मानव जीवन प्राप्त होने पर हम पर चार "ऋण" बताये गए हैं जिनका भुगतान(निवारण) हर व्यक्ति को करना चाहिए|
पितृ ऋण-पुत्र के द्वारा श्राद करने से निवारण होता हैं इसलिए पुत्र की कामना की जाती हैं |
देवता ऋण -यज्ञ या हवन आदि करके निवारण होता हैं |
ऋषि ऋण -स्वाध्याय व तपस्या से निवारण होता हैं |
मनुष्य ऋण -परोपकार करने से निवारण होता हैं |
यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह हैं की इन सभी ऋणों का निवारण बिना गृहस्थ जीवन जीए नही हो सकता हैं| इसलिए गृहस्थ जीवन को सबसे बड़ा कहा गया हैं |.........इति
4 टिप्पणियां:
बढिया लिखा है !!
Wahwa
आज ये चारों ॠण ही परिवर्तित हो गए हैं। पितृ ॠण की जगह पुत्र ॠण हो गया है, देव की जगह दुष्ट, ॠषि की जगह शिष्य और मनुष्य की जगह शैतान। इसलिए गृहस्थ जीवन और भी कठिन हो गया है।
aapki jaankaariya amulya avam laabhkari hai .bahut sundar kadam .
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