सोमवार, 30 नवंबर 2009

इनामी प्रतियोगिता 1

आज से इनामी प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा हैं जैसा आप सभी को पता हैं इस प्रतियोगिता में दो सवाल पूछे जायेंगे जिनका हल आप सभी को अगले रविवार तक प्रेषित करना होगा सही जवाब देनेवालों में से ड्रा द्वारा एक विजेता को चुना जाएगा तथा उसे इनाम में (२१०० रु ) का उसकी जन्मपत्रिका का विश्लेषण व साथ ही साथ आनेवाले वर्ष का वर्षफल उपाए सहित बताया जाएगा।
तो लीजिये इनामी प्रतियोगिता के इस सप्ताह के प्रश्न यह रहे

)भगवान हनुमान को कौन सा रूद्र(शिव) अवतार माना जाता हैं और क्यों ?
)ज्योतिष में "हीरा" रत्न किस ग्रह से सम्बंधित हैं ?

शनिवार, 28 नवंबर 2009

संतानोत्पत्ति के समय से उपनयनपर्यंत सांस्कारिक क्रियाएं

प्रश्न : परिवार में संतानोत्पत्ति के समय क्या-क्या सांस्कारिक क्रियाएं की जानी चाहिए तथा किन-किन बातों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए? की जाने वाली क्रियाओं के
पीछे छिपे तथ्य, कारण व प्रभाव क्या हैं? विस्तृत विवरण दें।

संतानोत्पत्ति के समय गर्भवती को सुपाच्य पौष्टिक खीर खिलाई जाती है। प्राचीन समय में सीमांतोन्नयन संस्कार के अवसर पर वीणा वादन के साथ सोमराग का गान आदि भी होता था जो गर्भवती को प्रफुल्लित करने तथा भक्ति का संस्कार भरने का एक उत्तम साधन था।

विष्णुवलि : गर्भ के आठवें मास में यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार में भगवान विष्णु के लिए अग्नि में चौंसठ वली रूप आहुतियां अर्पित की जाती हैं। वैदिक सूक्तों से विष्णु की स्तुति की जाती है। इस संस्कार के द्वारा गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा होती है, गर्भच्युति का भय दूर होता है।

जातकर्म : शिशु के जन्म लेने पर जो संस्कार किया जाता है उसे जातकर्म कहते हैं। जातकर्म संस्कार का मुख्य अंग मेघाजनन संस्कार है। इस संस्कार द्वारा मातृ-पितृज शारीरिक दोषों का शमन होता है। पिता अथवा घर का वयोवृद्ध व्यक्ति द्वारा नाल काटने के पश्चात्‌ स्वर्ण की सलाई से शिशु को मधु और घृत विषम मात्रा में चटाना चाहिए। इसी के साथ संतानोत्पत्ति से पूर्व की संस्कारित क्रियाएं पूर्ण हो जाती हैं।

जन्म के छठे दिन किया जाने वाला षष्ठी संस्कार :
पुराणों के अनुसार शिशु को दीर्घायु बनाना, उसका रक्षण और भरण-पोषण करना भगवती षष्ठी देवी का स्वाभाविक गुण है। नंदराय जी एवं यशोदा ने जगत्‌ के पालक श्री कृष्ण के जन्म के छठे दिन अपने पुत्र के अरिष्ट निवारणार्थ ब्राह्मणों को बुलाकर भगवती षष्ठी का पूजन विधिपूर्वक करवाया था। आज शिशु के जन्म के छठे दिन प्रसूतिगृह में छठी-पूजन-संस्कार का विधान प्रचलित है। पुराणों में षष्ठी देवी की बड़ी महत्ता प्रतिपादित की गई है। मूलप्रकृति के छठे अंश से प्रकट होने से ÷षष्ठी' नाम पड़ा है। यह ब्रह्मा की मानस पुत्री एवं शिव-पार्वती के पुत्र स्कंद की प्राणप्रिया देवसेना के नाम से प्रख्यात हैं। इन्हें विष्णुमाया और बालदा भी कहा जाता है। ये षोडश मातृकाओं में परिगणित हैं। भगवती षष्ठी देवी अपने योग के प्रभाव से शिशुओं के पास सदैव वृद्धमाता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा उनकी रक्षा एवं भरण-पोषण करती रहती हैं। शिशु को स्वप्न में खिलाती, हंसाती दुलराती एवं वात्सल्य प्रदान करती रहती हैं। इसी कारण सभी शिशु अधिकांश समय सोना ही पसंद करते हैं। आंख खुलते ही उनकी दृष्टि से भगवती ओझल हो जाती हैं, अतः कभी-कभी शिशु बहुत जोर से रोने भी लगते हैं।

प्रसूति सूतक (जननाशौच) : बालक के जन्म के साथ ही घर में दस दिवसीय सूतक लग जाता है। इस अवधि में घर में प्रतिष्ठित देवताओं का पूजन परिवार के असगोत्रीय सदस्य (बहन-बेटी के परिवार) या ब्राह्मण द्वारा कराया जाता है। इसी कारण नामकरण संस्कार, हवन, पूजन आदि जन्म से ११वें दिन संपन्न किया जाात है। किंतु पुराणों के अनुसार भगवती षष्ठी देवी का पूजन बालक के पिता एवं माता द्वारा ही छठे दिन किया जाता है। इसमें जननाशौच का विचार नहीं माना गया है। षष्ठी देवी का पूजन प्रायः शाम को करने की परंपरा है। देवी पूजन में प्रयुक्त होने वाली सभी सामग्रियों से पूजन करना चाहिए। इसमें मुख्य रूप से विनेश, षष्ठी देवी और जीवंतका देवी का पूजन होता है।

नामकरण संस्कार : शुभ मुहूर्त में सूतका स्नान के अनंतर गृह शुद्धि करें । गणपति आदि ग्रह, मातृका तथा वरुण का पूजन करके नान्दि मुख श्राद्ध करें। शिशु को स्नान कराकर नवीन वस्त्र पहनाएं। स्वस्ति वाचन के साथ माता की गोद में शिशु को पूर्वाभिमुख लिटाकर उसके दाहिने कान में ÷÷अमुक शर्माशि, अमुक वर्माशि'' इत्यादि नाम तीन बार सुनाएं। तदनंतर ब्राह्मण भोजन कराएं। जन भाषा में इसे दशोन या दस दिवसीय जननाशोैच निवृत्ति कहा जाता है। नाम दो प्रकार के दिए जाते हैं - एक जन्म नक्षत्र का नाम जो गुह्य होता है, और दूसरा पुकार का नाम जो पिता शिशु के कान में कहता है। पुकार का नाम व्यवहार के लिए होता है। नाम केवल शब्द ही नहीं एक कल्याणमय विचार भी है। नामकरण संस्कार चारों वर्णों का होता है। स्त्री एवं शूद्र का अमंत्रक एवं विजातियों का समंत्रक होता है। ब्राह्मण का नाम मंगलकारी एवं शर्मा युक्त, क्षत्रिय का बल तथा रक्षा समन्वित, वैश्य का धन, पुष्टि युक्त तथा शूद्र का दैन्य और सेवा भाव युक्त होता है। स्त्रियों के नाम सुकोमल, मनोहारी, मंगलकारी तथा दीर्घ वर्णांत होने चाहिए जैसे यशोदा। कुछ ऋषियों ने नक्षत्र नाम को माता-पिता की जानकारी में रहना उपयुक्त बताया है अर्थात जिसे माता-पिता ही जानें अन्य नहीं। व्यवहार नाम ही प्रचलन में रहना चाहिए ताकि शत्रु के अविचार आदि कर्मों से शिशु की रक्षा की जा सके। अतः माता-पिता भी उसे व्यवहार नाम से ही संबोधित करें। आज इस इक्कीसवीं सदी में नामकरण कर न तो इस प्राचीन संस्कृति की रक्षा की जाती है और न नैतिकता का पालन ही होता है। कोई अपनी बच्ची को लिली कहता है तो कोई बेबी और कोई डौली। कुछ लोग अपने लाड़लों को हेनरी जैक, जेन्शन, हार्वे, जैसे नामों से पुकार कर बड़ी प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। अश्विन, आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूला और रेवती यू छह गंडमूल नक्षत्र हैं। इनमें से किसी भी नक्षत्र में जन्मा शिशु माता-पिता, अपने कुल या अपने शरीर के लिए कष्टदायक होता है। इसके विपरीत यदि संकट समाप्त हो जाए तो अपार धन की, वैभव, ऐश्वर्य, वाहन आदि का स्वामी होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार तो उचित यही है कि २७ दिन तक पिता को ऐसे शिशु का मुख नहीं देखना चाहिए। मूल शांति कराने के बाद ही संबंधित नक्षत्र का दान, हवन, पूजा आदि कराकर २७ दिन बाद ही मुख देखें। २७ दिन बाद ही जब वही नक्षत्र फिर आए तब पुरोहित द्वारा मूल शांति कराकर यथासंभव दान आदि करके ही प्रसूति स्नान कराना चाहिए और उसके बाद ही नामकरण संस्कार करना चाहिए।

झूला आरोहण : जन्मदिन से १०, १२, १६, २२, एवं ३२ वें दिन शिशु को आरामदेह झूले में सुलाना चाहिए। झूले में डालने से पूर्व शुभ तिथि, वार, नक्षत्र, योग आदि का विचार कर लेना चाहिए। माता, दादा या दादी को भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए शिशु को झूले में सिर पूर्व की ओर रखकर सुलाना चाहिए। ऐसा करने से शिशु की आयु एवं ऐश्वर्य की वृद्धिहोती है।

निष्क्रमण संस्कार : यह संस्कार उस समय किया जाता है जब बालक को सर्वप्रथम घर से बाहर ले जाना हो। नामकरण संस्कार के दूसरे अथवा चौथे माह में शुभ मुहूर्त देखकर निष्क्रमण संस्कार करना चाहिए। घर से बाहर सर्व प्रथम पास के किसी मंदिर में बालक को ले जाना चाहिए तथा उसी रात्रि में शुक्ल पक्ष के चंद्र के दर्शन कराना चाहिए।

भूम्योपवेशन : पांचवें मास मे भूम्योपवेशन नामक संस्कार होता है। शुभ दिन शुभ नक्षत्रादि में पृथ्वी और बाराह का पूजन कर बालक की कमर में सूत्र बांधकर पृथ्वी पर बिठाते हैं और पृथ्वी से इस प्रकार प्रार्थना करते हैं-
रक्षैनं वसुधे देवि सदा सर्वगतं शुभे। आयुः प्रमाणं सकलं निक्षिपसव हरिप्रिये॥
इस अवसर पर पुस्तक, कलम, मशीन आदि विभिन्न वस्तुएं बालक के सामने रखी जाती हैं। वह जिस वस्तु को सबसे पहले उठाता है उसे ही उसकी आजीविका का साधन मानकर उसे तदनुरूप शिक्षा दी जाती है।

वर्धापन संस्कार : शिशु दीर्घायु और उसका जीवन सुखमय हो इसके लिए शास्त्रों में प्रत्येक वर्ष जन्म तिथि को वरधापन संस्कार का विधान किया गया है। वर्धापन संस्कार सुरुचि पूर्ण, स्वास्थ्य वर्धक, आयु विवर्धक एवं समृद्धि दायक होता है। सनातन धर्म में मनुष्य के जन्म के अनंतर पहले वर्ष प्रत्येक मास में जन्म तिथि को अखंड दीप प्रज्वलित कर जन्मोत्सव मनाने का विधान है। इसके बाद प्रत्येक वर्ष जन्म मास में पड़ने वाली जन्म तिथि को जन्मोत्सव मनाया जाता है। इस दिन सर्वप्रथम शरीर में तिल का उबटन लगाकर तिल मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। तदनंतर नूतन वस्त्र धारण करके आसन पर बैठकर तिलक लगाएं और गुरु की पूजा करके अक्षत पुष्पों पर निम्नलिखित प्रकार से देवताओं का आवाहन तथा प्रतिष्ठा करके उनकी पूजा करें। सर्वप्रथम ÷÷कुल देवतायै नमः'' मंत्र से कुल देवता का आवाहन एवं पूजन करें। फिर जन्म नक्षत्र, माता-पिता, प्रजापति, सूर्य, गणेश, मार्कण्डेय, व्यास, परशुराम, अश्वत्थामा, कृपाचार्य, बलि, प्रह्‌लाद, हनुमान, विभीषण एवं षष्ठी देवी का अक्षत पुंजों पर नाम मंत्र से आवाहन करके उनकी पूजा करनी चाहिए। तत्पश्चात्‌ मार्कण्डेय जी को श्वेत तिल और गुण मिश्रित दूध तथा षष्ठी देवी को दही भात का नैवेद्य अर्पित करें। इसके बाद कल्प कल्पान्ति जीवी महामुनि मार्कण्डेय जी से दीर्घ आयु तथा आरोग्य की प्रार्थना करें। इस दिन नख और केश नहीं कटाएं। गर्म पानी से नहीं नहाएं। अपने से बड़ों का अभिवादन करें।

वर्तमान में चल पड़ी केक काटकर ÷÷हैप्पी बर्थ डे टु यू'' कहते हुए जन्मदिन मनाना पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण मात्र है। इससे सर्वथा बचते हुए भारतीय सनातन आराधना पद्धति ही अपनाना चाहिए। अन्यथा मंगल कम अमंगल की आशंका अधिक रहती है।

अन्न प्राशन संस्कार : इस संस्कार के द्वारा माता के गर्भ में मलिन-भक्षण-जन्म दोष जो बालक में आ जाते हैं उनका नाश हो जाता है (अन्ननाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति)। जब बालक छह-सात मास का होता है, दांत निकलने लगते हैं, पाचन शक्ति प्रबल होने लगती है, तब यह संस्कार किया जाता है। शुभ मुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात्‌ माता-पिता आदि सोने या चांदी की सलाका या चम्मच से निम्नलिखित मंत्र बोलकर खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न चटाते हैं।

शिवौ तेस्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि बोधते एतौ मुन्चतो अंहसः॥

अर्थात हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक और पुष्टिकारक हों क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पाप नाशक हैं।

चूड़ाकर्म संस्कार : इसे मुंडन संस्कार भी कहते हैं। यह संस्कार जन्म के प्रथम वर्ष, तृतीय वर्ष या पंचम वर्ष में किया जाता है। बाल काटने के लिए बालक को पूर्व की ओर मुख करके बिठाएं। बीच में मांग निकालकर दाएं, बाएं और पीछे की ओर सिर में बालों को बैल के गोबर में लपेटकर रखना चाहिए। कटे हुए बालों को गोबर सहित एक नवीन वस्त्र में रखकर जमीन में गाड़ देना चाहिए।

कर्ण वेधन : यह संस्कार पूर्ण पुरुषत्व एवं स्त्रीत्व की प्राप्ति के लिए किया जाता है। शास्त्रों में कर्ण वेधन रहित पुरुष को शास्त्र का अधिकारी नहीं माना गया है। यह संस्कार शिशु जन्म से छह मास से १६ मास के बीच अथवा तीन, पांच आदि विषम वर्षीय आयु में या कुल परंपरागत आचार के अनुरूप संपन्न कराना चाहिए सूर्य की किरणें कानों के छिद्र से प्रविष्ट होकर बालक-बालिका को पवित्र करती हैं और तेज संपन्न बनाती हैं। ब्राह्मण और वैश्य का रजत शलाका से क्षत्रिय का स्वर्ण शलाका से तथा शूद्र का लौह शलाका से कर्ण छेदन का विधान है। आयुर्वेद के अनुसार कानों में छेद करने से एक ऐसी नस बिंदु जाती है जिससे आंत्र वृद्धि (हर्निया) रोग नहीं होता है। इससे पुरुषत्व नष्ट करने वाले रोगों से रक्षा होती है।

उपनयन संस्कार : इस संस्कार को यज्ञोपवीत या जनेऊ संस्कार भी कहते हैं। इस संस्कार से मानव जीवन के विकास का आरंभ माना जाता है। कहा जाता है कि यज्ञोपवीत धारण करने से करोड़ों जन्मों के संचित पाप कर्म नष्ट हो जाते हैं। शूद्रों को यह संस्कार नहीं कराया जाता।

ब्राह्मण का उपनयन संस्कार आठवें वर्ष में, क्षत्रिय का गयारहवें और वैश्य का बारहवें वर्ष में करना चाहिए। वर्ष की गणना गर्भ के समय से करनी चाहिए।

उपनयन संस्कार के समय विभिन्न वैदिक मंत्रों के अलावा गायत्री मंत्र का पुरश्चरण भी किया जाता है और आचार्य बालक को गायत्री मंत्र की दीक्षा देता है। उपनयन संस्कार में भिक्षाचरण भी होता है। उपनयन संस्कार हो जाने के बाद बालक वैदिक कर्म करने का अधिकारी हो जाता है। किंतु उसे विवाह होने तक ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन गंभीरतापूर्वक करना चाहिए। साथ ही आचार्य द्वारा दिए गए उपदेशों का पालन भी दृढ़ता से करना चाहिए, तभी उसे द्विजत्व की प्राप्ति होगी।

यज्ञोपवीत : यज्ञ सूत्र निरंतर हमें अपने धर्म, जाति एवं प्रवर ऋषियों, पुरुषों के उपकार का स्मरण दिलाते हैं। हमारे यज्ञ सूत्र में सभी देवों का वास है अतएव यथाधिकार यज्ञोपवीत धारण करना परम आवश्यक है।

ब्रह्मव्रत : गुरुकुल में गुरु सेवार्थ धारण किया जाने वाला (अन्तेवासी शिष्य का) यह अखंड ब्रह्मचर्य व्रत है। इस संस्कार में उपनीत वटु, आचार्य गृह में गुरु का अन्तेवासी बनकर अखंड ब्रह्मचर्य व्रत धारण करता हुआ परमात्मा के पथ पर अग्रसर होने के लिए अपने पुरुषार्थ की प्रतिज्ञा करता है। इस काल में वटु के लिए दो कार्य अनिवार्य हैं - ब्रह्मचर्य का पालन और गुरुसेवा।

वेदारंभ संस्कार : उपनयन संस्कार संपन्न होने पर उसी दिन अथवा उससे तीन दिन बाद वेदारंभ कर सकते हैं। महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जिन-जिन कुलों में वेद शाखाओं का अध्ययन परंपरा से होता चला आ रहा हो, उन-उन कुलों के बालकों को उसी शाखा का अभ्यास करना चाहिए। अपने कुल की परंपरागत शाखा (उपनिषद आदि) का अध्ययन कर लेने के बाद अन्य शाखाओं के उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिए।

वेदाध्ययन गुरु के सान्निध्य में करना चाहिए। वेद का अर्थ सहित अध्ययन करना चाहिए।
वेदारंभ संस्कार में वेद मंत्र की आहुतियों से यज्ञ करने का विधान है।

समावर्तन : यह संस्कार विद्याध्ययन का अंतिम संस्कार है। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने के अनंतर स्नातक ब्रह्मचारी अपने पूज्य गुरु की आज्ञा पाकर अपने घर में समावर्तित होता है। इसलिए इसे समावर्तन संस्कार कहते हैं। गृहस्थ जीवन में प्रवेश का अधिकारी हो जाना इस संस्कार का फल है।

संस्कारों का प्रयोजन : हर संस्कार भिन्न-भिन्न उद्देश्य के लिए होता है। संस्कारों के कतिपय लौकिक अंग भी होते हैं। संस्कार में विविध कृत्य ग्रथित होते हैं, जिन्हें अपनाने से व्यक्ति को अनेक शुभ फल प्राप्त होते हैं और अशुभ फलों से मुक्ति मिलती है।

अशुभ प्रभाव का प्रतिकार : शुभ कार्यों में अमंगल की भी आशंका रहती है अतः अशुभ प्रभाव से रक्षा के लिए संस्कारों में कुछ विशेष कृत्य भी किए जाते हैं। जैसे आसुरी शक्तियां संस्कार्य व्यक्ति पर अशुभ प्रभाव न डालें, इसलिए उन्हें दीर्घ, भात-भक्त बलि प्रदान कर शांत किया जाता है। इसी प्रकार विनायक शांति भी की जाती है। शिशु जन्म प्रसंग में पिता रोग कारक भूत-प्रेत से कहता है कि तुम लोग मेरे पुत्र को रोगादि द्वारा पीड़ा मत पहुंचाओ। तुम लोग चले जाओ, मैं तुम्हारे प्रति आदर भाव रखूंगा।
शुभ प्रभाव का आकर्षण : गर्भाधान तथा विवाह के प्रधान देवता प्रजापति और उपनयन के प्रधान देवता बृहस्पति हैं। इन प्रसंगों में इन देवताओं के सूक्तों द्वारा उनसे अभीष्ट शुभ फल की प्रार्थना की जाती है। शुभ वस्तु के स्पर्श से शुभ फल प्राप्त होता है, अतः सीमांतोन्नयन नामक संस्कार के समय औदुंबर वृक्ष की शाखा का गर्भवती स्त्री की ग्रीवा से स्पर्श कराया जाता है। जिस प्रकार औदुंबर वृक्ष पर विपुल फल आते हैं उसी प्रकार गर्भवती स्त्री को अनेक संतान हों, इसके पीछे यही भाव निहित है।

सांस्कारिक प्रयोजन : शास्त्रज्ञों ने संस्कारों ंमें उच्चतर धर्म एवं पवित्रता के समावेश की शक्ति का प्रतिपादन किया है। याज्ञवल्क्य ऋषि संस्कारों से बीज और गर्भवास की शुद्धि और पवित्रता पर बल देते हैं। जातक के कर्मादि संस्कारों से अशुद्धता का निवारण होता है। शरीर आत्मा का वास स्थान है और यह शरीर संस्कारों से शुद्ध होता है।

नैतिक प्रयोजन : संस्कारों को केवल संस्कार रूप में करना संस्कार विधान में नहीं है, अपितु संस्कार के परिपाक से नैतिक गुणों की अभिवृद्धि होती है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शास्त्रज्ञों ने संस्कार में जीवन के प्रत्येक सोपान के लिए व्यवहार के नियम धर्म निर्धारित किए हैं।

आध्यात्मिक प्रयोजन : शास्त्रीय संस्कारों से उत्पन्न होने वाले नैतिक गुणों से संस्कार्य व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास हो यही संस्कार का अभिप्रेत है। संस्कारित जीवन भौतिक धारणा और आत्मवाद के मध्य का माध्यम मात्र है। यद्यपि आध्यात्मिक दृष्टि से शरीर को निःसार माना गया है, फिर भी शरीर ÷आत्म मंदिर' है। साधना अनुष्ठान का माध्यम है, इसलिए अति मूल्यवान है। यह आत्म मंदिर संस्कारों से परिष्कृत होकर परमात्मा का वास स्थान बन सके यही संस्कारों का अभिप्राय है।

इस प्रकार संस्कार आध्यात्मिक शिक्षण के सोपान हैं। सुसंस्कारी व्यक्ति का संपूर्ण जीवन संस्कारमय होता है और सभी दैहिक क्रियाएं आध्यात्मिक विचारों से अनुप्राणित होती हैं। संस्कारों से व्यक्ति को यह विश्वास होता है कि विधियुक्त संस्कार के अनुष्ठान से वह देह बंधंन से मुक्त होकर भवसागर से पार हो सकता है। समाज के श्रेष्ठ जन सविधि संस्कारों का पालन करते हैं, अतः इतरजन भी उनका अनुसरण कर सुखी होते हैं।

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में संस्कारों का विशेष महत्व है। प्राचीन ऋषियों ने गर्भाधान से लेकर अंत्येष्ठि कर्म तक षोडश संस्कारों को एक मत से स्वीकार किया है। मनुष्य जन्म से अबोध होता है परंतु संस्कारों से उसके आंतरिक एवं बाह्य व्यक्तित्व में निखार आता है, उसका परिष्कार होता है। शास्त्र में कहा गया है-

जन्मनाजायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्यते। वेद पाठात्‌ भवेद् विप्रः ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः॥
सुख-समृद्धि चाहने वाले प्रत्येक वर्ण के गृहस्थ मनुष्य को भारतीय परंपरा का अनुसरण करना चाहिए। पाश्चात्य सभ्यता का बहिष्कार करना चाहिए। ऐसा करने से संतान मेधावी, स्वस्थ, धनी, यशस्वी एवं दीर्घायु होगी।

गर्भाधान संस्कार : इस पूरे प्रकरण में एक बात उल्लेखनीय है कि शुरू से अंत तक किसी भी ऋषि ने गर्भाधान संस्कार का त्याग नहीं किया। सभी ने इस प्रथम संस्कार को आवश्यक माना है। वर्तमान में गर्भाधान तो खूब होता है, किंतु संस्कार बिल्कुल नहीं। आज मनुष्य का गर्भाधान तो सूअरों के समान है। इस सच्चाई को कौन झुठला सकता है। आज हमने गर्भाधान संस्कार को पूरी तरह भुला दिया है। कोई इस विषय पर चर्चा करना भी पसंद नहीं करता है। यौन विषयों पर सर्वाधिक चर्चा होती है। यौन शिक्षा पर पूरे देश में बहस चलती है, किंतु गर्भाधान संस्कार की जानकरी शिक्षित समाज को भी नहीं है।
इच्छित संतान की प्राप्ति हेतु गर्भाधान करने से पूर्व पति-पत्नी को अपने मन और शरीर को पवित्र बनाने के लिए यह प्रथम संस्कार करना चाहिए। शुद्ध रज-वीर्य के संयोग से ही संस्कारवान संतान का जन्म होता है। पति व्रत धर्म और ब्रह्मचर्य के पालन से ही रज-वीर्य की शुद्धि होती है।

जिस शुभ रात्रि में जिस समय गर्भाधान करना हो उस समय पति और पत्नी स्वयं को आचमनादि से शुद्ध कर लेना चाहिए। फिर पति हाथ में जल लेकर कहे कि मैं इस पत्नी के प्रथम संस्कार के बीज तथा गर्भ संबंधी दोषों के निवारणार्थ इस गर्भाधान संस्कार क्रिया को करता हूं।
पत्नी पश्चिम की ओर पैर करके सीधी चित्त लेटे तथा पति पूर्वाभिमुख बैठकर पत्नी के नाभि स्थल को अपने दाएं हाथ से स्पर्श करता हुआ निम्न मंत्र का उच्चारण करे-
ओम पूषा भग सविता मे ददातु रुद्रः कल्पयतु ललामगुम्‌।

ओम विष्णुर्योनिकल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिथशतु, आसिंचत प्रजापतिर्धाता गर्भ दधातुते॥
(ऋग्वेद- ८/२/४२)

पुंसवन संस्कार : अथ पुंसवानम्‌ पुरा स्पन्दत इति मासे द्वितीये तृतीये वा।
(पारस्कर गृह्यसूत्र-१-१६)
गर्भ का विकास सम्यक्‌ प्रकार से हो सके, इसके लिए पुंसवन संस्कार करना चाहिए। यह संस्कार गर्भाधान के दूसरे या तीसरे मास में किया जाए।

इस संस्कार की मुख्य क्रिया में खीर की पांच आहुतियां दी जाती हैं। हवन से बची हुई खीर को एक पात्र में भरकर पति पत्नी की गोद में रखता है और एक नारियल भी प्रदान करता है। पूजा समाप्ति और ब्राह्मण भोजन कराने के पश्चात पत्नी इस खीर का प्रेमपूर्वक सेवन करती है।

सीमंतोन्नयन संस्कार : यह संस्कार भी गर्भस्थ शिशु के उन्नयन के लिए किया जाता है। यह संस्कार शिशु को सौभाग्य संपन्न बनाता है। पारस्कर गृह्यसूत्र में कहा गया है कि यह संस्कार प्रथम गर्भ में छठे अथवा आठवें मास में करना चाहिए।

इस संस्कार में हवन किया जाता है और गर्भवती स्त्री के जूड़े (सिर के बालों) में तीन कुशाएं और दो गूलर के फल लगाए जाते हैं।

प्रस्तुत विचार लेख में ज्योतिष मर्मज्ञ की उपाधि प्रदान की गई

२१०० रु का इनाम - प्रतियोगिता ३० नवम्बर से

इस प्रतियोगिता में हम हर सप्ताह दो प्रश्न पूछेंगे जिनके उत्तर आपको एक सप्ताह के अन्दर देने होंगे सही उत्तर देनेवालो में से ड्रा द्वारा एक विजेता को चुनकर उसकी जन्मपत्रिका व वर्षफल (मूल्य २१०० रु मात्र) इनाम के रूप में दिया जाएगा जिससे उसकी ज्योतिषीय समस्याओ का समाधान हो जाएगा विजेता को इसी ब्लॉग के माध्यम से सूचित किया जाएगा जैसे ही हमे उसकी जन्म तिथि प्राप्त होगी उसे उसका हल ई-मेल द्वारा भेज दिया जाएगा विजेता चाहे तो अपनी जगह किसी अन्य एक व्यक्ति का जन्मपत्री विश्लेषण व वर्षफल भी प्राप्त कर सकता हैं

सोमवार, 23 नवंबर 2009

२१०० रु का इनाम

इस प्रतियोगिता में हम हर सप्ताह दो प्रश्न पूछेंगे जिनके उत्तर आपको एक सप्ताह के अन्दर देने होंगे सही उत्तर देनेवालो में से ड्रा द्वारा एक विजेता को चुनकर उसकी जन्मपत्रिका वर्षफल (मूल्य २१०० रु मात्र) इनाम के रूप में दिया जाएगा जिससे उसकी ज्योतिषीय समस्याओ का समाधान हो जाएगा |
विजेता को इसी ब्लॉग के माध्यम से सूचित किया जाएगा |जैसे ही हमे उसकी जन्म तिथि प्राप्त होगी उसे उसका हल -मेल द्वारा भेज दिया जाएगा |विजेता चाहे तो अपनी जगह किसी अन्य एक व्यक्ति का जन्मपत्री विश्लेषण वर्षफल भी प्राप्त कर सकता हैं |

प्रतियोगिता जल्द ही शुरू की जाएगी |

आपसे कुछ अपनी बात

हमारे बहुत से पाठको को यह शिकायत हैं की मैं उनके सवालों के जवाब नही देता, इस बारे में इतना ही कहूँगा की ऐसा बिल्कुल भी नही हैं (आप सब चाहे तो रंजना जी व विजय जी से पूंछ सकते हैं) हां यह ज़रूर हैं की मैं अत्याधिक व्यस्त रहने के कारण बहुत से पाठको को संतुष्ट नही कर पाता,सच कहू तो मुझे यह बताने में बिल्कुल भी संकोच नही हैं की मैं स्वयं भी कई लोगो के पत्रों के जवाब देना नही चाहता कारण सिर्फ़ यह हैं की मैं पूर्ण रूप से ज्योतिष को समर्पित हूँ रात दिन मैं ज्योतिष से सम्बंधित कार्यो में लगा रहता हूँ ज्योतिष सम्बन्धी लेख लिखना (विभिन्न पत्र व पत्रिकाओं हेतु) ज्योतिष सम्मेलनों में हिस्सा लेना,व जन्मपत्रिकाओ का विश्लेषण व समस्या समाधान करना (औसतन ५० से ६० पत्रिकाए हर माह) यही मेरी दिनचर्या रहती हैं |

ज्योतिष मेरा पेशा हैं और हर पेशे से आदमी धन कमाता हैं जिससे उसका जीवन चलता हैं मैंने ज्योतिष की विधिवत शिक्षा व दीक्षा परम पूज्य गुरुदेव "श्री कमल श्रीमाली जी" से ली हुई हैं तथा "माँ भगवती" के आशीर्वाद व कृपा से मैं इस क्षेत्र में पिछले सात वर्षो से शोध व समाजसेवा का कार्य कर रहा हूँ |किसी भी ज्योतिषीय समाधान हेतु मेरा एक निश्चित शुल्क रखा हुआ हैं जिसके अनुसार ही मैं लोगो की समस्याओ का समाधान करता हूँ |मेरे पास औसतन 11 पत्र ,मेल व फ़ोन रोजाना आते हैं जिनमे से पहले मैं उन्ही लोगो के जवाब देता हूँ जिन्होंने मेरी फीस अदा की होती हैं तथा बाद में अन्य सभी लोगो का वह भी अगर समय मिले तो अन्यथा नही |
इस ब्लॉग को ज़ारी करने का एकमात्र कारण केवल यह था की वह लोग जो ज्योतिष जैसे विषय को नही मानते और वह लोग जो इसे जानना चाहते हैं उन्हें एक ऐसा मंच मिल सके की वह अपने उन प्रशनो के उत्तर जान सके जिनके हल उन्हें कही से मिल नही पाए हैं |अंत में मैं एक बात और कहना चाहूँगा की बहुत जल्द ही हम एक प्रतियोगिता का आयोजन करने जा रहे हैं जिसमे आपसे हर सप्ताह दो प्रश्न पूंछे जायेंगे जिसका हल आपको एक सप्ताह के अन्दर भेजना होगा सही उत्तर देने वालो में से ड्रा द्वारा एक विजेता चुनकर उसकी जन्मपत्रिका का विश्लेषण वर्षफल(मूल्य २१०० रु मात्र ) उसको इनाम के रूप में दिया जायेंगा |जिससे उन पाठको के शिकायत भी दूर हो जाएगी जिनके जवाब मैं अब तक नही दे पाया हूँ तथा इस प्रकार एक माह में चार लोगो को मुफ्त में उनकी ज्योतिषीय समस्याओ का समाधान भी मिल जाएगा तो हो जाइये तैयार इस रोचक प्रतियोगिता के लिए ..................

सोमवार, 16 नवंबर 2009

पूजन में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ



प्राय:पूजन करते व करवाते समय कर्मकांडी पंडित कुछ ऐसे शब्दों व सामग्रियो का प्रयोग करते हैं जो की समझ में नही आते हैं विशेषकर आजकल की युवा वर्ग के व्यक्तियो को जिससे कई बार अजीब सी स्थिति या परेशानी खड़ी हो जाती हैं इस विषय में कई बार मुझसे भी पूंछा जाता हैं की पंडित जी इस शब्द का क्या अर्थ हैं ? येः वस्तु क्या हैं ? इसका उपयोग व नाम क्या हैं ?आदि यह सभी शब्द आप मंत्र जप,देवपूजन,अर्चन तथा उपासना के सम्बन्ध में प्रयुक्त होते हुए सुनते हैं

प्रस्तुत लेख में मैंने ऐसे कई शब्दों के अर्थ बताने का एक छोटा सा प्रयास किया हैं


त्रिधातु -सोना,चांदी व लोहा इन तीन धातुओ को त्रिधातु कहा जाता हैं

पञ्च
धातु -सोना,चांदी,लोहा,ताम्बा व जस्ता पञ्च धातु कहलाते हैं

पंचोपचार
-गंध,पुष्प,धुप,दीप तथा नैवैध द्वारा पूजन करने को पंचोपचार कहा जाता हैं

पंचामृत
-दूध,दही,घृत(घी),मधु(शहद)तथा शक्कर इनके मिश्रण को पंचामृत कहा जाता हैं

पंचगव्य
-गाय के दूध,दही,घी,मूत्र व गोबर इन्हे सम्मिलित रूप में पंचगव्य कहा जाता हैं

पंचांग
-किसी वनस्पति के पुष्प,पत्र,फल,छाल व जड़ को पंचांग कहा जाता हैं


षोडशोपचार- आह्वान,आसन,पाद्य,अर्ध्य,आचमन,स्नान,वस्त्र,अलंकार,सुगंध,पुष्प,धुप,दीप,नैवेध, अक्षत,ताम्बुल तथा दक्षिणा इन सोलह वस्तुओ द्वारा पूजा करने को षोडशोपचार कहा जाता हैं

दशोपचार-पद्य,अर्ध्य,आचमन,मधुपक्र,गंध,पुष्प,धुप,दीप,नैवैध तथा दक्षिणा द्वारा पूजन करना दशोपचार कहलाता हैं

नैवैध
-खीर,आदि मीठी वस्तुए


नवग्रह
-सूर्य,चंद्र,मंगल,बुध,गुरु,शुक्र,शनि,राहू व केतु


नवरत्न
-माणिक्य,मोत्ती,मूंगा,पन्ना,पुखराज,हीरा,नीलम,गोमेद व लहसुनिया


गंधत्रय
-सिन्दूर,हल्दी व कुमकुम


दशांश
-दसवा भाग


आसन
-जिस वस्तु के ऊपर बैठा जाता हैं उसे आसन कहते हैं, बैठने के ढंग को भी आसन कहा जाता हैं


भोजपत्र
-एक विशेष वृक्ष की छाल जिस पर यन्त्र आदि बनाये जाते हैं

अस्ट
धातु -सोना,चांदी,लोहा,ताम्बा,जस्ता,रांगा,कांसा और पारा अस्टधातु कहलाते हैं

अस्ट
गंध-अगर,तगर,गोरोचन,केशर,कस्तूरी,श्वेत चंदन,लाल चंदन,और सिन्दूर (देव पूजन हेतु) अगर,लाल चंदन,हल्दी,कुमकुम,गोरोचन,शिलाजीत,जटामांसी,और कपूर(देवी पूजन हेतु) यह सभी वस्तुए अस्टगंध कहलाती हैं


व्रत कब नष्ट होता हैं

बार बार जलपान करने से,दिन में सोने से,स्त्री प्रसंग करने से,रोने से,क्रोध करने से,परान्न भोजन करने से,बहुभाषण करने से, झूठ बोलने से, लडाई झगडा करने से,दोषारोपण करने से,किसी को सताने से,अत्यधिक स्नेह मोह व प्रेम दिखाने से,आवशयकता से अधिक व्रत करने से,तथा व्रत काल में भोजन करने से व्रत नष्ट हो जाता हैं|

व्रत कब नष्ट नही होता-सभी प्रकार के ऋतू फल,दूध एवं दूध से बने पदार्थसे बने भोज्य पदार्थ ग्रहण करने से,हवन व पूजन पदार्थो के छू जाने से,विद्वान् वृद्धजन की इच्छा वचन का,गुरु की आज्ञा का पालन करने से तथा ज़रूरत पड़ने पर औषधि सेवन से व्रत नष्ट नही होता हैं |
व्रत करते समय यदि उचित वस्त्र, गंध,पुष्प व अन्य सामग्री ना होने पर,व भोजन में भी निश्चित भोज्य सामग्री उपलब्ध ना होने पर भी व्रत खंडित नही होता हैं |

व्रत सम्बन्धी अन्य जानकारिया

व्रत करने के नियम -व्रत करने वाले व्यक्ति को क्रोध,लोभ,मोह,आलस्य,चोरी,ईर्ष्या आदि नही करनी चाहिए |व्रती को क्षमा,दया,दान,शौच,इन्द्रिय निग्रह देव पूजा,हवन और संतोष से काम करना उचित व आवश्यक हैं |
-व्रती को आचमन करना ज़रूरी होता हैं नहाते-धोते, खाते- पीते,सोते,बाहर से आने पर,छींक लेते समय यदि आचमन किया हुआ हो तो भी दुबारा आचमन करना चाहिए |यदि जल ना मिले तो अपने दाये कान का स्पर्श कर लेना चाहिए| आचमन हाथ के पौरुओ को बराबर करके हाथ को गाय के कान जैसा बनाकर करना चाहिए |
-किसी विपत्ति,रोग,यात्रा के कारण यदि स्वयं धर्म-कर्म कर पाने में असमर्थ हो तो वायु पुराण के अनुसार पति-पत्नी,पुत्र,भाई,पुरोहित,अथवा मित्र को अपना प्रतिनिधि बनाकर उससे धर्म कर्म व व्रत करवाया जा सकता हैं| यदि इनमे से कोई भी उपलब्ध ना हो तो यह काम किसी ब्राह्मण से भी करवा सकते हैं |
-व्रत में,तीर्थयात्रा में,अध्ययन काल में तथा श्राद्ध में दुसरे का अन्न लेने से जिसका अन्न होता हैं उसी को पुण्य फल प्राप्त होता हैं, अतः अन्न स्वयं का ही प्रयोग करे |
-बहुत दिनों में समाप्त होने वाले व्रत का पहले संकल्प कर लिया हो तो उसमे सूतक व पातक नही लगता हैं|
-बड़े व्रतों का आरम्भ करने पर स्त्री रजस्वला हो जाए तो उसमे भी कोई दोष नही माना जाता हैं |
-व्रत काल में वायु के निकल जाने पर,किसी भी जानवर के छू जाने पर,रोने,हंसने,क्रोध करने व झूठ बोलने पर जल का स्पर्श करना आवश्यक होता हैं|

गुरुवार, 12 नवंबर 2009

शनिवार व्रत

यह व्रत शनि ग्रह हेतु माना व रखा जाता हैं इस दिन भगवान शनिदेव की पूजा की जाती हैं काली वस्तुए जैसे काला तिल,काला वस्त्र,काली उड़द की दाल,सरसों का तेल आदि शनिदेव को अत्यन्त प्रिय हैं इस लिए इन वस्तुओ से शनिदेव की पूजा की जाती हैं शानिदशा में कष्टों से बचने हेतु भी भगवान् शनि की पूजा व व्रत किया जाता हैं इस व्रत को करने से शनि जनित रोग (कमर पैर का दर्द,स्नायु विकार,लकवा, बालो का गिरना )शारीरिक व मानसिक रोगों तथा दीर्घकालीन रोगों से मुक्ति मिलती हैं

व्रत विधि -किसी भी शुक्ल पक्ष के पहले शनिवार से शुरू कर ११ या ५१ व्रत करे प्रात: काल स्नान करके काला वस्त्र धारण कर एक लोटे में काले तिल व लौंग मिश्रित जल पीपल वृक्ष की जड़ में पश्चिम की तरफ़ मुह करके डाले तथा शनिदेव का स्मरण करे पुरे दिन व्रत करने के बाद शाम को पीपल वृक्ष अथवा बालाजी के मन्दिर में तिल के तेल के दीपक जलाना चाहिए पूजन करने के साथ ही कथा का श्रवण भी करना चाहिए भोजन सूर्यास्त के २ घंटे बाद करे भोजन में उड़द की दाल का बना पदार्थ पहले किसी भिक्षुक को खिलाये फ़िर स्वयं ग्रहण करे गरीब व निर्धन व्यक्तियो को काला कम्बल,छाता,तिल,जूते आदि यथाशक्ति दान करना चाहिए यदि हो सके तो शनि ग्रह का मंत्र भी यथाशक्ति जपना चाहिए

शुकवार व्रत

शुक्रवार का व्रत शुक्र ग्रह हेतु, माता संतोषी,व वैभव लक्ष्मी को प्रशन्न करने हेतु किया जाता हैं|यह व्रत दांपत्य सुख, शुक्र सम्बन्धी सुखो,भोग-विलाशो की प्राप्ति तथा शुक्र जनित बीमारियो(यौन दुर्बलता,मधुमेह,कामविकार) से मुक्ति,जीवन में संतुष्टि व लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु किया जाता हैं|

व्रत विधि -शुक्ल पक्ष के प्रथम शुकवार से शुरू कर यह व्रत २१ या ३१ करने चाहिए |स्नान अदि के बाद श्वेत वस्त्र धारण कर शुक्र ग्रह की मूर्ति के समक्ष श्वेत वस्तुओ से पूजन व स्मरण करना चाहिए दिन भर व्रत करने के बाद सूर्यास्त के डेढ़ घंटे बाद पूजन व कथा श्रवण करना चाहिए| भोजन में श्वेत वस्तुए जैसे खीर चावल दूध शक्कर आदि से बने पदार्थो का भोग लगाकर, गाय को खिलाये फ़िर स्वयं ग्रहण करे|हो सके तो एक माला शुक्र ग्रह के मंत्रो की भी करनी चाहिए |

शुक्रवार के दिन किए जाने वाले अन्य व्रत (संतोषी माता व्रत वैभव लक्ष्मी व्रत ) करने की विधि अलग होती हैं |

शनिवार, 7 नवंबर 2009

दीपावली एवं मुहूर्त



पं. किशोर घिल्डियाल
मुहूर्त ज्योतिष का एक महत्वपूर्ण अंग है। सनातन धर्म संस्कृति में हर शुभ व धार्मिक कार्य मुहूर्त विश्लेषण कर ही किया जाता है।
इस भौतिकवादी युग में हर व्यक्ति कम श्रम और समय में ज्यादा से ज्यादा धन कमाना चाहता और इसके लिए कुछ भी करने को तत्पर रहता है। किंतु अथक् प्रयासों के बावजूद बहुत से लोगों को वांछित धन की प्राप्ति नहीं हो पाती। ऐसे में उन्हें उपयुक्त मुहूर्त में संबद्ध देवी देवताओं की पूजा अर्चना करनी चाहिए।
धन वैभव की कामना की पूर्ति हेतु दीपावली का पर्व सर्वाधिक उपयुक्त अवसर है। दीपावली की रात सिंह लग्न के आरंभ के समय यदि लक्ष्मी का आवाहन पूजन किया जाए तो उनकी विशेष कृपा प्राप्त होती है।
कार्तिक मास की अमावस्या तिथि महा निशा की रात को दीपावली का पर्व मनाया जाता है। इसी दिन सूर्य का तुला राशि में प्रवेश होता है। तुला राशि का स्वामी शुक्र सभी मनोकामनाएं पूरी करने वाला ग्रह है। यह कालपुरुष की कुंडली में धन व सप्तम भाव का स्वामी भी है अतः जब तुला राशि में सूर्य और चंद्र का मिलन होता है तब नैसर्गिक कुंडली के अनुसार चतुर्थेश (चंद्र) व पंचमेश (सूर्य) का मिलन होने से लक्ष्मी योग का उदय होता है। यह योग कार्तिक अमावस्या (दीपावली) को पड़ता है। इसलिए यह दिन अति धनदायक माना जाता है। इस दिन जब सिंह का आरंभ होता है तब तृतीय स्थान में सूर्य और चंद्र की युति होती है। इस युति के समय साधना उपासना करने से साधक के पराक्रम में वृद्धि होती है, उसके मार्ग में आने वाली बाधाओं का निवारण होता है और सूर्य के अपनी उच्च राशि को देखने से भाग्यवृद्धि होती है। इस दृष्टि से सिंह लग्न की महत्ता अपरंपार है। आधी रात में पड़ने के कारण इसकी विशेषता और बढ़ जाती है क्योंकि अर्धरात्रि में ही लक्ष्मी का आगमन भी माना जाता है।
÷÷अर्धरात्रे भवेव्येय लक्ष्मी राश्र््रयितुं गृहान्‌''
अर्धरात्रि में लक्ष्मीपूजन को ब्रह्मपुराण में भी श्रेष्ठ कहा गया है। सिंह लग्न के अतिरिक्त वृष लग्न को भी अच्छा माना जाता है।
विभिन्न लग्नों और मुहूर्तों के
शुभाशुभ परिणाम
मेष लग्न
इस लग्न में किए गए अनुष्ठानों से धन-धान्य में वृद्धि होती है।
वृष लग्न
इस लग्न में किया जाने वाला कार्य असफल व घातक होता है।
मिथुन लग्न
यह लग्न संतान हेतु घातक होता है।
कर्क लग्न
शुभ, सफल व सर्वसिद्धिप्रदायक होता है।
सिंह लग्न :
बुद्धि हेतु हानिकारक होता है।
कन्या लग्न
तंत्र साधना हेतु श्रेष्ठ माना गया है।
तुला लग्न
इसमें किया जाने वाला अनुष्ठान सर्वसिद्धि प्रदाता माना जाता है।
वृश्चिक लग्न
यह एक श्रेष्ठ व लग्न है और इसमें अनुष्ठान करने से स्वर्ण आदि द्रव्यों की प्राप्ति होती है।
धनु लग्न
यह एक अशुभ लग्न है।
मकर लग्न
शुभ व पुण्यदाता लग्न है।
कुंभ लग्न
इस लग्न में साधना करने से श्रेष्ठ फल की प्राप्ति होती है।
मीन लग्न
यह एक अशुभ लग्न है।
विशेष
ध्यातव्य है कि महानिशा की रात्रि अति शुभ मानी गई है, अतः इस रात्रि को किसी भी लग्न में की गई साधना का कोई दुष्परिणाम नहीं होता।
इस वर्ष कार्तिक अमावस्या दोपहर १२ बजकर ३६ मिनट पर आरंभ होगी तथा सूर्य तुला राशि में ११ बजकर २० मिनट पर भ्रमण के लिए प्रवेश करेगा। इस तरह तुला संक्रांति होने के कारण यह पूरा दिन तथा रात्रि अति शुभ मानी जाएगी। विशेष बात यह है कि चंद्र कन्या राशि में ही स्थित रहेगा।
दिन के लग्न मुहूर्त
दिन के समय धनु, मकर, कुंभ व मीन लग्न रहेंगे। इनमें धनु में अभिजित मुहूर्त ११ बजकर ४६ मिनट से १२ बजकर २८ मिनट तक रहेगा, परंतु इस बीच अमावस्या नहीं होगी। मकर लग्न में नीचस्थ गुरु राहु के साथ होगा जो अशुभ है। कुंभ लग्न में लग्नेश शनि अष्टम होगा, अतः मीन लग्न ही पूजन हेतु थोड़ा उपयुक्त है। इसके अतिरिक्त मेष, वृष व मिथुन लग्न पूजा हेतु शुभ हैं क्योंकि इन तीनों लग्नों में लग्नेशों की स्थिति अच्छी रहेगी। कहा भी गया है- ÷÷सर्वेदोषाः विनश्यन्ति लग्नशुद्धिर्यदा भवेत्‌'' अर्थात लग्न शुद्धि होने पर कोई दोष नहीं होता। वैसे भी प्रदोष काल में पूजन करना अति लाभकारी होता है। कर्क लग्न में नीचस्थ मंगल और केतु स्थिति के कारण लग्न श्रेष्ठ नहीं है। उसके बाद सिंह लग्न हर दृष्टि से उपयुक्त व श्रेष्ठ लग्न है।
जहां तक पूजा का प्रश्न है, तो व्यवसाय के अनुरूप लग्न में ही पूजा करनी चाहिए। सामान्य लोगों, वस्त्र और अनाज तथा प्रसाधन और भवन निर्माण सामग्रियों के व्यापारियों को वृष लग्न में तथा कारखानों के स्वामियों और मशीनरी व दवाओं का कारोबार करने वालों को सिंह लग्न में पूजा करनी चाहिए।
राशियों के अनुसार पूजा, मुहूर्त व लक्ष्मी मंत्र
राशि लग्न मंत्र
मेष वृष (सायं) ओम ऐं क्लीं सौः
वृष सिंह (रात्रि) ओम ऐं क्लीं श्रीं:
मिथुन वृष (सायं) ओम क्लीं ऐं सौः
कर्क वृष (सायं) ओम ऐं क्लीं श्रीः
सिंह सिंह (रात्रि) ओम ह्रीं श्रीं सौः
कन्या सिंह (रात्रि) ओम श्रीं ऐं सौं
तुला वृष (सायं) ओम ह्रीं क्लीं श्रीं
वृश्चिक सिंह (रात्रि) ओम ऐं क्लीं सौः
धनु वृष (सायं) ओम हृीं क्लीं सौः
मकर सिंह (रात्रि) ओम ऐं क्लीं ह्रीं श्रीं सौः
कुंभ सिंह (रात्रि) ओम ह्रीं ऐं क्लीं श्रीं:
मीन सिंह (रात्रि) ओम ह्रीं क्लीं सौः

पंचदिवसीय महापर्व दीपावली


पं. किशोर घिल्डियाल

दीपावली सनातन धर्म संस्कृति का सर्वाधिक लोकप्रिय पर्व है। धन-समृद्धि, खुशहाली तथा उल्लास का यह पर्व कार्तिक कृष्णपक्ष त्रयोदशी को शुरू होता है और कार्तिक शुक्ल द्वितीया तक चलता है। इसीलिए इसे पंचपर्व की संज्ञा दी गई है। इन पांच दिनों में अलग-अलग मनोकामनाओं की पूर्ति के उद्देश्य से अलग-अलग पर्व मनाए जाते हैं और अलग-अलग देवी देवताओं की पूजा आराधना की जाती है।
धनत्रयोदशी (धनतेरस)
यह पर्व मुख्यतः धन्वन्तरि की जयंती के रूप तथा अकाल मृत्यु से रक्षा हेतु मानाया जाता है। पौराणिक कथानुसार समुद्र मंथन के दौरान १४ रत्नों में एक आयुर्वेद के जनक धन्वन्तरि भी थे जो अमृतकलश लेकर प्रकट हुए थे। धनतेरस के दिन रोगमुक्त जीवन और दीर्घायु की प्राप्ति हेतु धन्वन्तरि के चित्र के समक्ष उनकी पूजा आराधना करना चाहिए और पूजा अर्चना के पश्चात्‌ इस श्लोक का यथाशक्ति पाठ करना चाहिए।
एक अन्य मत के अनुसार यह पर्व अकाल मृत्यु से रक्षा की कामना से भी मनाया जाता है। इसी उद्देश्य से इस दिन लोग आटे का चौमुखी दीया बनाकर घर के बाहर अन्न की ढेरी पर रख कर दक्षिण दिशा की ओर मुंह करके निम्नलिखित श्लोक का पाठ करते हैं।
मृत्युना दण्डपाशाभ्यां कालेन श्यामया सहं।
त्रयोदश्यां दीपदानात्‌ सूर्यजः प्रीयता मम्‌॥
इस दिन नए बरतन खरीदना शुभ माना जाता है। मान्यता है कि इस दिन बरतन खरीदने से घर में लक्ष्मी का वास होता है। इसीलिए समाज के अमीर-गरीब सभी वर्गों के लोग इस दिन एक न एक बर्तन जरूर खरीदते हैं।
नरक चतुर्दशी (छोटी दीवाली)
इस पर्व को रूप चतुदर्शी भी कहा जाता है। यह पर्व नरक की यातना से बचने और सन्मार्ग पर चलने की कामना से मनाया जाता है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व स्नान करने वाले लोगों के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और नरक की यातना से उनकी रक्षा होती है। स्नान से पूर्व अपामार्ग (चिड़चिड़ी) की लकड़ी को ७ बार सिर के चारों ओर घुमाकर निम्नलिखित श्लोक का पाठ किया जाता है।
सितालोष्ठसमायुक्तं सकण्टकलिन्वत्‌।
हर पापमपामार्ग भ्राग्यमाणः पुनः पुनः॥
स्नान के पश्चात्‌ अपामार्ग की लकड़ी को दक्षिण दिशा में विसर्जित कर दिया जाता है। सायंकाल पूर्वाभिमुख होकर चौमुखी दीप का दान किया जाता है। दीपदान करते समय निम्नलिखित श्लोक का पाठ भी किया जाताहै।
दत्तो दीपंश्र्च्चतुदर्शमां नरक प्रीप्तयेभया।
चतुर्वर्तिसमायुक्तः सर्वपापान्मुक्तये॥
हनुमान जी का अवतार भी इसी दिन हुआ था। इसलिए श्रद्धालुजन इस दिन हनुमान मंदिर में चोला चढ़ाते हैं और हनुमान चालीसा व सुंदरकांड का पाठ करते हैं
दीपावली
दीपों का यह पर्व लक्ष्मीकृपा की प्राप्ति का सबसे बड़ा दिन माना जाता है। दीपावली से अनेक कथाएं जुड़ी हैं। एक कथा के अनुसार इस दिन भगवान्‌ विष्णु ने वामनावतार लेकर बड़े कौशल से दैत्यराज बलि से लक्ष्मी को आजाद कराया था तथा दैत्यराज को यह वरदान दिया था कि कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी, चतुर्दशी व अमावस्या के दिन पृथ्वी पर उसका राज्य रहेगा और इन तीन दिनों में जो कोई भी दीपदान कर लक्ष्मी का आवाहन करेगा, लक्ष्मी उस पर अवश्य कृपा करेंगी।
दीपावली पर्व के अवसर पर कमला जयंती मनाई जाती है। इसके अतिरिक्त इस दिन गणेश, लक्ष्मी, इंद्र, कुबेर, सरस्वती, बही खाता, तुला और दीपमालिका का पूजन व आरती करने का विधान है। इससे लक्ष्मी की पूरे वर्ष भर कृपा बनी रहे।
गोवर्धन पूजा
इस दिन भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाकर समस्त गोकुल वासियों को इंद्र के प्रकोप से बचाया था। तभी सेगावर्धन पूजा की शुरुआत हुई। इस दिन विशेषकर गाय, बैल आदि पशुओं की सेवा व पूजा अर्चना की जाती है तथा गोबर से आंगन लीपकर गोवर्धन पर्वत व श्रीकृष्ण भगवान की मूर्तियां बनाकर उनका पूजन कर निम्न मंत्र से प्रार्थना की जाती है और भोग लगाया जाता है।
÷÷गोवर्धन धराधर गोकुलत्राणकारक।''
बहुबाहुकृतच्छाय गवां कोटीप्पदोभवं।''
प्रतिवर्ष गोवर्धन पूजा करने से घर में धन धान्य, पशुधन समृद्धि, घी दूध आदि की कमी नहीं होती तथा अकाल नहीं पड़ता। इसे अन्नकूट पूजन भी कहा जाता है।
भाई दूज
इस पर्व को यम द्वितीया भी कहा जाता है। पौराणिक कथानुसार इस दिन यमराज अपनी बहन यमुना के निमंत्रण पर उनके घर गए, उनके हाथ से बना भोजन किया तथा उनसे वर मांगने को कहा। यमुना ने वर मांगा कि जो भाई आज के दिन अपनी बहन के घर जाकर भोजन करे उसकी रक्षा हो अर्थात वह अकाल मृत्यु को प्राप्त नहीं हो। यमराज ने उन्हें यह वरदान दिया और चले गए। तभी से यह पर्व भाई बहनों के पर्व के रूप में मनाया जाता है। इस दिन प्रत्येक व्यक्ति को पवित्र नदी में स्नान अवश्य करना चाहिए तथा यम के दस नामों का इस श्लोक से स्मरण करना चाहिए।
यमो निहन्ता पितृ धर्मराजौ, वैवस्त्रतो
दण्डधरश्चकालः।
भूताधियो दन्तकृतानुसारी, कृतांत
एतदशनाममिर्जपेत्‌
स्नान के पश्चात बहन के घर जाकर भोजन करें व उसे यथाशक्ति भेंट इत्यादि दें। यह पर्व वस्तुतः भाई और बहन के प्रेम का प्रतीक है। इससे दोनों के बीच प्रेम प्रगाढ़ होता है और बहन का सौभाग्य तथा भाई की आयु बढ़ती है।

मुहूर्त : क्या है इसकी उपयोगिता

पं. किशोर घिल्डियाल
एक पौराणिक कथा के अनुसार माना जाता है कि पांच पांडवों में सहदेव मुहूर्त शास्त्र के ज्ञाता थे। महाभारत के युद्ध से पहले स्वयं दुर्योधन महाराज धृतराष्ट्र के कहने पर युद्ध में कौरवों की विजय हेतु शुभ मुहूर्त निकलवाने सहदेव के पास गए और सहदेव ने उन्हें शुभ मुहूर्त बताया। इस बात का पता जब भगवान कृष्ण को चला तब उन्होंने इस मुहूर्त को टालने हेतु व पांडवों की विजय के मुहूर्त हेतु अर्जुन को मोह से मुक्त करने के लिए उपदेश दिया था। इन सारे तथ्यों का उल्लेख श्रीमद्भगवत गीता में मिलता है।
अथर्ववेद में शुभ मुहूर्त में कार्य आरंभ करने का निर्देश है ताकि मानव जीवन के सभी पक्षों पर शुभता का अधिकाधिक प्रभाव पड़ सके। आचार्य वराहमिहिर भी इसकी अनुशंसा करते हैं।
मुहूर्त के संदर्भ में रामचरितमानस में एक स्थान पर उल्लेख है कि युद्ध के पश्चात्‌ जब रावण मरणासन्न अवस्था में था तब श्रीराम ने लक्ष्मण को उससे तिथि व मुहूर्त ज्ञान की शिक्षा लेने भेजा था। इस कथा से भी मुहूर्त अर्थात शुभ पल के महत्व का पता चलता है। मुहूर्त का विचार आदि काल से ही होता आया है। हमारे शास्त्रों में भी ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं जिनसे इस तथ्य का पता चलता है। श्रीकृष्ण का कंस के वध हेतु उचित समय की प्रतीक्षा करना आदि इस तथ्य को पुष्ट करते हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में भी वैज्ञानिक किसी परीक्षण हेतु उचित समय का इंतजार करते हैं। राजनेता चुनाव के समय नामांकन के लिए मुहूर्त निकलवाते हैं। इन सारे तथ्यों से मुहूर्त की उपयोगिता का पता चलता है।
यहां एक तथ्य स्पष्ट कर देना उचित है कि लग्न की शुद्धि अति महत्वपूर्ण और आवश्यक है। इससे कार्य की सफलता की संभावना १००० गुणा बढ़ जाती है।
मुहूर्त विचार में तिथियों, नक्षत्रों, वारों आदि के फलों का मात्रावार विवरण सारणी में प्रस्तुत है।
अक्सर प्रश्न पूछा जाता है कि क्या शुभ मुहर्त में कार्यारंभ कर भाग्य बदला जा सकता है? यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ऐसा संभव नहीं है। हम जानते हैं कि गुरु वशिष्ठ ने भगवान राम के राजतिलक के लिए शुभ मुहूर्त का चयन किया था, किंतु उनका राजतिलक नहीं हो पाया। तात्पर्य यह कि मनुष्य सिर्फ कर्म कर सकता है। सही समय पर कर्म करना या होना भी भाग्य की ही बात है। कार्य आरंभ हेतु मुहूर्त विश्लेषण आवश्यक जरूर है परंतु इसी पर निर्भर रहना गलत है। यदि किसी व्यक्ति को शल्य चिकित्सा करानी पड़े तो वह मुहूर्त का इंतजार नहीं करेगा क्योंकि मुहूर्त से ज्यादा उसे अपनी जान व धन इत्यादि की चिंताएं लगी रहेंगी। परंतु मुहूर्त के अनुसार कार्य करने से हानि की संभावना को तो कम किया ही जा सकता है।

शुक्रवार, 6 नवंबर 2009

गुरूवार व्रत

गुरूवार का व्रत भगवान् विष्णु व ब्रहस्पति ग्रह से सम्बंधित माना गया हैं |यह व्रत सभी व्रतों से श्रेष्ठ हैं क्यूंकि इस व्रत के करने सम्पूर्ण मनोकामनाये पूर्ण होती हैं परिवार में उन्नति,सुख,सम्पन्नता,धन,वैभव,यश,मान सम्मान तथा अन्य सभी सुखो की प्राप्ति होती हैं |इस व्रत में दिन में एक बार बिना नमक का भोजन करना चाहिए तथा पीली वस्तुओ का प्रयोग ज्यादा करना चाहिए जैसे पीले वस्त्र,फूल,चने की दाल,पीला चंदन आदि |

व्रत विधि -शुक्ल पक्ष के पहले गुरूवार से शुरू कर २१ या ५१ व्रत करने चाहिए प्रात:हल्दी मिश्रित जल से स्नान कर हल्दी का तिलक लगाकर भगवान् विष्णु का स्मरण व पूजन करना चाहिए तथा केले के पेड़ पर जल चढाना चाहिए|दिन भर व्रत कर शाम को सूर्यास्त के बाद भगवान विष्णु का पूजन कर कथा श्रवण करनी चाहिए चने की दाल से बने भोज्य पदार्थ से भोग लगाकर प्रसाद वितरण कर स्वयं प्रथम ७ ग्रास पीले भोज्य पदार्थ के ग्रहण कर अन्य पदार्थ लेने चाहिए|यदि गुरु ग्रह हेतु व्रत कर रहे हो तो एक माला गुरु ग्रह के मंत्र "ॐ ग्रां ग्रीं ग्रौ स:गुरवे नमः"की जपनी चाहिए |कुंवारी कन्याओ व पुत्र की कामना करने वाली स्त्रीयों को यह व्रत व जप अवश्य करने चाहिए |

बुधवार व्रत

बुधवार का व्रत बुध ग्रह की शान्ति व सर्वसुखो की प्राप्ति हेतु रखा जाता हैं |यह व्रत वाणी व बुद्धि दोषों,नसों,दांतों तथा त्वजा सम्बन्धी रोगों के परिहार के लिए भी किया जा सकता हैं | इस व्रत में भी भोजन एक बार ही किया जाता हैं तथा भोजन में हरी वस्तुओ का प्रयोग अधिक करना श्रेष्ठ रहता हैं |

व्रत विधि-किसी भी शुक्ल पक्ष के प्रथम बुधवार से इस व्रत का आरम्भ कर यथासंभव २१ या ४५ व्रत करने चाहिए प्रात:विधारा नामक पौधे के पत्तो से मिश्रित जल से स्नान कर शिव परिवार की पूजा व स्मरण करना चाहिए.दिन भर व्रत कर
सांझ के समय शिव परिवार की पूजा अर्चना श्वेत पुष्प,बेल पत्र,धुप,श्वेत वस्त्र व चंदन से कर बुधवार कथा का श्रवण व पाठन करना चाहिए आरती के बाद तीन तुलसी के पत्ते गंगाजल या चरणामृत के साथ ग्रहण कर हरे मूंग की दाल से बने भोजन पदार्थ से ५-७ ग्रास सेवन के बाद अन्य खाद्य पदार्थ से भोजन सूर्यास्त के आधे घंटे बाद करना चाहिए |

गुरुवार, 5 नवंबर 2009

मंगलवार व्रत

मंगलवार का व्रत भगवान हनुमान व मंगल ग्रह से सम्बंधित माना जाता हैं यह व्रत सर्वसुख,राज्य सम्मान,बल व पुत्र प्राप्ति,रक्त विकार से मुक्ति हेतु किया जाता हैं इसमे व्रत में भी केवल एक समय ही भोजन करना होता हैं |यह व्रत शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार से आरम्भ करे तथा ४५ या २१ व्रत कम से कम करे |इस व्रत में नमक का प्रयोग नही किया जाता व कथा के साथ साथ हनुमान चालीसा व सुन्दरकाण्ड का पाठ भी किया जाता हैं |

व्रत विधि -प्रात:काल स्नान आदि करके भगवान हनुमान जी का स्मरण व पूजन करे |दिन भर व्रत कर सायं काल में लाल फूल,लाल फल,लाल वस्त्र व लाल चंदन से भगवान हनुमान का पूजन व अर्चन कर,उनके सम्मुख तेल के दीपक जलाकर कथा सुने या सुनाये. सुंदर काण्ड,हनुमान चालीसा भी पढ़े,हो सके तो एक माला "ॐ क्रां क्रीं क्रौ स:भौमाय नमः"मंत्र की जपे |गुड आटे का हलवा बनाये किसी पशु को पहले खिलाये फ़िर ५ या ७ ग्रास स्वयं ग्रहण कर अन्य पदार्थ का भोजन करे|

इस व्रत को विधिपूर्वक करने से मंगल ग्रह से सम्बंधित सभी परेशानियो का भी निवारण होता हैं व जिन व्यक्तियो का विवाह मांगलिक होने की वजह से विवाह नही हो पा रहा हैं उन्हें भी काफ़ी लाभ मिलता हैं |

बुधवार, 4 नवंबर 2009

सोमवार व्रत

सोमवार का व्रत भगवान शिव से सम्बंधित माना जाता हैं यह व्रत दिन के तीसरे पहर तक होता हैं यह व्रत तीन प्रकार का होता हैं सोमवार व्रत,सौम्य प्रदोष व्रत तथा १६ सोमवार व्रत| तीनो व्रतों की विधि एक जैसी हैं परन्तु कथा तीनो की अलग अलग हैं जिनका पठन निश्चित व्रत अनुसार ही करना चाहिए |

व्रत विधि -सोमवार प्रात:स्नान आदि से निवृत हो स्वच्छ कपड़े पहन भक्ति भावना से शिव पूजन करे तथा पूर्ण दिवस व्रत रखे. संध्या को आटे से पुडी बनाकर उसमे घी और गुड मिलाकर उसका चूरमा बनाये उसके तीन हिस्से कर घी,गुड,दीप,नैवेद्द,पुंगीफल,बेलपत्र,चंदन,जनेऊ,अक्षत,पुष्प आदि से भगवान शिव का पूजन कर प्रथम हिस्सा शिवजी को दूसरा नंदी बैल या गाय को तथा तीसरा प्रसाद रूप में सभी को बांटकर स्वयं ग्रहण करे |

यह व्रत शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार से आरम्भ कर ५४ या कम से कम १० अवश्य करने चाहिए इस व्रत में फलाहार या भोजन का कोई खास नियम नही होता हैं परन्तु भोजन केवल एक समय ही करना होता हैं यह व्रत चंद्र ग्रह से भी सम्बंधित माना गया हैं यदि कुंडली में चंद्र की स्थिति अच्छी न हो तब भी सोमवार व्रत करने चाहिए इस दिन चंदन का तिलक लगाना शुभ माना जाता हैं भोजन में दही चावल व खीर के प्रथम ७ ग्रास खाने के बाद अन्य पदार्थ खाने चाहिए आमतौर से इस व्रत में दिन के तीसरे पहर में शिव पार्वती पूजन कर भोजन कर लिया जाता हैं इस व्रत को कार्तिक या सावन मास में आरम्भ करना अति शुभ होता हैं इस व्रत को कुंवारी कन्याये १६ सोमवार के रूप में गृहस्थ सौम्य प्रदोष के रूप में तथा अन्य सभी साधारण सोमवार के रूप में करते हैं यह व्रत सभी व्रतों से कम समय में लाभ प्रदान करने वाला माना गया हैं|

रविवार व्रत

रविवार का व्रत भगवान सूर्य से सम्बन्धित होता हैं |रविवार के दिन व्रत करने से मान सम्मान में वृद्धि,त्वचा व नेत्र सम्बन्धी रोगों,कुष्ठ रोगों से मुक्ति,सरकारी कार्यो से लाभ,शत्रुओ का नाश व पिता से सुख की प्राप्ति होती हैं यह व्रत सभी मनोकामनाओं की पूर्ति करता हैं |

व्रत करने की विधि -प्रात:काल स्नान आदि से निवृत हो स्वच्छ वस्त्र धारण करे पूजा के स्थान को साफ़ कर या गोबर से लीपकर भगवान सूर्य की शांतचित्त से पूर्ण श्रद्धा के साथ पूजा करे व मन ही मन जिस निमित व्रत कर रहे हैं उसका स्मरण करते सूर्य से उसे पूर्ण करने की इच्छा ज़ाहिर करे |पुरे दिन व्रत करने के बाद सायंकाल व्रत की कथा सुने व सुनाये, भगवान सूर्य की आरती कर उसके बाद व्रत का समापन करे|

यह व्रत शुक्ल पक्ष के प्रथम रविवार से किया जाता हैं
तथा इसे एक वर्ष,३० सप्ताह या कम से कम १२ रविवार तो करना ही चाहिए इस दिन एक समय का भोजन या फलाहार करना चाहिए भोजन में गुड से बना हलवा इलायची डालकर सूर्यास्त से पूर्व प्रयोग करना चाहिए स्वयं भोजन करने से पहले हलवा किसी मन्दिर,भिखारी या बच्चोमें बाँटना चाहिए, भोजन में नमक किसी भी तरह के तेल का प्रयोग ना करे जितना हो सके सात्विक भोजन ही करे प्रथम सात ग्रास हलवे के खाए फ़िर अन्य पदार्थ ग्रहण करे यदि निराहार रहने पर सूर्य छिप जाए तो दुसरे दिन सूर्योदय होने पर सूर्य को अर्ध देकर ही व्रत का समापन करे अर्थात भोजन करे|