर्थ "क्लेश" बुध तृतीय "शत्रुभय" गुरु नवम "धनलाभ" शुक्र चतुर्थ "मित्रो से लाभ" शनि तृतीय "स्थान लाभ" तथा राहू केतु ६,१२ से "सुख" " धन लाभ" व "शत्रु पीड़ा" दर्शा रहे हैं इस प्रकार ६ ग्रहों का भ्रमण भारत हेतु अति शुभ प्रतीत हो रहा हैं | शनि का तीसरे भाव में गुरु से द्रस्ट होकर बैठना खेल भाव को बलि बना रहा हैं वही भारत का लग्नेश शुक्र मंगल संग चतुर्थ भाव में स्वराशी का बैठकर (चन्द्र से) तथा लग्न से छठे बैठकर उर्जा वान महसूस कर रहा हैं ,वही दोनों समय की कुंडली मिलान करने पर २८ गुण मिल रहे हैं जो की भविष्य में मिलने वाले लाभ को ही दर्शा रहे हैं |

भारत का प्रदर्शन -पिछले २००६ के खेलो में भारत ने कुल ५० पदक जीते थे, उस समय भारत पर शुक्र महादशा का प्रभाव था जो की भारत का लग्नेश हैं | अब वर्तमान समय भारत पर सूर्य महादशा चल रही हैं सूर्य सुखेश होकर तीसरे भाव में ही स्थित हैं जिससे इन दोनों भावो के फल मिलने निश्चित हैं वही चन्द्र गोचर से भी सूर्य शुभ भाव से ही निकलेगा, लग्न से छठे मंगल का होना हमारी स्थिति अच्छी ही बता रहा हैं हमारे अनुमान से भारत लगभग ६४ पदक जीत सकता हैं |

अंकशास्त्र द्वारा अनुमान लगाने पर ज्ञात होता हैं की इन खेलो पर ३ व ७ अंको अर्थात गुरु व केतु का प्रभाव रहेगा | ३ का अंक गुरु जो की वर्तमान समय में मीन राशी में भारत की लग्न कुंडली से एकादश भाव तथा चन्द्र से नवम भाव से गुजरकर तीसरे भाव पर ही नज़र ड़ाल रहे हैं |

यह खेल २०१० कुल अंक ३ तथा १२ दिनों तक (३)दिल्ली का पोस्टल कोड लोधी रोड (३) इंडिया का अंक (३) राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का भाग्यांक (३)तथा उनका १२ वि राष्ट्रपति होना (३) की अधिकता ही दर्शा रहे हैं |
 अंक ७ संचार व खेलो का अंक हैं इन खेलो का कुल अंक ७ जवाहरलाल नेहरु स्टेडियम का अंक ७ तथा लोधी रोड का अंक  भी ७ ही आता हैं

इस प्रकार यह कहा जा सकता हैं की यह खेल न सिर्फ जबरदस्त कामयाब होंगे बल्कि भारत को इनसे लाभ भी मिलेगा कही कही कमियां उजागर होंगी परन्तु इतने बड़े भव्य आयोजन में यह गलतिया तो होती ही हैं |

यह लेख आ़प का भविष्य ज्योतिषीय पत्रिका में अक्तूबर २०१० माह के अंक में छपा हैं |

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

कॉमनवेल्थ खेल

आगामी ३ अक्तूबर से १४ अक्तूबर तक भारत की राजधानी दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलो का आयोजन हो रहा हैं जिस कारण सम्पूर्ण विश्व की नज़र भारत पर लगी हुई हैं तथा भारत के खेल प्रेमी भी इस आयोजन का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं |पिछले कुछ वर्षो से इन खेलो की तैयारिया जबदस्त तरीके से चल रही हैं |जिस कारण नए नए दावे व घोटाले समय समय पर आयोजन कमेटी पर लगते रहे हैं | क्या ऐसे में भारत इन खेलो का सफल आयोजन कर अपनी साख बचा पायेगा ?क्या भविष्य में भारत को किसी और खेलो का आयोजन करने के लिए प्रस्ताव मिल पायेगा ? ऐसे ही कुछ सवालों का जवाब आइये ज्योतिषीय दृष्टी व भारतवर्ष की कुंडली से जानने का प्रयास करते हैं|

खेलो की प्रष्ठभूमि:-१९७८ में इन खेलो का नामकरण हुआ पहले इन्हें ब्रिटिश एम्पायर खेलो के नाम से जाना जाता था | इन खेलो का मुख्यालय "लन्दन" में हैं | छह देश ऐसे हैं जिन्होंने अब तक सभी कॉमन वेल्थ खेलो में हिस्सा लिया हैं | यह १९वे कॉमनवेल्थ खेल हैं | इस १९वे कॉमनवेल्थ खेल में १७ खेल ७३ देश तथा २८५ स्पर्धाये होगी | इन खेलो का उदघाटन व समापन जवाहर लाल नेहरु स्टेडियम में होगा| पिछले खेल मेलबोर्न (ओस्ट्रेलिया ) में हुए थे जिसमे भारत  ने कुल ५० पदक जीते थे| जबकि अगले खेल ग्लासगो (स्कोटलेण्ड) में होंगे यह खेल अन्य खेलो की तरह चार वर्ष में आयोजित किये जाते हैं |
इन खेलो का शुभंकर "शेरा" हैं तथा यह कौंग्रेस सरकार में तीसरे बड़े खेल हैं जो आयोजित हो रहे हैं |.......................शेष कल       

सोमवार, 6 सितंबर 2010

विवाह में गोधूलि मुहूर्त

विवाह में गोधूलि मुहूर्त का अपना महत्व है। धार्मिक मान्यताओं में यह पूजनीय है। ज्योतिष के अनुसार इसे शुक्र का प्रतीक भी माना गया है। जो दाम्पत्य सुख का कारक ग्रह है। संध्यासमय चारा चरकर लौटती गायों के खुरों से उड़ती धूल प्रदूषित वायु मंडल को स्वच्छ करती है इसे गोधूल कहते हैं। इस समय की सायंकाल वेला को गोधूलिकाल कहते हैं। एवं इसे गोरज भी कहते हैं। ज्योतिषशास्त्र में गोरज या गोधूलिक लग्न को परिभाषित करते हुए कहा है।
÷अर्धास्तात्यपरपूर्षतोऽर्धघरितं गोधूलिकम्'
सूर्यास्त के पूर्व १५ पल (६ मिनट) से सूर्यास्त होने के बाद ३० पल (१२ मिनट) कुल २४ मिनट का गोधूलिक काल है।
÷मुहूर्तघंटिकादयम्' दो घंटों अर्थात ४८ मिनट का मुहूर्त होता है। गोधूलिक मुहूर्त भी ४८ मिनट का ही होता है अर्थात २४ मिनट सूर्यास्त के पूर्व तथा २४ मिनट सूर्यास्त के बाद कुल ४८ मिनट का गोधूलिक मुहूर्त माना जाता है।
गोधूलिक समय के विषय में मत-मतांतर प्रचलित है। इसके अतिरिक्त कुछ वार विशेष में भी गोधूलिक समय के संबंध में विशेष नियम है।
अस्तं याते गुरु दिवसे सौर सार्के, लग्नान्मृतौ
रिपुयवने लग्ने चेन्दौ।
कन्या नाशस्तनुमद मृत्युस्थे भौमे, के दुर्लाभे धन सहजे चन्द्रे सौख्यम॥
गुरुवार में सूर्यास्त होने पर और शनिवार में सूर्य रहते गोधूलि शुभ है। लग्न से अष्टम, षष्ठम या लग्न में ही चंद्रमा हो तो कन्या का नाश होता है।
लग्न अथक सप्तम या अष्टम में मंगल हो तो वर का नाश होता है। २रे, ३रे अथवा ११वें चंद्रमा हो तो सुखदायक होता है।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

वार्तालाप

सभी मित्रो को नमस्कार,
पिछले कुछ दिनों से आ़प सभी से वार्तालाप नहीं हो पा रहा था इसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ हमारी पिछली कुछ पोस्टो को आ़प सभी ने सराहा इसके लिए आ़प सभी का शुक्रिया,आ़प सभी ने हमसे यह भी शिकायत की हैं हम अपने इस चिट्ठे में बहुत ज्यादा ज्योतिषीय ज्ञान व शब्दों का प्रयोग करते हैं और ऐसा हो भी सकता हैं हम यह आ़प सभी को बतादे की ज़्यादातर चिट्ठे हमारे वो होते हैं जो हमने किसी न किसी ज्योतिषीय पत्रिका में छपने हेतु भेजे हुए होते हैं जिनमे इस तरह की भाषा व शब्दों का प्रयोग करने ही पड़ता हैं परन्तु आ़प सभी के इस सुझाव पर हम अवश्य गौर करेंगे |

हमारे एक सहयोगी ने हमे यह सुझाव भेजा हैं जिन लोगो के पास जन्मपत्रिका नहीं होती हैं उनके लिए क्या ज्योतिष किसी प्रकार से मददगार हो सकता हैं जैसे किसी व्यक्ति को कोई परेशानी हो और उसके पास जन्मपत्री आदि ना हो तो क्या ज्योतिष इसमें उसकी कुछ मदद कर सकता हैं इस सन्दर्भ में हम इतना ही कहेंगे की ज्योतिष अवश्य ही उसकी मदद कर सकता बसर्ते वह अपनी समस्या सही तरह से बता सकता हो तथा अन्य सही जानकारी भी पूछने पर बता सकता हो |

आज ऐसा ही एक सवाल हम से पुछा गया हैं की शांतनु नामक एक बच्चा हैं जो की आठवी कक्षा में हैं घर पर किसी तरह की कोई भी परेशानी नहीं हैं इसके बावजूद हर वक़्त डरा डरा सा रहता हैं जिससे उसकी पढाई भी ठीक से नहीं हो पा रही हैं | घर वाले ज्योतिष पर यकीन नहीं करते हैं क्या इस समस्या का कोई ज्योतिषीय हल बताया जा सकता हैं |
यह समस्या वैसे तो कई कारणों से हो सकती हैं परन्तु ज्योतिषीय आधार पर हम यह कह सकते हैं जन्म के समय जन्मकालीन चन्द्रमा पर शनि या राहू ग्रह की दृष्टी या युति होती हैं तो व्यक्ति विशेष पर एक अनजाना सा भय बना रहता हैं  ऐसा ही इस बच्चे के साथ भी हो सकता हैं इस या ऐसी समस्या होने पर यह उपाय किया जा सकता है |
१२) चन्द्रमा को बल प्रदान किया जाए (चंद्रकांत मणि ) रत्न धारण करने चाहिए |
२) ४३ दिनों तक नारियल,बादाम जल प्रवाह करे |
३) काले,नीले वस्त्र न पहने |
४) शिव चालीसा का पाठ भी कर सकते हैं |



गुरुवार, 12 अगस्त 2010

चार ग्रहों की युति

कल दिनांक १३ अगस्त २०१० को शाम के वक़्त आकाश में चार ग्रहों की युति कन्या राशी में हो जाएगी, ज्योतिषीय व खगोलीय दृष्टी से यह युति बहुत ज्यादा महत्व रखती हैं | जब भी किसी राशी में दो से ज्यादा ग्रहों की युति होती हैं उस राशी में स्वाभाविक तौर से ज्यादा हलचल होने लगती हैं तथा धरती पर उससे सम्बंधित क्षेत्र में कोई न कोई दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा अवश्य जन्म लेती हैं |

इस राशी में जन्मा जातक (क्यूंकि चन्द्रमा भी कन्या राशी में ही होगा ) कई मायनों में विलक्षण व विशेष होगा |
इस बार यह युति कन्या राशी में हो रही हैं तथा शनि,मंगल,शुक्र व चन्द्र ग्रहों का इस राशी में आना कई ज्योतिषीय योग को जन्म दे रहा हैं |नि चन्द्र युति विष योग,मंगल चन्द्र युति लक्ष्मी योग,शुक्र चन्द्र युति आकस्मिक धन प्राप्ति  योग     (लौटरी योग )बना रहा हैं इस दुर्लभ संयोग में जन्मे जातक के विषय में कहा जाए तो यह जातक प्रवज्या योग में जन्मा भी माना जाएगा जिसे संन्यास योग भी कहते हैं विष योग होने से वह विलक्षण सोच वाला,धनवान (लक्ष्मी व आकस्मिक धन प्राप्ति योग)खून की बीमारी से ग्रसित (मंगल शनि योग)प्रेम विवाह करने वाला तथा अत्यधिक भोगी प्रकृति का भी हो सकता हैं (मंगल शुक्र युति) यहाँ यह भी ध्यान रखना होगा इन सभी ग्रहों पर गुरु ग्रह की दृष्टी भी होगी जो की शुभ फलो में बढोतरी ही करेगी परन्तु जन्म लग्न का भी प्रभाव देखा जायेगा साथ ही साथ यह भी की यह युति किस भाव में बन रही हैं |

 इन चार ग्रहों की युति के बनने से धरती पर विशेषकर कन्या राशी क्षेत्र व नाम वाले देशो व इलाको में भूकंप,बाढ़, भू -स्खलन तथा अन्य प्राकृतिक आपदाए आ सकती हैं जिन देशो में ज्यादा गड़बड़ी हो सकती हैं उनमे प व ट अक्षर हो सकते हैं जैसे पाकिस्तान,तुर्की,ताईवान,पनामा आदि |

भारत में देखे तो यह युति भारत की लग्न कुंडली के पांचवे भाव में बन रही हैं जो की छाती व पेट के कुछ हिस्से दर्शाती हैं जिससे मध्य भारत व उड़ीसा का इलाका प्रभावित हो सकता हैं वैसे नाम के आधार पर हम पंजाब प्रान्त में भी उठा पटक देख  सकते हैं| 

यह सारा विश्लेषण मेरे तुच्छ ज्योतिषीय ज्ञान पर आधारित हैं जिसमे त्रुटिया हो सकती हैं जिसके लिए मैं आ़प सभी से क्षमा प्राथी रहूँगा |   

सोमवार, 9 अगस्त 2010

"लाल किताब"

"लाल किताब' 'भृगुसंहिता' के समान ही उर्दू भाषा में लिखी गई एक ज्योतिषीय रचना है। इसका मूल लेखक कौन हैं? यह भी आज विवाद का विषय है, फिर भी कहा जाता है कि फरवाला गांव (पंजाब) के निवासी पंडित रूपचंद जोशी' इसके मूल लेखक हैं।

सर्वप्रथम १९३९ में लाल किताब के सिद्धांतों को उन्होंने एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया, जिसमें लेखक एवं प्रकाशक के स्थान पर पं. गिरधारी लाल शर्मा का नाम छपा था। पं. रूपचंद्र जोशी सेना में काम करते थे, इसलिए उर्दू में किताब लिखने से उन्हें अंग्रेज सरकार से उत्पीड़न की आशंका थी। उन्होंने अपने किसी रिश्तेदार के नाम से इस पुस्तक का प्रकाशन कराया। पं. रूपचंद्र जोशी ने लाल किताब कैसे लिखी? इस बारे में कहा जाता है कि सेना में नौकरी के दौरान जब वे हिमाचल प्रदेश में तैनात थे, तो उनकी मुलाकात एक ऐसे सैनिक से हुई जिसके खानदान में पीढ़ी दर पीढ़ी ज्योतिष का कार्य होता था। उसने एक अंग्रेजी अफसर को अपने पुश्तैनी ग्रंथ के आधार पर कुछ महत्वपूर्ण घटनाएं बतायीं। इनसे प्रभावित होकर अंग्रेज अफसर ने उस जवान से उसके द्वारा बताई गई बातों के सिद्धांतों वाली पुस्तक लाने को कहा तथा उस जवान से उस पुस्तक के सिद्धांतों को नोट करवा लिया। जब यह रजिस्टर अंग्रेज अफसर को मिला तो रूपचंद्रजी को उसे पढ़ने के लिए बुलवाया गया। उन्होंने उन सिद्धांतों को पढ़कर पृथक-पृथक रजिस्टरों में नकल कर लिया। बाद में रूपचंद्र जोशी ने इस पुस्तक के सिद्धांत एवं रहस्य को पूर्ण रूप से समझकर प्रथम बार १९३९ ई. में एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। अमृतसर' के कलकत्ता फोटो हाउस द्वारा प्रकाशित लाल किताब के प्रकाशक के स्थान पर शर्मा गिरधारी लाल लिखा था, यही नाम लेखक के लिये प्रयुक्त किया गया था।
लाल किताब के संबंध में कितनी ही किंवदन्तियां हैं। लंकापति रावण ने सूर्य देवता के सारथी एवं गरुड़ के छोटे भाई 'अरुण' (अपने ललाट पर अर्ध चंद्राकार कमल धारण किये हुए) से अत्यंत श्रद्धा-भक्ति के साथ यह लाल किताब का ज्ञान प्राप्त किया था। रावण की तिलिस्मी दुनिया का अंत होने के पश्चात् यह ग्रंथ किसी प्रकार अरब देश में 'AAD' नामक स्थान पर पहुंच गया जहां इसका उर्दू या अरबी भाषा में अनुवाद हुआ।

दूसरी किंवदंती के अनुसार सदियों पहले भारत से अरब देश गए, एक महान ज्योतिर्विद ने वहां की संस्कृति और परिवेश के अनुरूप इसकी रचना की थी जबकि सच्चाई के लिये विविध मत् प्रचलित है। फिर भी 'लाल किताब' में गुह्य व गहन-टोटका -ज्योतिष एवं उपचार विधि-विधान की अतिन्द्रिय शक्ति छिपी हुई है, जो जातक या मानव मन की गहराई में झांककर विभिन्न गोपनीय रहस्यों को भविष्य कथन के रूप में प्रकट करती है। अतः भविष्य के गर्भ में छिपे रहस्यों को इस विधा द्वारा सहजता से जाना जा सकता है।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

कैरियर का चुनाव(4)

जैमिनी ज्योतिष पद्धति :

जैमिनी पद्धति के अनुसार व्यवसाय चयन हेतु कारकांश महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। (कारकांश आत्म कारक का नवमांश है) यदि कारकांश या उससे दसवां किसी ग्रह से युक्त न हो तो कारकांश से दशमेश की नवमांश में स्थिति से व्यवसाय ज्ञात किया जाता है।

1) कारकांश में सूर्य राजकीय सेवा देता है और राजनैतिक नेतृत्व देता है।
2) पूर्ण चंद्र व शुक्र कारकांश में लेखक व उपदेशक बनाता है।
3) कारकांश में बुध व्यापारी तथा कलाकार का योग प्रदान करता है।
4) बृहस्पति कारकांश में जातक को धार्मिक विषयों का गूढ़ विद्वान व दार्शनिक बनाता है।
5) कारकांश में शुक्र जातक को सरकारी अधिकारी शासक व लेखक बनाता है।
6) कारकांश में शनि जातक को विख्यात व्यापारी बनाता है।
7) कारकांश यदि राहु हो तो मशीन निर्माण कार्य, ठगी का कार्य करने वाला जातक को बना देता है।
8) कारकांश का केतु से संबंध हो तो जातक नीच कर्म तथा धोखाधड़ी से आजीविका कमाता है।
9) कारकांश यदि गुलिक की राशि हो और चंद्र से दृष्ट हो तो व्यक्ति अपने त्यागपूर्ण व्यवहार से और धार्मिक कार्यों से जीविका अर्जित करेगा।
10) कारकांश में यदि केतु हो और शुक्र से दृष्ट हो तो धार्मिक कार्यों से आजीविका अर्जित करेगा।
11) कारकांश यदि सूर्य व शुक्र द्वारा दृष्ट हो तो जातक राजा का कर्मचारी बनता है।
12) कारकांश से तीसरे और छठे में क्रूर ग्रह हों तो जातक खेती व बागवानी का कार्य करता है।
13) कारकांश में चंद्र हो और शुक्र से दृष्ट हो तो वह रसायन विज्ञान द्वारा आजीविका अर्जित करता है।
14) कारकांश में चंद्र यदि बुध द्वारा दृष्ट हो तो जातक डॉक्टर होता है।
15) कारकांश में शनि हो या उससे चौथे में हो तो जातक अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण होता है।
16) कारकांश से चौथे में सूर्य या मंगल शस्त्रों से जीविका प्रदान करता है।
17) कारकांश से पांचवें या लग्न में चंद्र व गुरु जातक को लेखनी द्वारा जीविका अर्जन प्रदान करते हैं।
18) कारकांश में पांचवें व सातवें में गुरु हो तो व्यक्ति सरकारी उच्च अधिकारी होता है।
19) कारकांश में यदि शनि हो तो जातक पैतृक व्यवसाय करता है।
20) कारकांश लग्न या उससे पंचम स्थान में अकेला केतु हो तो मनुष्य ज्योतिषी गणितज्ञ, कंप्यूटर विशेषज्ञ होता है।
21) कारकांश लग्न से पंचम में राहु हो तो जातक एक अच्छा मैकेनिक होता है।
22)यदि नवांश में राहु आत्मकारक के साथ हो तो जातक चोरी, डकैती से आजीविका चलाता है।
23) कारकांश लग्न से शनि चतुर्थ या पंचम हो तो जातक निशानेबाज होता है और यही आजीविका का साधन भी हो सकता है।
24) कारकांश से पंचम में शुक्र हो तो जातक को कविता करने का शौक होता है।
25) कारकांश से पंचम में यदि गुरु हो तो जातक वेदों और उपनिषेदों का जानकार और विद्वान होता है तथा यही जातक की आजीविका का साधन भी होता है।
26) कारकांश से पंचम में यदि सूर्य हो तो जातक दार्शनिक तथा संगीतज्ञ होता है।

जन्मकुंडली में नौकरी का योग

 जातक की कुंडली में निम्नानुसार योग होने की स्थिति में वह नौकरी करेगा-

1) यदि षष्ठम भाव, सप्तम भाव से ज्यादा बली हो।
2) लग्न, सप्तम भाव, चंद्र लग्न एवं धन के कारक गुरु का शुभ ग्रह बुध एवं शुक्र से संबंध।
3) लग्न, लग्नेश, नवम भाव, नवमेश, दशम भाव एवं दशमेश, एकादश भाव या एकादशेश किसी भी जल तत्व ग्रह से प्रभावित न हो।
4) केंद्र या त्रिकोण में कोई भी शुभ ग्रह न हो।
5) यदि जातक की आयु २० से ४० वर्ष के दौरान निर्बल योगकारक ग्रह तृतीयेश, षष्ठेश या एकादशेश की दशा से प्रभावित हो।

जन्मकुंडली में व्यवसाय का योग :

जातक की कुंडली में निम्नानुसार योग होने की स्थिति में वह व्यवसायी होगा-

1) यदि सप्तम भाव षष्ठ भाव से ज्यादा बली हो।
2) नवम और दशम तथा द्वितीय और एकादश भावों के बीच आपसी संबंध हो।
3) यदि जातक का जन्म दिन में हो तो चंद्र लग्न या दशम भाव पर योगकारी ग्रह या उच्च या स्वराशिस्थ शनि की दृष्टि हो या उससे संबंध हो।
4) जन्मकुंडली में अधिकांश ग्रह अग्नि या वायु तत्व राशियों में विद्यमान हों तो जातक के व्यवसायी होने की संभावना अत्यधिक बली हो जाती है।

जन्म कुंडली में व्यवसाय के स्तर का योग :
वर्तमान समय में व्यवसाय या व्यापार का वैश्वीकरण हो जाने के कारण देश के स्थान पर दिशा पर ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए। नवांशेश यदि बली हो तो रोजगार का स्तर काफी अच्छा होता है और जातक को रोजगार में मान सम्मान प्राप्त होता है और यदि नवांशेश निर्बल हो तो रोजगार से मामूली आय होती है। अतः राशि बली होने से आमदनी का स्तर एवं रोजगार का स्तर सही ढंग से जाना जा सकता है।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

कैरियर का चुनाव(3)

डॉक्टर चिकित्सक बनने के योग : 

कुंडली में यदि - दशम भाव /दशमेश पर अष्टमेश की दृष्टि/ युति प्रभाव और सूर्य शनि का दृष्टि व युति संबंध हो।

एकादश भाव/ एकादशेश पर सूर्य, शनि व अष्टमेश का प्रभाव हो।

लग्न में अष्टमेश,सूर्य व शनि की युति हो।

षष्ठेश का दशम, एकादश भाव या इनके भावेश को प्रभावित करना भी डॉक्टरी योग बनाता है।

दशम भाव में मंगल शनि की युति सर्जन बनाती है।

षष्ठेश का संबंध लग्न व दशम भाव से होना भी डॉक्टरी योग बनाता है।

मंगल, शुक्र व शनि की राशियों में चंद्र-शनि, मंगल-शनि, बुध-शनि इन दो ग्रहों की युति या सूर्य चंद्र के साथ अलग-अलग तीन ग्रहों की युति जातक को चिकित्सक बनाती है।

इंजीनियर बनने के योग :

कुंडली में मंगल व शनि का बलवान व शुभ होना इंजीनियर बनने हेतु अति आवश्यक है। क्योंकि शनि लोहे व तकनीकी का कारक है तथा मंगल ऊर्जा, विद्युत आदि का कारक है।

मंगल व शनि की राशियों का लग्न होना तथा इन दोनों ग्रहों का शुभ स्थिति में होना।

यदि मंगल व शनि पंचम भाव में होकर कर्मभाव/कर्मेश से संबंध स्थापित करें।

दशम भाव/ दशमेश पर मंगल से दृष्टि संबंध तथा सप्तम सप्तमेश से संबंध होना।

ज्योतिष में शनि, मंगल, राहु व केतु को तकनीकी व खोजीग्रह माना गया है। यदि इनमें से किसी का संबंध दशम भाव/दशमेश से हो जाए तो जातक इंजीनियर बन सकता है।

बलवान शुक्र बुध से युति कर दशम भाव/दशमेश को प्रभावित करें।

कुंडली में राहु का पंचम भाव/ पंचमेश से दृष्टि युति संबंध भी जातक को इंजीनियरिंग हेतु प्रेरित करता है।

वकालत के योग :

कानून की शिक्षा हेतु गुरु, शनि, शुक्र व बुध ग्रह अत्यधिक प्रभावी होना आवश्यक होता है। जहां गुरु व शुक्र कानून शास्त्र से संबंधित है। बुध व शनि वाणी व बहस करने हेतु जरूरी हैं। इनके बिना वकालत नहीं की जा सकती।

यदि दशम भाव में शनि उच्च का हो, दशम भाव पर दृष्टि डाले तो वकालत का योग बनता है।

गुरु उच्च/स्वक्षेत्री होकर दशम भाव/दशमेश से दृष्टि युति संबंध बनाए।

नवमेश दशमेश का परस्पर संबंध हो।

कुंडली में बुध, गुरु, शनि का उच्च व बली होना। दशमेश का नवम/षष्ठ भाव से संबंध होना।

तुला राशि का संबंध दशम भाव/लग्न से होना (तुला राशि को न्याय का प्रतीक माना जाता है।)

गुरु का बली होना तथा धनु/मीन राशि का शुभ ग्रहों से दृष्ट होना।

दशम भाव पर मंगल, गुरु व केतु का प्रभाव होना भी वकालत की और प्रेरित करता है।

तुला, धनु व मीन राशियों का लग्न या दशम भाव से संबंध भी जातक को वकालत की ओर प्रेरित करता है।

अध्यापक बनने के योग :

कुंडली में गुरु व बुध का शुभ, उच्च व बली होना।

लग्नेश की पंचमेश से युति होना।

दशम भाव में उच्च का गुरु होना।

तीसरे/दसवें भाव में गुरु का होना। बुधादित्य योग होना

सप्तमेश केंद्र में बैठकर दशमेश से दृष्ट हो तथा इन दोनों में से किसी भाव में गुरु हो। गुरु सूर्य का उच्च होना, युतिगत होना तथा एक दूसरे से सप्तम होना।

अभिनय कला के योग :

पंचम में शुक्र हो पंचमेश शुक्र से संबंधित हो।

पंचम शुक्र, ग्यारहवें राहु तथा लग्नेश पंचम में हो।

पंचम शुक्र, भाग्येश भाग्य स्थान में लग्नेश धनेश का योग हो।

लग्नेश लग्न में शुक्र मंगल व्यय भाव में हो।

मंगल, शुक्र, बुध का किसी प्रकार का संयोग हो। राहु चंद्र संग, शुक्र लग्नेश संग हो।
व्यय भाव में शुक्र चंद्र बुध से युत व दृष्ट हो।

छठे भाव में सूर्य, शुक्र, राहु हो तथा पंचम भाव का किसी भी प्रकार से इन ग्रहों का संबंध हो।

कैरियर का चुनाव(2)

शिक्षा का निर्णय :

विद्या का निर्णय साधारणतः चौथे घर, उसके स्वामी और विद्या कारक बृहस्पति से होता है। पांचवा घर बुद्धिमत्ता का प्रतीक है। चौथे में अशुभ ग्रह शिक्षा में रुकावट उत्पन्न करते हैं। शुभ स्थिति में बृहस्पति तथा बुध मनुष्यों तथा पदार्थों का अच्छा ज्ञान प्रदान करते हैं। बृहस्पति चौथे या दशम में उच्च कानूनी शिक्षा का द्योतक है। यदि दूसरे घर का स्वामी सुस्थित हो, तो व्यक्ति वक्ता या प्राध्यापक बनता है। केंद्र में बुध या दूसरे में शुक्र होने पर ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान होता है।
दूसरे में मंगल तथा केंद्र में बुध मनुष्य को गणितज्ञ या प्राविधिक योग्यता प्रदान करता है। सूर्य या मंगल दूसरे के स्वामी के नाते शुक्र या बृहस्पति के साथ तर्क शक्ति और मन संबंधी शास्त्रों का ज्ञान प्रदान करते हैं। बृहस्पति तथा शुक्र जब केंद्रों में हों, बुध द्वारा दृष्ट हों तो दार्शनिक अभिरुचि का निर्देशन करते हैं।

केंद्रों में शुक्र और बृहस्पति होने से उर्वर प्रतिभा का ज्ञान होता है। चतुर्थ के स्वामी और बृहस्पति तीसरे, छठे तथा ११वें के स्वामी ग्रहों के प्रभाव से मुक्त होने चाहिए। फिर शिक्षा-क्रम नहीं टूटता।

सफलता प्राप्ति के प्रमुख योग :

यदि दूसरे का स्वामी ९वें में हो तो पैतृक संपत्ति प्राप्त होती है। शुभ ग्रहों से वसीयत का, लाभप्रद ग्रहों से, विशेषकर ७वें शुक्र से विवाह द्वारा धनलाभ का ज्ञान प्राप्त होता है। अपनी जन्मपत्री से समानता रखने वाले लोगों के साथ संबंध होने से लोग पद तथा समृद्धि संपन्नता में और आगे बढ़ जाते हैं।

कामर्स की शिक्षा और व्यवसाय :

इस विषय की जानकारी केवल बुध के चतुर्थ और पंचम भाव से संबंधित भाव से नहीं होती बल्कि अन्य ग्रहों का सहयोग भी आवश्यक है। कामर्स पढ़ने वालों की कुंडली में मंगल ग्रह का भी सहयोग है। मंगल का चतुर्थ, पंचम भाव से संबंध है। मंगल आंकड़ों का आकलन विषय का सूक्ष्म अध्ययन सिखाता है। बृहस्पति धन का कारक है, यह संपूर्ण विषय धन की गणना से संबंधित है, इसलिए बृहस्पति का भी सहयोग चतुर्थ, पंचम भाव से हो सकता है। इसी प्रकार शनि ग्रह कानून या वकालत सिखाता है। इस विषय में कानून का अध्ययन भी किया जाता है। एक विषय सैक्रटेरियल प्रेक्टिस तथा व्यापार कानून का है, जिसमें शुक्र का महत्व हो सकता है।
इस प्रकार बुध, बृहस्पति, मंगल, शनि, शुक्र का महत्व इस विषय के अध्ययन के लिए है। इनमें से जो ग्रह बलवान होगा उस विषय में अधिक रुचि तथा उन्नति होगी।

चार्टर्ड एकाउंटेंट अर्थात् सी.ए. कंपनी सेक्रेटरी अर्थात् सी. एस. करके इस विषय में आगे बढ़ सकते हैं ये कामर्स की खास व्यवस्था हैं।

कामर्स के लिए, बुध, बृहस्पति, मंगल, शनि, शुक्र इनमें से किन्हीं दो ग्रहों का चतुर्थ, पंचम भाव-भावेश से संबंध होना आवश्यक है।

चार्टर्ड एकाउंटेंट (सी.ए.) के लिए बृहस्पति, मंगल, बुध इन तीन ग्रहों का संबंध चतुर्थ-पंचम भाव-भावेश से होना आवश्यक है।

कंपनी सेक्रेटेरियल (सी.एस.) के लिए बृहस्पति, मंगल, बुध-शनि ग्रह का संबंध पंचम भाव से होना आवश्यक है। उपरोक्त योग में मंगल की जगह केतु हो सकता है।

किसी भी जातक की जन्मकुंडली में लग्न, लग्नेश, पंचम भाव, पंचमेश, नवम भाव नवमेश का अच्छे भावों व शुभ ग्रहों से युत होना जातक को आदर्श स्थिति प्रदान करते हैं। परंतु जहां तक कैरियर का संबंध है उसके लिए जातक का दशम भाव व दशमेश का अध्ययन अति आवश्यक होता है। दशम भाव कर्म भाव भी कहलाता है जिससे जातक के कार्य, व्यवसाय, नौकरी आजीविका का पता चलता है। दशम भाव में स्थित ग्रह, दशमेश व उसका स्वामी, नवांश, तीनों लग्नों से दशम भाव में स्थित ग्रह, कुंडली के योग कारक ग्रह आदि का अध्ययन कर जातक की आजीविका का पता चल सकता है।

दशम भाव के अतिरिक्त एकादश, द्वितीय व सप्तम भाव पर भी दृष्टिपात करना जरूरी होता है। कारण यह सभी भाव धन, व्यवसाय व सांझेदारी से जुड़े होते हैं जिनके बिना आजीविका या व्यवसाय नहीं किया जा सकता।
दशम भाव का मुख्यतः कैसे विचार किया जाए इस हेतु हमारे आचार्यों ने बहुत कुछ स्पष्ट किया है।

लग्न या चंद्र से दशम जो ग्रह हो उनके अनुसार आजीविका से लाभ होता है। यदि कोई ग्रह ना हो तो सूर्य से दसवे जो ग्रह हो उससे भी आजीविका जाननी चाहिए।

यदि सूर्य, चंद्र व लग्न से दशम कोई ग्रह ना हो तो दशमेश जिस नवांश में हो उस ग्रहानुसार आजीविका होती है।
नवांश चक्र में दशमस्थ ग्रह/दशमेश ग्रह के आधार पर भी आजीविका हो सकती है।

इसके अतिरिक्त शनि ग्रह पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि नाड़ी ग्रंथों में शनि को कर्म का कारक कहा गया है।
६, ७, व ९ भाव को अवलोकित करना चाहिए। ये भी आजीविका निर्धारण में महत्व रखते हैं।

जन्म नक्षत्र व उससे दशम नक्षत्र व नक्षत्र स्वामी से भी आजीविका देखी जा सकती है।

यदि दशम में राहु-केतु हो तो दशमेश व राहु केतु के अनुसार आजीविका हो सकती है।

उपरोक्त परिस्थितियों के अलावा अन्य और भी कई योग हो सकते हैं जो आजीविका निर्धारण में हमारी सहायता करते हैं ऐसे ही कुछ योग निम्नलिखित हैं-

कैरियर का चुनाव (1)

दशम भाव (या तो लग्न से या चंद्र से जो भी बलवान हो) और उसके स्वामी, दशम भाव में स्थित ग्रहों से, जन्मपत्री के प्रधान ग्रह, और नवांष में दशमेश की स्थिति से कैरियर के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

मेष, सिंह और धनु आग्नेय राषियां हैं। वृषभ, कन्या और मकर पार्थिव हैं। मिथुन, तुला, कुंभ वायव्य और कर्क, वृश्चिक, मीन जलीय हैं। दशम भाव में आग्नेय राशि होने पर कारखाने, अग्नि, सेना, लोहा, धातुशोधन मुद्रण संबंधी कोई कार्य अपनाया जाता है।

दशम भाव में जलीय राशि नाविक, जलयात्री, समुद्री, सेना नायक, सराय चलाने वाले मछली विक्रेता उत्पन्न करती है।
पार्थिव राशि भूमि संबंधी जायदाद, कृषि, वस्त्र की दुकान, व्यापार, बागवानी इत्यादि प्रदान करती है।

वायव्य राशि वक्ता, पत्रकार, ज्योतिषी, टेक्निकल ज्ञान का व्यवसाय करने वालों का निर्देशन करती है। राशि निर्देशन उनमें स्थित ग्रहों या दृष्टिपात कर्ता ग्रहों द्वारा और भी परिवर्धित-संशोधित हो जाता है।

अगर हम कैरियर के प्रश्न को वास्तविकता से देखें तो हमें पता चलता है कि यह केवल कर्म से नहीं जुड़ा अपितु लाभ, धन और सुख से भी जुड़ा है। इसलिए हम व्यवसाय को द्वितीय, चतुर्थ एवं एकादश भाव से भी जान सकते हैं। इन भावों को यदि हम सर्वाष्टक वर्ग के अनुसार देखें तो स्पष्ट रूप से दिखता है कि जातक को कर्म द्वारा कितना लाभ मिलता है और कितना व्यर्थ करता है। ज्योतिष शास्त्रानुसार यदि दशम् भाव में कोई ग्रह हो तो जातक को अपने कर्मों द्वारा उन्नति सुनिश्चित होती है। यदि दशमस्थ ग्रह उच्च का हो तो जातक को एकाएक उन्नति मिलेगी। यदि दशमस्थ ग्रह नीच का हो तो उन्नति तो मिलती है लेकिन संदिग्ध रहती है। कैरियर की जानकारी के लिए नवांश कुंडली पढ़ना अति आवश्यक है। यदि दशमभाव में कोई ग्रह न हो तो दशमेश और नवांशेश को जानकर फिर कैरियर पर विचार करें?

सूर्य :

जैसे सूर्य का दशम भाव से या दशमेश के नवांशेश से संबंध हो तो जातक सुगंधित वस्तुओं, आभूषणों का कार्य, दवाईयां, प्रबंधन, राज्य का शासन करेगा, लेकिन पिता के सहयोग व समर्थन से सफल होगा।

चंद्रमा :

यदि इन भावों और राशियों का संबंध चंद्रमा से हो तो जातक को खेती-बाड़ी से संबंधित चीजों का क्रय-विक्रय करना चाहिए। ऐसे जातक को धागा, कपड़ों और पेय पदार्थों का कार्य करना चाहिए। नर्स, दाई, जौहरी, मूल्यवान पत्थरों-मोतियों के व्यापारी, साथ ही राजकीय कर्म पर प्रभाव रखता है।

मंगल :

सैनिक, योद्धा, बढ़ई, यांत्रिक, पर्यवेक्षक, वकील, बैंकर, सेनानायक, बीमा एजेंट और कसाई का पेशा कराता है। इन भावों का संबंध मंगल से बने तो जातक अस्त्र-शस्त्र, कलपुर्जे का काम या ऐसा कार्य करना चाहिए जिसमें अग्नि और पराक्रम की आवश्यकता होती है। ऐसे जातक कनिष्ठ अभियंता, मिलिट्री पुलिस या फौज का काम करता है। यदि इसमें मंगल पीड़ित हो तो जातक पराये धन का लाभ उठाता है या जबरन किसी पर रौब जमा कर कार्य करने वाला होता है।

बुध :

उपदेशकों, अध्यापकों, गणिततज्ञों, लेखकों, मुद्रकों, सचिवों, पुस्तक विक्रेताओं, लेखपालों और बीमा एजेंटो पर शासन करता है। बुध ग्रह जातक की बुद्धि से करने वाला व्यवसाय कराता है अर्थात ऐसा काम जिसमें बुद्धि का उपयोग होता है। जैसे : ज्योतिष, अध्यापक या गणितज्ञ।

बृहस्पति :

पुरोहित-पादरी, कानूनज्ञाता, सभासद-सांसद, विधायक, न्यायाधीश, विद्वान जन नेता बनाता है। बृहस्पति यदि दशमेश या नवांशेश अथवा दशमस्थ हो तो जातक इन व्यवसायों से धन प्राप्त करता है। इतिहास और पुराणादि का पठन-पाठन, धर्मोपदेश, किसी धार्मिक संस्था का निरीक्षण अथवा संपादन, हाई कोर्ट कार्य अथवा जजमेंट तैयार करना।

शुक्र :

कलाकारों, संगीतज्ञों, अभिनेताओं, सुगंध निर्माताओं, जौहरी, शराब बेचने वाले और सूक्ष्म बुद्धि के वकीलों का जन्मदाता है। यदि शुक्र का संबंध हो तो जातक जौहरी का काम, गौ महिषादि का रोजगार, दूध, मक्खन आदि का क्रय-विक्रय, होटल या रेस्तरां का प्रबंधक।

शनि :

विभिन्न उत्तरदायित्व पूर्ण पेशों, मिल के अधिकारियों, कंपोजीटरों, फैक्ट्री-कुलियों और मंत्रियों पर शासन करता है। काष्ठादि का क्रय-विक्रय, मजदूरी और मजदूरों की सरदारी आदि का कार्य। अर्थात् शनि शारीरिक परिश्रम से संबंधित कार्य कराता है। वकालत, दो मनुष्यों के बीच झगड़ा करवाकर अपना काम निकलवाना उत्तरादायित्व वाला काम। उपर्युक्त तथ्यों के अनुसार पता चलता है कि जातक किस प्रकार का व्यवसाय करेगा। किंतु एक ग्रह कई प्रकार के व्यवसायों को निर्दिष्ट करता है। इसलिए ग्रहों की स्थिति पर, उसके उच्च नीचादि गुणदोष पर तथा उन ग्रहों पर शुभाशुभ दृष्टि का अच्छी तरह विचार करना चाहिए। यदि निर्दिष्ट कुंडली में धन योग उत्तम है तो जातक डिप्टी, बैरिस्टर या वकील जैसे व्यवसाय करेगा।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

लोशु ग्रिड

अंक शास्त्र के अंतर्गत लो-शु वर्ग की रचना सर्वप्रथम चीन में हुई, जिसकी उत्पत्ति के बारे में यह माना जाता है कि ÷लो' नामक नदी तट पर एक कछुए की पीठ पर यह रचना प्राप्त हुई। इसका उपयोग चीन के राजाओं व ज्योतिषियों ने कालांतर में मानव जीवन को समृद्ध व सफल बनाने में किया। धीरे-धीरे यह रचना पूरे विश्व में समय के साथ-साथ फैलती चली गई।


लोशु ग्रिड क्या है :

यह ९ कोष्ठकों का ३x३ खानों वाला एक वर्ग होता है, जिसमें 1 से ९ तक अंक लिखे हुए होते हैं। जन्मतिथि के आधार पर अंकों को इस वर्ग व ग्रिड में बैठाकर देखते हैं। जिस भी अंक की कमी लोशु ग्रिड के आधार पर होती है जीवन में उस अंक से संबंधित दिशा, वस्तु, धातु, कारक आदि प्रभावित क्षेत्रों में कमी रहेगी। अंकों से संबंधित धातु, दिशा आदि के विषय में हमें निम्न सारणी की आवश्यकता पड़ती है। जन्मतिथि के आधार पर जो अंक लोशु ग्रिड में नहीं होता, उस अंक से संबंधित दिशा, व्यक्ति, धातु, कारक आदि को उस व्यक्ति के जीवन में प्रवेश करवाकर उसकी हर प्रकार की कमियों को पूरा किया जा सकता है। यहां पर भी ध्यान रखना होता है कि जो अंक जन्मतिथि में नहीं है (लोशु ग्रिड) केवल उन्हीं क्षेत्रों में व्यक्ति विशेष को कमी हो ऐसा कदापि नहीं माना जा सकता। क्योंकि बहुत से अन्य कारण भी होंगे जिनका प्रभाव समय के साथ-साथ समाप्त भी होता जाएगा जैसे (किसी की मृत्यु पश्चात् उससे संबंधित अंक का व्यर्थ होना) किसी एक अंक का अधिक बार होना उस व्यक्ति विशेष पर उस अंक से संबंधित तत्व, ग्रह आदि की अधिकता भी दर्शाता है जो कभी-कभी नुक्सान भी दे सकती है अतः ऐसे अंकों हेतु उपाय भी करने होते हैं।

अनुपस्थित अंकों हेतु उपाय व सुझाव अंक एक (जल तत्व)-

पानी भरा पात्र पूर्व/उ.पू. में रखें। सूर्य को प्रातः ताम्र पात्र से अर्य दें। मछली घर (एक्वेरियम) रखें। उत्तर दिशा में फब्बारा/स्वीमिंग पूल रखें। प्यासे व्यक्तियों को पानी पिलाएं। १, १०, २८ जन्मतिथि वालों का संग करें, संबंध बनाएं।

अंक २, ५, व ८ (भूमि तत्व) जन्मतिथि पर न होने (अनुपस्थित) पर उपाय-

चकोर/वर्गाकार खाने की मेज (डायनिंग टेबल) प्रयोग करें। शयनकक्ष दक्षिण-पश्चिम में बनाएं। घर के मध्य में पीली रोशनी (बल्व) लगवाएं। पहाड़ों के चित्र द.प. में लगाएं। एक मुखी रुद्राक्ष/क्रिस्टल माला धारण करें। हरा पिरामिड रखें।

अंक ३, ४ (काष्ठ तत्व) हेतु उपाय -

मुख्य द्वार पर संगीतमय घंटी (विंड चाइम्स्) लगाएं। उत्तर पूर्व दिशा स्वच्छ रखें। पूर्व/दक्षिण - पूर्व में हरी रोशनी लगवाएं। हरे पौधे व हरियाली वाली तस्वीरें पूर्व/दक्षिण-पूर्व में लगवाएं। ३, १२, ३०, १३, २२ जन्मतिथि वालों से संबंध बढ़ाएं।

अंक ६-७ (धातु तत्व हेतु उपाय) :

दाएं हाथ में स्वर्ण (सोना पहनें)। सुनहरी पीली संगीतमय घंटी (विंड चाइम्स्) पश्चिम / उत्तर - पश्चिम/ उत्तर में लगाएं। धातु की बनी वस्तुएं मूर्तियां आदि पश्चिम/उत्तर पश्चिम में रखें। पीले रंग का पिरामिड घर पर रखें।

अंक ९ (अग्नि तत्व) :

लाल रंग की रोशनी दक्षिण पूर्व में लगाएं। बैठक में फूलों वाले पौधे लगाएं। दक्षिण पूर्व में तंदूर (ओवन) आदि रखें। दक्षिणी दीवार पर लाल रंग की तस्वीर लगाएं। आइए अब इस लोशु चक्र विधि को एक जन्मतिथि पर आजमा कर देखते हैं। किसी व्यक्ति की जन्मतिथि ३० नवंबर १९७७ अर्थात ३०, ११, १९७७ है इसे लोशु चक्र में लिखने पर हमें यह चार्ट प्राप्त होगा।
       अनुपस्थित अंक २, ४, ५, ६, ८ अर्थात् भूमि तत्व (२, ५, ८) ४ (काष्ठ तत्व) तथा ६ (धातु तत्व) है जबकि १, ३, ७, ९ उपस्थित है जिसमें 1 व ७ अंक की अधिकता है अर्थात् 1 (जल तत्व, ३ (काष्ठ तत्व), ७ (धातु तत्व) व ९ (अग्नि तत्व) इस जातक के जीवन में स्पष्ट है कि जल व धातु तत्व की अधिकता है जबकि भूमि तत्व की कमी है अतः जातक को भूमि तत्व (२, ५, ८) अंकों के उपाय करने चाहिए।
इस जातक को विवाह व संतान प्राप्ति के बाद काफी सफलता मिली कारण पति की जन्मतिथि ८ व पुत्री की जन्मतिथि ११ जो कि २, ८ बनती है अर्थात् भूमि तत्व की कमी पूरी होने से जीवन पहले से अधिक सफल हुआ।
लोशु चक्र रहस्यमय अंक ज्योतिष का चक्र है, जिससे जातक के जीवन में वांछनीय बदलाव कर लाभ दिए व लिए जा सकते है।

शुभ नाम का चयन कैसे करें ?

हमारे जीवन में "नाम" का बड़ा महत्व होता है नाम से ही हमारी पहचान होती है। नाम रखने की विधि को हमारे यहां संस्कार का दर्जा दिया गया है जिसमें जातक के जन्म नक्षत्र पर आधारित नाम रखने का चलन है। कभी-कभी यह भी देखने में आता है कि किसी जातक का नाम तो बड़ा अच्छा है, परंतु फिर भी सफलता उससे कोसों दूर होती है ऐसे में अंक ज्योतिष द्वारा उसके नाम में थोड़ा सा परिवर्तन करके उपयोग में लाने से लाभ प्राप्त होता है।

वैसे तो नाम के अंकों (नामांकों) को घटा बढ़ाकर लिखने से सही व उपयुक्त नाम रखा जा सकता है। परंतु इस विधि से नाम रखने पर भी अधिक लाभ नहीं मिलता कारण मूलांक व भाग्यांक का नामांक से मेल न रखना। यदि किसी जातक के नामांक का ग्रह उसके मूलांक, भाग्यांक का शत्रु होता है तो उसके नाम को बदलना चाहिए। नाम के आगे अथवा पीछे कुछ अक्षरों को जोड़ घटाकर नामांक को उसके भाग्यांक/मूलांक के साथ समायोजित कर लाभकारी बनाया जा सकता है।
स्पष्ट है कि कुछ अंक किसी निश्चित अंक के मित्र व कुछ शत्रु होते हैं। यदि नामांक, भाग्यांक व मूलांक के शत्रु अंक का होगा तो सफलता नहीं मिलेगी इसलिए नामांक का मूलांक व भाग्यांक से समायोजन होना जरूरी है।

मूलांक-

किसी भी जातक की जन्मतिथि का योग मूलांक कहलाता है जैसे १४, ५, २३ तारीखों को जन्मे जातकों का मूलांक ५ कहलाएगा।

भाग्यांक-

जन्म की तिथि, माह व वर्ष का योग भाग्यांक होता है जैसे 01 जनवरी १९८२ का भाग्यांक १+१+१+९+८+२=२२ =४ होगा।

शुभ नाम चयन हेतु उदारण देखें-

किसी जातक का नाम Mahendra Singh व उसकी जन्मतिथि ११/०१/१९८० है। जातक का मूलांक = ११ = १+१ = २ है। जातक का भाग्यांक = ११/०१/१९०८ = १+१+१+१+९+८+० = २१ = ३ जातक का नामांक- M A H E N D R A S I N G H 4 1 5 5 5 4 2 1 + 3 1 5 3 5 = 27 + 17 = 44 = 8 अतः जातक का संबंध २, ३ व ८ अंकों से है चूंकि नामांक (८) २ व ३ का मित्र अंक नहीं है इसलिए जातक को इस नाम में कुछ फेर बदल करना पड़ेगा (क्योंकि मूलांक व भाग्यांक तो बदले नहीं जा सकते)।
यदि जातक अपना नाम केवल Mahendra कर ले जिससे नामांक २७ =९ हो जाएगा तो उसे लाभ होने लगेगा कारण अंक ९ मूलांक व भाग्यांक दोनों का मित्र है जिससे उसे हर काम में आसानी व अपेक्षित लाभ होने लगेगा।

बुधवार, 16 जून 2010

वैवाहिक जीवन में क्लेश

वैवाहिक जीवन में क्लेश
1)सप्तम भाव, सप्तमेश और द्वितीय भाव पर क्रूर ग्रहों का प्रभाव वैवाहिक जीवन में क्लेश उत्पन्न करता है।
2)लग्न, सप्तम भाव, सप्तमेश की कारक शुक्र, राहु, केतु या मंगल से दृष्टि या युति के फलस्वरूप दाम्पत्य जीवन में क्लेश पैदा होता है।
3)यदि जातक व जातका का कुंडली मिलान (अष्टकूट) सही न हो, तो दाम्पत्य जीवन में वैचारिक मतभेद रहता है।
4)यदि जातक व जातका की राशियों में षडाष्टक भकूट दोष हो, तो दोनों के जीवन में शत्रुता, विवाद, कलह अक्सर होते रहते हैं।
5)यदि जातक व जातका के मध्य द्विर्द्वादश भकूट दोष हो, तो खर्चे व दोनों परिवारों में वैमनस्यता आती है जिसके फलस्वरूप दोनों के मध्य क्लेश रहता है।
6)यदि पति-पत्नी के ग्रहों में मित्रता न हो, तो दोनों के बीच वैचारिक मतभेद रहता है। जैसे यदि ज्ञान, धर्म, रीति-रिवाज, परंपराओं, प्रतिष्ठा और स्वाभिमान के कारक गुरु तथा सौंदर्य, भौतिकता और ऐंद्रिय सुख के कारक शुक्र के जातक और जातका की मानसिकता, सोच और जीवन शैली बिल्कुल विपरीत होती है।
7)पति-पत्नी के गुणों (अर्थात स्वभाव) में मिलान सही न होने पर आपसी तनाव की संभावना बनती है। अर्थात पति-पत्नी के मध्य अष्टकूट मिलान बहुत महत्वपूर्ण है, जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार कर लेना चाहिए।
8)मंगल दोष भी पति-पत्नी के मध्य तनाव का कारक होता है। स्वभाव से गर्म व क्रूर मंगल यदि प्रथम (अपना), द्वितीय (कुटुंब, पत्नी या पति की आयु), चतुर्थ (सुख व मन), सप्तम (पति या पत्नी, जननेंद्रिय और दाम्पत्य), अष्टम (पति या पत्नी का परिवार और आयु) या द्वादश (शय्या सुख, भोगविलास, खर्च का भाव) भाव में स्थित हो या उस पर दृष्टि प्रभाव से क्रूरता या गर्म प्रभाव डाले, तो पति-पत्नी के मध्य मनमुटाव, क्लेश, तनाव आदि की स्थिति पैदा होती है।
9)राहु, सूर्य, शनि व द्वादशेश पृथकतावादी ग्रह हैं, जो सप्तम (दाम्पत्य) और द्वितीय (कुटुंब) भावों पर विपरीत प्रभाव डालकर वैवाहिक जीवन को नारकीय बना देते हैं। दृष्टि या युति संबंध से जितना ही विपरीत या शुभ प्रभाव होगा उसी के अनुरूप वैवाहिक जीवन सुखमय या दुखमय होगा।
  10)द्वितीय भाव में सूर्य के सप्तम, सप्तमेश, द्वादश और द्वादशेश पर (राहु पृथकतावादी ग्रह) प्रभाव से दाम्पत्य जीवन में क्लेश की, यहां तक कि तलाक की नौबत आ जाती है।

सोमवार, 14 जून 2010

वैवाहिक जीवन के अशुभ योग

  • यदि सप्तमेश शुभ युक्त न होकर षष्ठ, अष्टम या द्वादश भावस्थ हो और नीच या अस्त हो, तो जातक या जातका के विवाह में बाधा आती है।
  • यदि षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश सप्तम भाव में विराजमान हो, उस पर किसी ग्रह की शुभ दृष्टि न हो या किसी ग्रह से उसका शुभ योग न हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा आती है।
     
  • सप्तम भाव में क्रूर ग्रह हो, सप्तमेश पर क्रूर ग्रह की दृष्टि हो तथा द्वादश भाव में भी क्रूर ग्रह हो, तो वैवाहिक सुख में बाधा आती है। सप्तमेश व कारक शुक्र बलवान हो, तो जातक को वियोग दुख भोगना पड़ता है।
     
  • यदि शुक्र सप्तमेश हो (मेष या वृश्चिक लग्न) और पाप ग्रहों के साथ अथवा उनसे दृष्ट हो, या शुक्र नीच व शत्रु नवांश का या षष्ठांश में हो, तो जातक स्त्री कठोर  चित्त वाली, कुमार्गगामिनी और कुलटा होती है। फलतः उसका वैवाहिक जीवन नारकीय हो जाता है।
     
  • यदि शनि सप्तमेश हो, पाप ग्रहों के साथ व नीच नवांश में हो अथवा नीच राशिस्थ हो और पाप ग्रहों से दृष्ट हो, तो जीवन साथी के दुष्ट स्वभाव के कारण वैवाहिक जीवन क्लेशमय होता है।
     
  • राहु अथवा केतु सप्तम भाव में हो व उसकी क्रूर ग्रहों से युति बनती हो या उस पर पाप दृष्टि हो, तो वैवाहिक जीवन अक्सर तनावपूर्ण रहता है। यदि सप्तमेश निर्बल हो और  भाव ६, ८ या १२ में स्थित हो तथा कारक शुक्र कमजोर हो, तो जीवन साथी की निम्न सोच के कारण वैवाहिक जीवन क्लेशमय रहता है।
     
  • सूर्य लग्न में व स्वगृही शनि सप्तम भाव में विराजमान हो, तो विवाह में बाधा आती आती है या विवाह विलंब से होता है।
     
  • सप्तमेश वक्री हो व शनि की दृष्टि सप्तमेश व सप्तम भाव पर पड़ती हो, तो विवाह में विलंब होता है।
     
  • सप्तम भाव व सप्तमेश पाप कर्तरी योग में हो, तो विवाह में बाधा आती है।
     
  • शुक्र शत्रुराशि में स्थित हो और सप्तमेश निर्बल हो, तो विवाह विलंब से होता है।
     
  • शनि सूर्य या चंद्र से युत या दृष्ट हो, लग्न या सप्तम भाव में स्थित हो, सप्तमेश कमजोर हो, तो विवाह में बाधा आती है।
     
  • शुक्र कर्क या सिंह राशि में स्थित होकर सूर्य और चंद्र के मध्य हो और शनि की दृष्टि शुक्र पर हो, तो विवाह नहीं होता है।
     
  • शनि की सूर्य या चंद्र पर दृष्टि हो, शुक्र शनि की राशि या नक्षत्र में में हो और लग्नेश तथा सप्तमेश निर्र्बल हों, तो विवाह में बाधा निश्चित रूप से आती है।

गुरुवार, 10 जून 2010

प्रश्न : रत्नों के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय का वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय तथ्य क्या है? उपरत्नों का प्रयोग कितना सार्थक है? रत्नों की धारण विधि, प्रभाव, चयन आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दें।

  
रत्नों के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय के वैज्ञानिक आधार को स्पष्ट करने के लिए यह समझना अति आवश्यक है कि मानव शरीर मात्र एक भौतिक रूप नहीं है। सृष्टि में, दृष्टि से नहीं दिखने वाले बहुत पदार्थ हैं, जिसे आधुनिक विज्ञान पूर्ण सत्य स्थापित कर चुका है। हर शरीर के बाह्यमंडल पर ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव होता है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि जब विद्युतधारा प्रवाहित होती है तो, वह नहीं दिखाई देती है लेकिन उसका कार्य बिजली के बल्ब या चलते हुए पंखे से ज्ञात होता है, वैसे ही ग्रह नक्षत्रों के ऊर्जा रश्मि का, मानव के कार्य कलाप पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जन्मकुंडली के निर्माण के बाद व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का खाका प्रायः अच्छे प्रतिशत तक ज्ञात हो जाता है अर्थात ग्रह-नक्षत्रों के ऊर्जा स्रोत का सम्मिश्रण सामने आ जाता है। व्यक्ति जिस ग्रह-नक्षत्र के ऊर्जा रश्मि स्रोत में क्षीण होता है, उसके कारक तत्व में वह शिथिलता दर्शाता है। ऐसी स्थति में उन ग्रहों से संबंधित रत्न द्वारा उसके वाह्य शरीर में उन ऊर्जाओं की भरपाई करना ही एक उपाय बचता है। भौतिक शास्त्र कहता है- कि प्रत्येक तत्व में ऊर्जा शक्ति है, फिर प्रकृति द्वारा प्रदत्त ये रत्न, इससे, कैसे वंचित हो सकते हैं? आज तरंगों से संबंधित उपकरणों जैसे मोबाइल आदि हमेशा हृदय या कान पर रखने से दुष्परिणाम दर्शाते हैं। तो रत्न, जो अपने परिवेश में ग्रह-नक्षत्रों की रश्मियां लाते हैं, व्यक्ति के बाह्य एवं शरीर पिंड को क्यों प्रभावित नहीं करेंगे?

रत्नों के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय का वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय तथ्य :

मनुष्य जीवन सूर्य से प्राप्त श्वेत प्रकाश द्वारा ही चल रहा है। यह श्वेत प्रकाश सात रंगों से मिलकर बना होता है। जिसे 'इंद्रधनुष'' के नाम से भी जानते हैं। यह अवसर बारिश के मौसम में दिखाई देता है। इन्हीं सात रंगों से उत्पन्न कॉस्मिक किरणों (अर्थात् पराबैंगनी) का प्रभाव मनुष्य जीवन में चारों स्तर जैसे- शारीरिक, मानसिक (स्वास्थ्य रूप में) आर्थिक (धन रूप में) तथा सामाजिक (प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य आदि) पर पड़ता है। इन्हीं सतरंगी किरणों के कॉस्मिक प्रभाव को रत्नों के माध्यम से जीवन में उतारकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इन रत्नों से निकलने वाली चुंबकीय शक्ति की तरंगे मनुष्य जीवन को एक विशेष ढंग से प्रभावित करती हैं। सूर्य की श्वेत किरणों में सात रंग छिपे होते हैं। प्रत्येक रंग एक विशेष रश्मि की किरणों द्वारा मनुष्य के जीवन को अपने प्रतीक, आवर्तन (अपवर्तन), परावर्तन, प्रतिक्षिप्त, स्पंदन तथा स्पर्श द्वारा प्रभावित करता है। सभी रत्नों में इन रंगों की रश्मियां अधिकतम मात्रा में होती हैं, जिसके कारण ये सभी रत्न, इनसे संबंधित निर्बल ग्रह की किरणों को मजबूती देकर उस ग्रह की प्रभाव शक्ति को संबंधित मनुष्य के लिए बढ़ाता है। वास्तव में प्रकाश का रूप रंग, जो दिखाई देता है, वह वास्तविक नहीं है। इसके वास्तविक रूप-रंग को देखने के लिए त्रिकोण कांच (प्रिज्म) का उपयोग करना चाहिए। त्रिकोण कांच अर्थात् प्रिज्म के प्रायोगिक अध्ययन द्वारा प्रकाश के रूप-रंग का वास्तविक होने का पता चलता है। अर्थात् प्रकाश (श्वेत) को प्रिज्म द्वारा गुजारते हैं तो यह श्वेत प्रकाश, सात रंगों से मिलकर बना हुआ है। ऐसा ज्ञात होता है। सौरमंडल के इन ७ ग्रहों की सातों किरणें, संपूर्ण ब्रह्मांड को सात रंगों से आच्छादित किये रहती है। ये सातो रंग निम्न दो क्रमानुसार (सीधे एवं उल्टे) होते हैं।
सीधा क्रम : विब्ग्योर (Vibgyor) अर्थात् बैनीआहपीनाला। (बै-बैंगनी, नी- नीला, आसमानी), हरा पीला नारंगी व लाल।
उल्टा क्रम : रॉयग्बिव(Roygbiv) अर्थात् लानापीहआनीबे।
अंग्रेजी में हिंदी में
V- Violet  बैंगनी
I-Indigo  नीला
B-Blue आसमानी
G-Green हरा
Y-Yellow पीला
O-Orange नारंगी
R-Red लाल
इन दोनों ही शब्दों को भौतिकी में प्रकाश के लिए उपयोग में लेते हैं। जो रंगों में हिंदी एवं अंग्रेजी नाम के पहले अक्षरों को मिलकर बनाया गया है। अर्थात् उपरोक्त दोनों शब्द इन रंगों का ही संक्षिप्त रूप (नाम) हैं।

उपरत्नों के उपयोग की सार्थकता :

ग्रहों को अनुकूल कर बलवान बनाने के लिए किये जाने वाले विभिन्न उपायों जैसे रत्न, उपरत्न, जड़ी-बूटी, यंत्र, मंत्र, तंत्र, व्रत, दान, टोटके, लाल किताब एवं वास्तु तथा फेंगशुई आदि में अभी तक शोधानुसार सबसे कारगर उपाय ÷रत्न' धारण करना ही साबित हुए हैं। क्योंकि रत्नों में ग्रहों को अनुकूल कर बलवान बनाने की अदभुत शक्ति प्राकृतिक रूप विद्यमान रहती है। ये नौ रत्न, नौ ग्रहों के समाधान का मूल उपाय है। तभी तो नौ ग्रहों के रत्नों के लिए ÷नवरत्न' शब्द का प्रयोग किया जाता है। यदि इनमें भी छाया ग्रह राहु एवं केतु को छोड़कर मूल रूप में देखें तो इन सात ग्रहों के रत्नों के लिए सप्त -महारत्न' शब्द का प्रयोग किया जाता है।

रत्नों का कार्य सिद्धांत :

जब रत्न को इसके ग्रह से संबंधित देव मंत्रों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा कर सिद्ध किया जाए तो यह ग्रहों से आने वाली अशुभ किरणों को इनकी रंग की शक्ति द्वारा हर समय अवशोषित अर्थात् छानकर शुभ एवं अनुकूल करके इन्हें शरीर के अंदर भेजता है। जिससे व्यक्ति की कोशिकाओं, मन, मस्तिष्क व दिल पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा करीब ३-६ महीने के भीतर जातक की सोच अर्थात मनोविज्ञान पर अच्छा परितर्वन आ जाता है। जिससे जातक को उस ग्रह से संबंधित शुभ फल मिलते हैं। यही रत्नों के कार्य करने का सिद्धांत भी है।
इस प्रकार व्यक्ति विशेष को रत्नों का हर समय लाभ मिलता रहता है। इस कारण से रत्नों को सबसे कारगर उपाय माना जाता है।
रत्न भी निम्न दो प्रकार से शरीर पर धारण किये जाते हैं।
अंगूठी के रूप में अंगुली में।
पैंडल या लॉकेट के रूप में गले में।
उपरोक्त में से प्रथम तरीके में अर्थात् रत्नों की अंगूठी के रूप में अंगुली में धारण करना सबसे अधिक तथा तुरंत प्रभावशाली माना जाता है। क्योंकि रत्न की अंगूठी, अंगुली की त्वचा को हर समय अर्थात् सोते, जागते, चलते, फिरते, आदि कर्म करते समय बराबर स्पर्श किए रहती है। जिससे अधिक सपंर्क में आने के कारण लाभ अधिक मिलता है। जबकि रत्नों को लॉकेट के रूप में गले में धारण करने पर रत्न शरीर की त्वचा को हर समय स्पर्श नहीं कर पाते हैं। अतः रत्नों को गले में धारण करने से हाथ की अंगुलियों की अपेक्षा लाभ कम मिलता है। यदि दोनों में तुलना करें तो अंगुलियों में रत्नों को धारण करने पर यदि अधिकतम लाभ ९०-९५ प्रतिशत मिलता है तो गले में धारण करने पर ८०-९० प्रतिशत के बीच में ही लाभ मिलेगा।
गले में मुख्यतः भगवान के लॉकेट, रुद्राक्ष तथा विभिन्न मालाएं आदि धारण की जाती हैं। इसके पीछे कारण यह है कि भगवान या इष्ट देव को सदैव हृदय या दिल में स्थान दिया जाता है। अर्थात् हृदय के पास लगाया जाता है।

ज्योतिषीय के तौर पर रत्नों का प्रयोगः

प्राचीन काल से ही रत्न अपनी आभा, दुर्लभता, अदभुत गुणों एवं अपनी अन्य दिव्य विलक्षणताओं के लिए संसार भर में आकर्षण का एक केंद्र बने रहे हैं। गरुड़ पुराण, श्रीरामचरितमानस, महाभारत, नारदपुराण, विष्णु पुराण आदि ग्रंथों में रत्नों का विशद उल्लेख किया गया है। तुलसीदास ने रामायण में
लिखा है-
मनि दीप राजहिं भवन भ्रातहिं देहरी बिद्रुमरची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुन्दर मनोहर मंदिरायत अजिर रूचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
इसके अतिरिक्त आचार्य वराहमिहिर ने भी अपनी महान् कृति ÷बृहत्संहिता' में भी रत्नों का विशद वर्णन किया है वे रत्नपरीक्षाध्याय में लिखते हैं :
रत्नेन शुभेन शुभं भवति नृपाणाम -निवटमशुभेन। यस्मादवः परीक्ष्य दैव रत्नाश्रि्रतं तज्झैः
अर्थात् ÷शुभ रत्न धारण करने से राजा को सदैव शुभ तथा अशुभ रत्न धारण करने से सदैव अशुभता की प्राप्ति होती है। अतः रत्नज्ञों द्वारा रत्नों की परीक्षा की जानी चाहिए।
आज के इस आधुनिक काल में हर मनुष्य तरक्की करता है। अतः अपनी तरक्की में वृद्धि हेतु वह रत्न-रुद्राक्ष का, ज्योतिष-वास्तु आदि का प्रयोग करता है। भाग्य परिवर्तन व कष्ट निवारण में रत्नों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अतः ग्रहों की स्थिति के अनुसार उनके रत्न पहने जाते हैं। मणिमाला में लिखा है-
धन्यं यश्स्यमायुष्यं श्रीमद् व्यसनसूदनं। हर्षणं काम्यमोजस्यं रत्नाभरणधारणं
रत्नजड़ित आभूषण धारण करने से धन, सुख, शक्ति यश, तेज, हर्ष, आयु में वृद्धि होती है व व्यसनों का नाश होता है। मुख्य रूप से नवरत्नों का सर्वाधिक महत्व है- माणिक, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद व लहसुनिया। ये क्रमशः नौ ग्रहों के लिए पहनाए जाते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण :

ग्रहों से सभी मनुष्य इतने अधिक प्रभावित होते हैं कि मनुष्य के सृजन-संहार की शक्ति भी ग्रहों में होती है। रत्नों में ग्रहों की शक्ति को बढ़ाने अथवा घटाने की क्षमता होती है। रत्नों में अपने अधिपति ग्रहों की रश्मियों, चुंबकत्व शक्ति तथा स्पंदन को आकर्षित करके परिवर्तन करने की भी शक्ति होती है। इसी शक्ति का प्रयोग करने हेतु रत्नों का उपयोग किया जाता है।
किसी भी कुंडली में दशानुसार ग्रह का उपाय तथा रत्नधारण करने से शुभत्व में वृद्धि होती है। वैज्ञानिक रूप से विशिष्ट ग्रह का मंत्रोच्चारण करने से प्रयुक्त ग्रह की रश्मियों की मानव शरीर के पास सुरक्षा रेखा बन जाती है व रत्न रश्मियों को सौंपकर मानव शरीर में प्रवाहित कर शुभत्व में वृद्धि करता है।
अब प्रश्न ये उठता है कि रत्नों की उत्पत्ति कैसे होती है। धरती के गर्भ में खनिज पदार्थों की भरमार है। खनिजों में कार्बन, मैंगनीज, सोडियम, तांबा, लोहा, बेरियम, गंधक, जस्ता, आदि कई पदार्थों के संयोग तथा धरती के दबाव आदि से ही रत्नों में कठोरता, रूप, आभा का अंतर होता है।

उपरत्नों का प्रयोग :

जो जातक मुख्य रत्न लेने में समर्थ नहीं है, उनके लिए उपरत्नों का प्रयोग बताया गया है। ८४ रत्नों का समाहार ग्रन्थों में कहा गया है, जिनमें से ९ रत्न मुख्य हैं तथा अन्य ७५ रत्न उपरत्न कहलाते है।

चयन विधि :

किसी भी व्यक्ति को रत्न पहनने से पहले अपने शारीरिक भार, ग्रहों के बलाबल-शुभाशुभ, का ध्यान रखते हुए ही रत्न का वजन निर्धारित करना चाहिए। सर्वदा दोष रहित रत्न ही धारण करें। किस ग्रह के लिए किस रत्न को पहना जाए, इसके लिए हम एक तालिका दी गयी हैं, जिससे अपने लिए सही रत्न का चयन कर सकते हैं। हर रत्न की अपनी आयु होती है, अतः उस आयु के पूर्ण होने पर, जब रत्न का प्रभाव क्षीण हो जाए तो जातक को रत्न का पूजन करके उसे किसी नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए या इसके पश्चात पुनः पूजा करवाकर पहनें। जब एक से अधिक रत्न धारण करें, तो रत्न के शत्रु का भी ध्यान रखें। हर भाव से आठवां भाव उसका मारकेश होता है। इस सिद्धांत को सर्वदा ध्यान में रखकर ही रत्न पहनाएं। माणिक के लिए हीरा, नीलम व गोमेद वर्जित हैं। मोती के लिए गोमेद व लहसुनिया वर्जित है। मूंगे के लिए हीरा, नीलम व गोमेद वर्जित है। पन्ने के लिए मोती वर्जित है। पुखराज के लिए हीरा व नीलम वर्जित है। हीरे व नीलम के लिए माणिक्य, मूंगा व पुखराज वर्जित हैं। गोमेद के लिए माणिक, मूंगा व मोती वर्जित है। लहसुनिया के लिए मोती वर्जित है। पंचधातु व अष्टधातु पहनानी हो, तो सब धातु समान मात्रा में मिलावें। रत्न को धारण करने से पूर्व परीक्षा के लिए रत्न स्वामी ग्रह के रंग के सूती वस्त्र में रत्न को बांधकर दाहिने हाथ में बांधकर फल देखें। परीक्षा के लिए रत्न के स्वामी के वार के दिन ही हाथ में बांधे व अगले, यानी ८ दिन बाद, उसी वार के पश्चात, ९वें दिन उसे हाथ से खोल लें, तो रत्न द्वारा गत ९ दिनों का शुभाशुभ का निर्णय हो जाएगा। रत्न की मर्यादा का भी अवश्य पालन करना चाहिए। बार-बार रत्न को उतारना रत्न का अपमान है। यदि रत्न खो जाए, चोरी हो जाए, जो समझें कि ग्रहदोष उतर गया है। यदि रत्न में दरार पड़े तो समझें कि ग्रह बहुत प्रभावशाली हैं- उसकी शांति करवाएं।

धारण विधि :

रत्न को धारण करने की विधि के विषय में भारतीय दैवज्ञों ने बताया है कि रत्न धारण करने से पूर्व उस रत्न को रत्न स्वामी के वार में, उसी की होरा में, उसी के मंत्रों द्वारा जागृत करके, धारण करना चाहिए। सर्वप्रथम रत्नधारण हेतु शुभ मुहूर्त का चयन करें तथा सौम्य नक्षत्रों में सौम्य रत्न तथा क्रूर नक्षत्रों में क्रूर रत्नों को धारण करना चाहिए। रत्न को पंचामृत से स्नान कराकर, फूल-नैवेद्यादि से पूजित करें तथा रत्न स्वामी के मंत्र की एक माला जप अवश्य करें। शत्रु वर्ग के रत्न को एक साथ धारण नहीं करना चाहिए। रत्नों के दो समूह होते हैं। उनके आधार पर परस्पर शत्रु ग्रहों के रत्न एक साथ एक ही हाथ में नहीं पहनते हैं। इसके अलावा यदि लग्नेश और राशीश परस्पर शत्रु हों तो लग्नेश के रत्न एवं इसके संबंधित रत्न को पुरुष के दाएं हाथ में तथा राशीश एवं इससे संबंधित रत्न को पुरुष के बाएं हाथ में धारण करवाते हैं। स्त्री के इसके विपरीत होता है।
रत्न धारण करने में दांयें एवं बांयें हाथ का सिद्धांत तथा रत्नों का वजन :
चूंकि ऊपर यह बताया गया है कि पुरुष जातक को दांये अर्थात् सीधे हाथ में तथा स्त्री जातक को बायें अर्थात् उल्टे हाथ में रत्न धारण करने चाहिए। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण निम्न दो हैं-
१. चूंकि चिकित्सा शास्त्रानुसार, पुरुष का दायां ;त्पहीजद्ध हाथ गर्म तथा बायां ;स्मजि द्ध हाथ ठंडा होता है तथा चूंकि स्त्री, पुरुष की विपरीत होती है। अतः प्रकृति अनुसार स्त्री का दायां हाथ ठंडा तथा बायां हाथ गर्म होता है। चूंकि कुछ रत्न प्रकृति अनुसार गर्म होते हैं अर्थात् पुखराज, हीरा, माणिक, मूंगा आदि गर्म प्रकृति के रत्न होते हैं। तथा कुछ रत्न जैसे- मोती, पन्ना, नीलम, गोमेद, लहसुनिया आदि ठंडी प्रकृति के होते हैं। अतः रत्नों से प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष एवं स्त्री जातक दोनों को, पूरा लाभ मिले। इसके लिए जातक के हाथ एवं रत्न की प्रकृति अनुसार ही रत्न को क्रमशः दांये या बांये हाथ में निम्न नियमानुसार धारण किये जाते हैं।

गर्म रत्न -

( माणिक, मूंगा, पुखराज एवं हीरा) पुरुष जातक दायां हाथ की तर्जनी एवं अनामिका में धारण करें। क्योंकि अंगुलियों में भी दायें हाथ की ये अंगुलियां तर्जनी एवं अनामिका गर्म होती है। अतः गर्म हाथ की गर्म अंगुलियों में गर्म रत्न धारण करने पर परिणाम १०० प्रतिशत शुभ एवं शुद्ध प्राप्त होता है। स्त्री जातक, इन रत्नों को बायां हाथ की गर्म अंगुलियां तर्जनी, अनामिका में ही धारण करें।

ठंडे रत्न -

(मोती, पन्ना, नीलम, गोमेद, लहसुनिया), पुरुष जातक बांये हाथ की मध्यमा एवं कनिष्ठिका अंगुली में धारण करें। क्योंकि पुरुष जातक के बांये ठंडे हाथ की भी अंगुलियां मध्यमा एवं कनिष्ठका ठंडी होती है। अतः ठंडे हाथ की ठंडी अंगुलियों में ठंडे रत्न धारण करने पर फल १०० प्रतिशत शुभ एवं अच्छे प्राप्त होते हैं।
रत्नों का प्रभाव :

माणिक्य :

माणिक्य धारण करने से सिरदर्द, बुखार, नेत्रपीड़ा, पित्तविकार, मुर्च्छा, चक्कर आना, दाह (जलन), हृदय रोग, अतिसार, अग्निशास्त्र, विषजन्य विकार, पशु व शत्रु व भय, आदि कष्ट की शांति होती है। यदि माणिक्य जातक के लिए शत्रुवर्ग का हो, तो ऊपर लिखे सभी कष्ट जातक को सूर्य की दशा में प्राप्त होते हैं।

मोती :

मोती धारण करने से चंद्रमा की शांति होती है। क्रोध शांत होता है तथा मानसिक तनाव भी दूर होते हैं। इसके विपरीत यदि मोती जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक में आलस्य, कंधों में पीड़ा, तेजहीनता सदी का बुखार, नशा करने की आदत, अनिद्रा आदि होती है। मूंगा :
मूंगा धारण करने से रक्त साफ होता है, नजरदोष का नाश होता है, रक्त में वृद्धि होती है, भूतभय व प्रेतबाधा मिटती है, तथा मंगल जनित कष्ट क्षीण होते हैं। इसके विपरीत यदि मूंगा जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक में पेशाब का विकार, विकारी स्वभाव, क्रोध, मस्तिष्क की अस्थिरता, सर्पभय, आदि होते हैं। पन्ना :
पन्ना धारण करने से नेत्ररोग का नाश, ज्वरशांति, सन्निपात, दमा, शोध आदि का नाश होता है तथा वीर्य में वृद्धि होती है। इसे धारण करने से बुध-कोप की शांति होती है। इससे जातक के काम, क्रोध, आदि विकार भी शांत रहते हैं तथा तांत्रिक अभिचार, टोने-टोटके से भी ये मुक्ति देता है।

पुखराज :

पुखराज धारण करने से ज्ञान, शक्ति, सुख, धन, आदि में वृद्धि होती है। गुरु जनित कष्टों का अंत होता है। जिन जातकों के विवाह में दिक्कत हों, तो वह पुखराज धारण करें। इसके विपरीत यदि ये जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक के घुटने में दर्द, पेट की बीमारी, भी हो जाती है।

हीरे :

हीरा धारण करने से जातक को सुख, ऐश्वर्य, राजसम्मान, वैभव, विलासिता, आदि प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत यदि हीरा जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक को मूत्र विकार, नेत्रविकार, मैथुनशक्ति का नाश, असत्यवाचन, कफ रोग, आदि देता है। जो स्त्री पुत्र की कामना करे, उन्हें हीरा धारण नहीं करना चाहिए।

नीलम :

नीलम धारण करने से भूत-प्रेतबाधा निवारण, सर्प विष निवारण, रक्त प्रवाह को रोकना आदि कर्म होते हैं। नीलम शनि कृत कष्टों को शांत कर देता है। नीलम आंतरिक शांति देता है। श्वास, पित्त, खांसी की बीमारी दूर करता है। प्रेम में प्रगाढ़ता, दोष निवारण, दुख-दारिद्रय नाश, रोग नाश, सिद्धियों का दाता है नीलम रत्न। यही नीलम राजा को रंक तथा रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है।

गोमेद :

गोमेद धारण करने से भ्रम नाश, निर्णय शक्ति, आत्मबल का संचार, दरिद्रता का नाश, शत्रु की हार, नशे की आदत का नाश, सफलता, विवाह-बाधा नाश, पाचन शक्ति की प्रबलता, अजातशत्रुता, आत्म संतुष्टि, संतान बाधा का नाश, सुगम विकास शक्ति प्राप्त होती है। वात व कफ की बाधा भी शांत होती है।

लहसुनिया :

लहसुनिया धारण करने से दुखों का नाश, केतु की शांति, भूत-बाधा निवारण, व्याधि नाश तथा नेत्र रोग का नाश, स्वस्थ काया की प्राप्ती होती है सरकारी कार्यों में सफलता तथा दुर्घटना का नाश करने वाला रत्न लहसुनिया पित्तज रोगों का नाश करने वाला, केतु कृत समस्त रोगों व कष्टों का निवारण करता है।
के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय के वैज्ञानिक आधार को स्पष्ट करने के लिए यह समझना अति आवश्यक है कि मानव शरीर मात्र एक भौतिक रूप नहीं है। सृष्टि में, दृष्टि से नहीं दिखने वाले बहुत पदार्थ हैं, जिसे आधुनिक विज्ञान पूर्ण सत्य स्थापित कर चुका है। हर शरीर के बाह्यमंडल पर ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव होता है। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि जब विद्युतधारा प्रवाहित होती है तो, वह नहीं दिखाई देती है लेकिन उसका कार्य बिजली के बल्ब या चलते हुए पंखे से ज्ञात होता है, वैसे ही ग्रह नक्षत्रों के ऊर्जा रश्मि का, मानव के कार्य कलाप पर स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। जन्मकुंडली के निर्माण के बाद व्यक्ति के संपूर्ण जीवन का खाका प्रायः अच्छे प्रतिशत तक ज्ञात हो जाता है अर्थात ग्रह-नक्षत्रों के ऊर्जा स्रोत का सम्मिश्रण सामने आ जाता है। व्यक्ति जिस ग्रह-नक्षत्र के ऊर्जा रश्मि स्रोत में क्षीण होता है, उसके कारक तत्व में वह शिथिलता दर्शाता है। ऐसी स्थति में उन ग्रहों से संबंधित रत्न द्वारा उसके वाह्य शरीर में उन ऊर्जाओं की भरपाई करना ही एक उपाय बचता है। भौतिक शास्त्र कहता है- कि प्रत्येक तत्व में ऊर्जा शक्ति है, फिर प्रकृति द्वारा प्रदत्त ये रत्न, इससे, कैसे वंचित हो सकते हैं? आज तरंगों से संबंधित उपकरणों जैसे मोबाइल आदि हमेशा हृदय या कान पर रखने से दुष्परिणाम दर्शाते हैं। तो रत्न, जो अपने परिवेश में ग्रह-नक्षत्रों की रश्मियां लाते हैं, व्यक्ति के बाह्य एवं शरीर पिंड को क्यों प्रभावित नहीं करेंगे?

रत्नों के प्रयोग से ज्योतिषीय उपाय का वैज्ञानिक एवं ज्योतिषीय तथ्य :

मनुष्य जीवन सूर्य से प्राप्त श्वेत प्रकाश द्वारा ही चल रहा है। यह श्वेत प्रकाश सात रंगों से मिलकर बना होता है। जिसे 'इंद्रधनुष'' के नाम से भी जानते हैं। यह अवसर बारिश के मौसम में दिखाई देता है। इन्हीं सात रंगों से उत्पन्न कॉस्मिक किरणों (अर्थात् पराबैंगनी) का प्रभाव मनुष्य जीवन में चारों स्तर जैसे- शारीरिक, मानसिक (स्वास्थ्य रूप में) आर्थिक (धन रूप में) तथा सामाजिक (प्रतिष्ठा, ऐश्वर्य आदि) पर पड़ता है। इन्हीं सतरंगी किरणों के कॉस्मिक प्रभाव को रत्नों के माध्यम से जीवन में उतारकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है। इन रत्नों से निकलने वाली चुंबकीय शक्ति की तरंगे मनुष्य जीवन को एक विशेष ढंग से प्रभावित करती हैं। सूर्य की श्वेत किरणों में सात रंग छिपे होते हैं। प्रत्येक रंग एक विशेष रश्मि की किरणों द्वारा मनुष्य के जीवन को अपने प्रतीक, आवर्तन (अपवर्तन), परावर्तन, प्रतिक्षिप्त, स्पंदन तथा स्पर्श द्वारा प्रभावित करता है। सभी रत्नों में इन रंगों की रश्मियां अधिकतम मात्रा में होती हैं, जिसके कारण ये सभी रत्न, इनसे संबंधित निर्बल ग्रह की किरणों को मजबूती देकर उस ग्रह की प्रभाव शक्ति को संबंधित मनुष्य के लिए बढ़ाता है। वास्तव में प्रकाश का रूप रंग, जो दिखाई देता है, वह वास्तविक नहीं है। इसके वास्तविक रूप-रंग को देखने के लिए त्रिकोण कांच (प्रिज्म) का उपयोग करना चाहिए। त्रिकोण कांच अर्थात् प्रिज्म के प्रायोगिक अध्ययन द्वारा प्रकाश के रूप-रंग का वास्तविक होने का पता चलता है। अर्थात् प्रकाश (श्वेत) को प्रिज्म द्वारा गुजारते हैं तो यह श्वेत प्रकाश, सात रंगों से मिलकर बना हुआ है। ऐसा ज्ञात होता है। सौरमंडल के इन ७ ग्रहों की सातों किरणें, संपूर्ण ब्रह्मांड को सात रंगों से आच्छादित किये रहती है। ये सातो रंग निम्न दो क्रमानुसार (सीधे एवं उल्टे) होते हैं।
सीधा क्रम : विब्ग्योर (Vibgyor) अर्थात् बैनीआहपीनाला। (बै-बैंगनी, नी- नीला, आसमानी), हरा पीला नारंगी व लाल।
उल्टा क्रम : रॉयग्बिव(Roygbiv) अर्थात् लानापीहआनीबे।
अंग्रेजी में हिंदी में
V- Violet  बैंगनी
I-Indigo  नीला
B-Blue आसमानी
G-Green हरा
Y-Yellow पीला
O-Orange नारंगी
R-Red लाल
इन दोनों ही शब्दों को भौतिकी में प्रकाश के लिए उपयोग में लेते हैं। जो रंगों में हिंदी एवं अंग्रेजी नाम के पहले अक्षरों को मिलकर बनाया गया है। अर्थात् उपरोक्त दोनों शब्द इन रंगों का ही संक्षिप्त रूप (नाम) हैं।

उपरत्नों के उपयोग की सार्थकता :

ग्रहों को अनुकूल कर बलवान बनाने के लिए किये जाने वाले विभिन्न उपायों जैसे रत्न, उपरत्न, जड़ी-बूटी, यंत्र, मंत्र, तंत्र, व्रत, दान, टोटके, लाल किताब एवं वास्तु तथा फेंगशुई आदि में अभी तक शोधानुसार सबसे कारगर उपाय ÷रत्न' धारण करना ही साबित हुए हैं। क्योंकि रत्नों में ग्रहों को अनुकूल कर बलवान बनाने की अदभुत शक्ति प्राकृतिक रूप विद्यमान रहती है। ये नौ रत्न, नौ ग्रहों के समाधान का मूल उपाय है। तभी तो नौ ग्रहों के रत्नों के लिए ÷नवरत्न' शब्द का प्रयोग किया जाता है। यदि इनमें भी छाया ग्रह राहु एवं केतु को छोड़कर मूल रूप में देखें तो इन सात ग्रहों के रत्नों के लिए सप्त -महारत्न' शब्द का प्रयोग किया जाता है।

रत्नों का कार्य सिद्धांत :

जब रत्न को इसके ग्रह से संबंधित देव मंत्रों द्वारा प्राण प्रतिष्ठा कर सिद्ध किया जाए तो यह ग्रहों से आने वाली अशुभ किरणों को इनकी रंग की शक्ति द्वारा हर समय अवशोषित अर्थात् छानकर शुभ एवं अनुकूल करके इन्हें शरीर के अंदर भेजता है। जिससे व्यक्ति की कोशिकाओं, मन, मस्तिष्क व दिल पर इनका सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तथा करीब ३-६ महीने के भीतर जातक की सोच अर्थात मनोविज्ञान पर अच्छा परितर्वन आ जाता है। जिससे जातक को उस ग्रह से संबंधित शुभ फल मिलते हैं। यही रत्नों के कार्य करने का सिद्धांत भी है।
इस प्रकार व्यक्ति विशेष को रत्नों का हर समय लाभ मिलता रहता है। इस कारण से रत्नों को सबसे कारगर उपाय माना जाता है।
रत्न भी निम्न दो प्रकार से शरीर पर धारण किये जाते हैं।
अंगूठी के रूप में अंगुली में।
पैंडल या लॉकेट के रूप में गले में।
उपरोक्त में से प्रथम तरीके में अर्थात् रत्नों की अंगूठी के रूप में अंगुली में धारण करना सबसे अधिक तथा तुरंत प्रभावशाली माना जाता है। क्योंकि रत्न की अंगूठी, अंगुली की त्वचा को हर समय अर्थात् सोते, जागते, चलते, फिरते, आदि कर्म करते समय बराबर स्पर्श किए रहती है। जिससे अधिक सपंर्क में आने के कारण लाभ अधिक मिलता है। जबकि रत्नों को लॉकेट के रूप में गले में धारण करने पर रत्न शरीर की त्वचा को हर समय स्पर्श नहीं कर पाते हैं। अतः रत्नों को गले में धारण करने से हाथ की अंगुलियों की अपेक्षा लाभ कम मिलता है। यदि दोनों में तुलना करें तो अंगुलियों में रत्नों को धारण करने पर यदि अधिकतम लाभ ९०-९५ प्रतिशत मिलता है तो गले में धारण करने पर ८०-९० प्रतिशत के बीच में ही लाभ मिलेगा।
गले में मुख्यतः भगवान के लॉकेट, रुद्राक्ष तथा विभिन्न मालाएं आदि धारण की जाती हैं। इसके पीछे कारण यह है कि भगवान या इष्ट देव को सदैव हृदय या दिल में स्थान दिया जाता है। अर्थात् हृदय के पास लगाया जाता है।

ज्योतिषीय के तौर पर रत्नों का प्रयोगः

प्राचीन काल से ही रत्न अपनी आभा, दुर्लभता, अदभुत गुणों एवं अपनी अन्य दिव्य विलक्षणताओं के लिए संसार भर में आकर्षण का एक केंद्र बने रहे हैं। गरुड़ पुराण, श्रीरामचरितमानस, महाभारत, नारदपुराण, विष्णु पुराण आदि ग्रंथों में रत्नों का विशद उल्लेख किया गया है। तुलसीदास ने रामायण में
लिखा है-
मनि दीप राजहिं भवन भ्रातहिं देहरी बिद्रुमरची।
मनि खंभ भीति बिरंचि बिरची कनक मनि मरकत खची॥
सुन्दर मनोहर मंदिरायत अजिर रूचिर फटिक रचे।
प्रति द्वार द्वार कपाट पुरट बनाइ बहु बज्रन्हि खचे॥
इसके अतिरिक्त आचार्य वराहमिहिर ने भी अपनी महान् कृति ÷बृहत्संहिता' में भी रत्नों का विशद वर्णन किया है वे रत्नपरीक्षाध्याय में लिखते हैं :
रत्नेन शुभेन शुभं भवति नृपाणाम -निवटमशुभेन। यस्मादवः परीक्ष्य दैव रत्नाश्रि्रतं तज्झैः
अर्थात् ÷शुभ रत्न धारण करने से राजा को सदैव शुभ तथा अशुभ रत्न धारण करने से सदैव अशुभता की प्राप्ति होती है। अतः रत्नज्ञों द्वारा रत्नों की परीक्षा की जानी चाहिए।
आज के इस आधुनिक काल में हर मनुष्य तरक्की करता है। अतः अपनी तरक्की में वृद्धि हेतु वह रत्न-रुद्राक्ष का, ज्योतिष-वास्तु आदि का प्रयोग करता है। भाग्य परिवर्तन व कष्ट निवारण में रत्नों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। अतः ग्रहों की स्थिति के अनुसार उनके रत्न पहने जाते हैं। मणिमाला में लिखा है-
धन्यं यश्स्यमायुष्यं श्रीमद् व्यसनसूदनं। हर्षणं काम्यमोजस्यं रत्नाभरणधारणं
रत्नजड़ित आभूषण धारण करने से धन, सुख, शक्ति यश, तेज, हर्ष, आयु में वृद्धि होती है व व्यसनों का नाश होता है। मुख्य रूप से नवरत्नों का सर्वाधिक महत्व है- माणिक, मोती, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा, नीलम, गोमेद व लहसुनिया। ये क्रमशः नौ ग्रहों के लिए पहनाए जाते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण :

ग्रहों से सभी मनुष्य इतने अधिक प्रभावित होते हैं कि मनुष्य के सृजन-संहार की शक्ति भी ग्रहों में होती है। रत्नों में ग्रहों की शक्ति को बढ़ाने अथवा घटाने की क्षमता होती है। रत्नों में अपने अधिपति ग्रहों की रश्मियों, चुंबकत्व शक्ति तथा स्पंदन को आकर्षित करके परिवर्तन करने की भी शक्ति होती है। इसी शक्ति का प्रयोग करने हेतु रत्नों का उपयोग किया जाता है।
किसी भी कुंडली में दशानुसार ग्रह का उपाय तथा रत्नधारण करने से शुभत्व में वृद्धि होती है। वैज्ञानिक रूप से विशिष्ट ग्रह का मंत्रोच्चारण करने से प्रयुक्त ग्रह की रश्मियों की मानव शरीर के पास सुरक्षा रेखा बन जाती है व रत्न रश्मियों को सौंपकर मानव शरीर में प्रवाहित कर शुभत्व में वृद्धि करता है।
अब प्रश्न ये उठता है कि रत्नों की उत्पत्ति कैसे होती है। धरती के गर्भ में खनिज पदार्थों की भरमार है। खनिजों में कार्बन, मैंगनीज, सोडियम, तांबा, लोहा, बेरियम, गंधक, जस्ता, आदि कई पदार्थों के संयोग तथा धरती के दबाव आदि से ही रत्नों में कठोरता, रूप, आभा का अंतर होता है।

उपरत्नों का प्रयोग :

जो जातक मुख्य रत्न लेने में समर्थ नहीं है, उनके लिए उपरत्नों का प्रयोग बताया गया है। ८४ रत्नों का समाहार ग्रन्थों में कहा गया है, जिनमें से ९ रत्न मुख्य हैं तथा अन्य ७५ रत्न उपरत्न कहलाते है।

चयन विधि :

किसी भी व्यक्ति को रत्न पहनने से पहले अपने शारीरिक भार, ग्रहों के बलाबल-शुभाशुभ, का ध्यान रखते हुए ही रत्न का वजन निर्धारित करना चाहिए। सर्वदा दोष रहित रत्न ही धारण करें। किस ग्रह के लिए किस रत्न को पहना जाए, इसके लिए हम एक तालिका दी गयी हैं, जिससे अपने लिए सही रत्न का चयन कर सकते हैं। हर रत्न की अपनी आयु होती है, अतः उस आयु के पूर्ण होने पर, जब रत्न का प्रभाव क्षीण हो जाए तो जातक को रत्न का पूजन करके उसे किसी नदी में प्रवाहित कर देना चाहिए या इसके पश्चात पुनः पूजा करवाकर पहनें। जब एक से अधिक रत्न धारण करें, तो रत्न के शत्रु का भी ध्यान रखें। हर भाव से आठवां भाव उसका मारकेश होता है। इस सिद्धांत को सर्वदा ध्यान में रखकर ही रत्न पहनाएं। माणिक के लिए हीरा, नीलम व गोमेद वर्जित हैं। मोती के लिए गोमेद व लहसुनिया वर्जित है। मूंगे के लिए हीरा, नीलम व गोमेद वर्जित है। पन्ने के लिए मोती वर्जित है। पुखराज के लिए हीरा व नीलम वर्जित है। हीरे व नीलम के लिए माणिक्य, मूंगा व पुखराज वर्जित हैं। गोमेद के लिए माणिक, मूंगा व मोती वर्जित है। लहसुनिया के लिए मोती वर्जित है। पंचधातु व अष्टधातु पहनानी हो, तो सब धातु समान मात्रा में मिलावें। रत्न को धारण करने से पूर्व परीक्षा के लिए रत्न स्वामी ग्रह के रंग के सूती वस्त्र में रत्न को बांधकर दाहिने हाथ में बांधकर फल देखें। परीक्षा के लिए रत्न के स्वामी के वार के दिन ही हाथ में बांधे व अगले, यानी ८ दिन बाद, उसी वार के पश्चात, ९वें दिन उसे हाथ से खोल लें, तो रत्न द्वारा गत ९ दिनों का शुभाशुभ का निर्णय हो जाएगा। रत्न की मर्यादा का भी अवश्य पालन करना चाहिए। बार-बार रत्न को उतारना रत्न का अपमान है। यदि रत्न खो जाए, चोरी हो जाए, जो समझें कि ग्रहदोष उतर गया है। यदि रत्न में दरार पड़े तो समझें कि ग्रह बहुत प्रभावशाली हैं- उसकी शांति करवाएं।

धारण विधि :

रत्न को धारण करने की विधि के विषय में भारतीय दैवज्ञों ने बताया है कि रत्न धारण करने से पूर्व उस रत्न को रत्न स्वामी के वार में, उसी की होरा में, उसी के मंत्रों द्वारा जागृत करके, धारण करना चाहिए। सर्वप्रथम रत्नधारण हेतु शुभ मुहूर्त का चयन करें तथा सौम्य नक्षत्रों में सौम्य रत्न तथा क्रूर नक्षत्रों में क्रूर रत्नों को धारण करना चाहिए। रत्न को पंचामृत से स्नान कराकर, फूल-नैवेद्यादि से पूजित करें तथा रत्न स्वामी के मंत्र की एक माला जप अवश्य करें। शत्रु वर्ग के रत्न को एक साथ धारण नहीं करना चाहिए। रत्नों के दो समूह होते हैं। उनके आधार पर परस्पर शत्रु ग्रहों के रत्न एक साथ एक ही हाथ में नहीं पहनते हैं। इसके अलावा यदि लग्नेश और राशीश परस्पर शत्रु हों तो लग्नेश के रत्न एवं इसके संबंधित रत्न को पुरुष के दाएं हाथ में तथा राशीश एवं इससे संबंधित रत्न को पुरुष के बाएं हाथ में धारण करवाते हैं। स्त्री के इसके विपरीत होता है।
रत्न धारण करने में दांयें एवं बांयें हाथ का सिद्धांत तथा रत्नों का वजन :
चूंकि ऊपर यह बताया गया है कि पुरुष जातक को दांये अर्थात् सीधे हाथ में तथा स्त्री जातक को बायें अर्थात् उल्टे हाथ में रत्न धारण करने चाहिए। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण निम्न दो हैं-
१. चूंकि चिकित्सा शास्त्रानुसार, पुरुष का दायां ;त्पहीजद्ध हाथ गर्म तथा बायां ;स्मजि द्ध हाथ ठंडा होता है तथा चूंकि स्त्री, पुरुष की विपरीत होती है। अतः प्रकृति अनुसार स्त्री का दायां हाथ ठंडा तथा बायां हाथ गर्म होता है। चूंकि कुछ रत्न प्रकृति अनुसार गर्म होते हैं अर्थात् पुखराज, हीरा, माणिक, मूंगा आदि गर्म प्रकृति के रत्न होते हैं। तथा कुछ रत्न जैसे- मोती, पन्ना, नीलम, गोमेद, लहसुनिया आदि ठंडी प्रकृति के होते हैं। अतः रत्नों से प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष एवं स्त्री जातक दोनों को, पूरा लाभ मिले। इसके लिए जातक के हाथ एवं रत्न की प्रकृति अनुसार ही रत्न को क्रमशः दांये या बांये हाथ में निम्न नियमानुसार धारण किये जाते हैं।

गर्म रत्न -

( माणिक, मूंगा, पुखराज एवं हीरा) पुरुष जातक दायां हाथ की तर्जनी एवं अनामिका में धारण करें। क्योंकि अंगुलियों में भी दायें हाथ की ये अंगुलियां तर्जनी एवं अनामिका गर्म होती है। अतः गर्म हाथ की गर्म अंगुलियों में गर्म रत्न धारण करने पर परिणाम १०० प्रतिशत शुभ एवं शुद्ध प्राप्त होता है। स्त्री जातक, इन रत्नों को बायां हाथ की गर्म अंगुलियां तर्जनी, अनामिका में ही धारण करें।

ठंडे रत्न -

(मोती, पन्ना, नीलम, गोमेद, लहसुनिया), पुरुष जातक बांये हाथ की मध्यमा एवं कनिष्ठिका अंगुली में धारण करें। क्योंकि पुरुष जातक के बांये ठंडे हाथ की भी अंगुलियां मध्यमा एवं कनिष्ठका ठंडी होती है। अतः ठंडे हाथ की ठंडी अंगुलियों में ठंडे रत्न धारण करने पर फल १०० प्रतिशत शुभ एवं अच्छे प्राप्त होते हैं।
रत्नों का प्रभाव :

माणिक्य :

माणिक्य धारण करने से सिरदर्द, बुखार, नेत्रपीड़ा, पित्तविकार, मुर्च्छा, चक्कर आना, दाह (जलन), हृदय रोग, अतिसार, अग्निशास्त्र, विषजन्य विकार, पशु व शत्रु व भय, आदि कष्ट की शांति होती है। यदि माणिक्य जातक के लिए शत्रुवर्ग का हो, तो ऊपर लिखे सभी कष्ट जातक को सूर्य की दशा में प्राप्त होते हैं।

मोती :

मोती धारण करने से चंद्रमा की शांति होती है। क्रोध शांत होता है तथा मानसिक तनाव भी दूर होते हैं। इसके विपरीत यदि मोती जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक में आलस्य, कंधों में पीड़ा, तेजहीनता सदी का बुखार, नशा करने की आदत, अनिद्रा आदि होती है। मूंगा :
मूंगा धारण करने से रक्त साफ होता है, नजरदोष का नाश होता है, रक्त में वृद्धि होती है, भूतभय व प्रेतबाधा मिटती है, तथा मंगल जनित कष्ट क्षीण होते हैं। इसके विपरीत यदि मूंगा जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक में पेशाब का विकार, विकारी स्वभाव, क्रोध, मस्तिष्क की अस्थिरता, सर्पभय, आदि होते हैं। पन्ना :
पन्ना धारण करने से नेत्ररोग का नाश, ज्वरशांति, सन्निपात, दमा, शोध आदि का नाश होता है तथा वीर्य में वृद्धि होती है। इसे धारण करने से बुध-कोप की शांति होती है। इससे जातक के काम, क्रोध, आदि विकार भी शांत रहते हैं तथा तांत्रिक अभिचार, टोने-टोटके से भी ये मुक्ति देता है।

पुखराज :

पुखराज धारण करने से ज्ञान, शक्ति, सुख, धन, आदि में वृद्धि होती है। गुरु जनित कष्टों का अंत होता है। जिन जातकों के विवाह में दिक्कत हों, तो वह पुखराज धारण करें। इसके विपरीत यदि ये जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक के घुटने में दर्द, पेट की बीमारी, भी हो जाती है।

हीरे :

हीरा धारण करने से जातक को सुख, ऐश्वर्य, राजसम्मान, वैभव, विलासिता, आदि प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत यदि हीरा जातक के लिए शत्रुवर्ग का रत्न हो तो जातक को मूत्र विकार, नेत्रविकार, मैथुनशक्ति का नाश, असत्यवाचन, कफ रोग, आदि देता है। जो स्त्री पुत्र की कामना करे, उन्हें हीरा धारण नहीं करना चाहिए।

नीलम :

नीलम धारण करने से भूत-प्रेतबाधा निवारण, सर्प विष निवारण, रक्त प्रवाह को रोकना आदि कर्म होते हैं। नीलम शनि कृत कष्टों को शांत कर देता है। नीलम आंतरिक शांति देता है। श्वास, पित्त, खांसी की बीमारी दूर करता है। प्रेम में प्रगाढ़ता, दोष निवारण, दुख-दारिद्रय नाश, रोग नाश, सिद्धियों का दाता है नीलम रत्न। यही नीलम राजा को रंक तथा रंक को राजा बनाने की क्षमता रखता है।

गोमेद :

गोमेद धारण करने से भ्रम नाश, निर्णय शक्ति, आत्मबल का संचार, दरिद्रता का नाश, शत्रु की हार, नशे की आदत का नाश, सफलता, विवाह-बाधा नाश, पाचन शक्ति की प्रबलता, अजातशत्रुता, आत्म संतुष्टि, संतान बाधा का नाश, सुगम विकास शक्ति प्राप्त होती है। वात व कफ की बाधा भी शांत होती है।

लहसुनिया :

लहसुनिया धारण करने से दुखों का नाश, केतु की शांति, भूत-बाधा निवारण, व्याधि नाश तथा नेत्र रोग का नाश, स्वस्थ काया की प्राप्ती होती है सरकारी कार्यों में सफलता तथा दुर्घटना का नाश करने वाला रत्न लहसुनिया पित्तज रोगों का नाश करने वाला, केतु कृत समस्त रोगों व कष्टों का निवारण करता है।