(1) देव पूजा पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके आसन पर बैठकर करें तथा पितृ पूजा दक्षिणमुखी होकर करनी चाहिए । (स्कन्दपुराण)
(2) गीले
वस्त्रों को पहनकर अथवा दोनों हाथ घुटनों से बाहर करके जो जप, होम और दान किया जाता है, वह सब निष्फल हो जाता है । (स्मृति)
(3) केश (बाल) खोलकर आचमन और देव पूजन नहीं करनी चाहिए -
मुक्तकेशश्च न आचमेत् देवाद्यों च
वर्जयेत् । (विष्णु पुराणे)
(4) आसन - कुश, कम्बल, मृगचर्म और रेशम का आसन जप, पूजादि के लिए शुभ है -
कौशेयं कम्बलं चैव अजिनं पट्टमेव च।
दारूज तालपत्रं वा आसनं परिकल्पयेत्॥
खाली पृथ्वी पर बैठ कर्म करने से दुख प्राप्ति, छिद्रों वाले आसन से दुर्भाग्य, घास के आसन से धन/यश हानि, पत्तों के आसन से मन में भ्रम उत्पन्न
होते हैं।
शान्ति कर्म में कम्बल और सर्वसिद्धि के
लिए चित्रित (रंग-बिरंगे) कम्बल का आसन होना चाहिए
"शान्तिके
कम्बलः प्रोक्तः सर्वेष्टं चित्र कम्बलम् ॥"
(5) तिलक धारण
सत्यं शौचं जपो होमस्तीर्थं देवादिपूजनम्
।
तस्य व्यर्थमिदं सर्वं यस्त्रिपुण्डूंन
धारयेत् ॥ (भविष्य पुराण)
तिलक के बिना सत्कर्म सफल नहीं होते ।
देव पूजन, मन्त्र जप, होम, तीर्थ, शौचादि कार्यों में नीचे से ऊपर की ओर
अर्ध्वपुण्ड्र लगाकर शुभ कृत्य करने चाहिएं |
ललाटे तिलकं कृत्वा सन्ध्या
कर्म-समाचरेत् ।
अकृत्वा भालतिलकं तस्य कर्म निरर्थकम् ॥
तिलक बैठकर लगाना चाहिए । भगवान् पर
चढ़ाने से बचे हुए चन्दन को ही लगाना चाहिए ।
(6) भगवान् को
ताम्र पात्र में अर्पण की वस्तु प्रिय होती है । ताम्र बर्तन मंगलस्वरूप एवं पवित्र
माना जाता है ।
(वाराहपुराण)
(7) चाँदी
पितरों को परमप्रिय है, परन्तु देव
कार्यों में इसे वर्जित माना गया है । अतएव देव कार्य में चाँदी को दूर रखना चाहिए
।
शिवनेत्रोद्भवं यस्मात् तस्मात्
पितृवल्लभम् ।
अमगंलम् तद् यत्नेन देवकार्येषु वर्जयेत्
॥ (मत्स्य पुराण)
(8) भगवान् की
पूजा करते समय दीपक का स्पर्श हो जाने पर हाथ धो लना चाहिए, अन्यथा दोष लगता है ।
(वाराह पुराण)
(9) घी का दीपक देवता के दाएं भाग में तथा तेल का दीपक बाएँ भाग
में रखना चाहिए ।
(10) कार्तवीर्य
को दीप प्रिय, सूर्य को
नमस्कार प्रिय है, गणेश को
तर्पण प्रिय है, दुर्गा को
अर्चना प्रिय है और शिव को अभिषेक प्रिय है । अतः इन देवताओं को प्रसन्न करने के
लिए इनके प्रिय कार्य ही करना चाहिए ।
(11) विष्णु के
मन्दिर की चार बार, शंकर के
मन्दिर की आधी बार, देवी के
मन्दिर की एक बार, सूर्य के
मन्दिर की सात बार और गणेश के मन्दिर की तीन बार परिक्रमा करनी चाहिए ।
(12) भोजन सदा
पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके खाने से मनुष्य की आयु व धन बढ़ता है । दक्षिण की
ओर मुख करके खाने से प्रेतत्व की प्राप्ति होती है, पश्चिम की ओर मुख करके खाने से मनुष्य
रोगी होता है ।
प्राच्यां नरो लभेदायुः याम्यां
प्रेतत्वमश्नुते
वारूणे च भवेद्रोगी आयुर्वित्तं तदोत्तरे
।। (पद्म पुराण)
(13) भगवान् को
भोग लगाए बिना भोजन करना राक्षसी भोजन कहलाता है । भोजन में तुलसी दल छोड़कर
जलसहित अन्न भगवान् को अर्पित करें । भोजन को शुद्धवस्त्रादि से आवृत करके निम्न
मन्त्र को पढ़ें -
त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये।
गृहाण सुमुखो भूत्व प्रसीद परमेश्वर ।
(14) सूर्य
अर्घ्य मन्त्र
एहि सूर्य ! सहस्रांशो तेजो राशे जगत्पते
।
अनुकम्पय मां भक्त्या गृहाणार्घ्य दिवाकर
नमोऽस्तुते ॥
(15) रोग नाश व
दीर्घायु हेतु मन्त्र -
सूर्यार्घ्य पात्र में से शेष बचे जल को
अपने मस्तक एवं आँखों में लगाएँ तथा कुछ चरणामृत निम्न मन्त्र पढ़कर ग्रहण करें ।
अकालमृत्यु हरणं सर्वव्याधि विनाशनम् ।
सूर्य पादोदकं तीर्थं जठरे धारयाम्यहम् ।।
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