बुधवार, 28 अक्टूबर 2009

चार ऋण

मानव जीवन प्राप्त होने पर हम पर चार "ऋण" बताये गए हैं जिनका भुगतान(निवारण) हर व्यक्ति को करना चाहिए|

पितृ ऋण-पुत्र के द्वारा श्राद करने से निवारण होता हैं इसलिए पुत्र की कामना की जाती हैं |
देवता ऋण -यज्ञ या हवन आदि करके निवारण होता हैं |
ऋषि ऋण -स्वाध्याय तपस्या से निवारण होता हैं |
मनुष्य ऋण -परोपकार करने से निवारण होता हैं |

यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह हैं की इन सभी ऋणों का निवारण बिना गृहस्थ जीवन जीए नही हो सकता हैं| इसलिए गृहस्थ जीवन को सबसे बड़ा कहा गया हैं |.........इति

4 टिप्‍पणियां:

संगीता पुरी ने कहा…

बढिया लिखा है !!

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

Wahwa

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

आज ये चारों ॠण ही परिवर्तित हो गए हैं। पितृ ॠण की जगह पुत्र ॠण हो गया है, देव की जगह दुष्‍ट, ॠषि की जगह शिष्‍य और मनुष्‍य की जगह शैतान। इसलिए गृहस्‍थ जीवन और भी कठिन हो गया है।

ज्योति सिंह ने कहा…

aapki jaankaariya amulya avam laabhkari hai .bahut sundar kadam .