काल पुरूष की कुंडली में षष्ठ भाव रोग भाव कहलाता है । इसलिए षष्ठेश को रोगेश भी कहते हैं । षष्ठ भाव पर काल पुरूष का पेट, आंतें (बड़ी-छोटी) और गुर्दे आदि आते हैं । इससे सीधा अभिप्राय यही है कि जातक का खाना-पीना ही उसके रोग का कारण है क्योंकि खाया-पीया पेट की आंतों से होता हुआ बाहर जाएगा । यदि वह किसी कारण पेट से बाहर पूरी तरह नहीं जा पाये तो जो मल आतों में रहेगा, सड़ेगा और रोग उत्पन्न करेगा । इसलिए षष्ठ भाव और षष्ठेश को रोग का कारक माना जाता है । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण लग्न अर्थात प्रथम भाव है । प्रथम भाव जातक के पूरे शरीर का प्रतिनिधित्व करता है । यदि किन्हीं कारणों से लग्न, लग्नेश-पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हुए तो जातक को जीवन भर रोगों का सामना करना पडेगा ।
जन्मकुंडली में
रोगों का विश्लेषण करते समय लग्न-लग्नेश, षष्ठ भाव और
षष्ठेश की स्थितियों को भली भांति जानना चाहिए, लग्न क्या है, इसमें क्या राशि
है, नक्षत्र
है और वह किस अंग और रोग का प्रतिनिधित्व करता है।
षष्ठ भाव में
क्या राशि है, नक्षत्र
है और यह किस अंग और रोग का प्रतिनिधित्व करते हैं इसी तरह इनके स्वामी
ग्रहों की स्थिति अर्थात किस भाव में किस राशि व नक्षत्र में है यह पूर्ण जानकारी
आपको जातक के रोग का विश्लेषण करने में सहयोग देगी ।
रोग की अवधि :
जन्मकुंडली में
ग्रहों की पूर्ण स्थिति की जानकारी के बाद दशा-अंतर्दशा और गोचर का विचार करने से
रोग के समय की जानकारी मिल जाती है ।
लग्नेश और
षष्ठेश की दशा में जातक को रोग होने की संभावना रहती है । यदि लग्न कमजोर है,
पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट है तो जातक को लग्नेश की दशा में रोग
हो सकता है । जब गोचर में भी लग्नेश पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट होता है
तो इस समय रोग अपनी चरम सीमा पर रहता है । गोचर में जब तक लग्नेश पाप ग्रहों के
घेरे में रहता है और जब इस घेरे से युक्त होता है उतने समय जातक को रोग का सामना
करना पड़ता है।
इसी तरह षष्ठेश
की दशा में भी जातक के रोग होने की संभावना रहती है। दशा, अंतर्दशा
और गोचर का विचार वैसे ही करना होगा, जैसे लग्नेश के
बारे में वर्णन किया गया है। इस प्रकार भावों की राशि एवं नक्षत्र स्वामियों की
दशा में भी जातक को रोग हो सकता है। यदि इनके स्वामियों की स्थिति पाप युक्त या
दृष्ट होगी और गोचर भी प्रतिकूल रहेगा तो रोग होता है ।
लग्नेश जब षष्ठ
भाव के स्वामी या षष्ठ भाव के नक्षत्र में गोचर करता है तो रोग होता है। स्वामी और
उसकी अवधि भी उतनी ही रहती है जितनी गोचर की अवधि होती है। इसके उपरांत रोग से
छुटकारा मिल जाता है ।
इसके साथ ही दशा,
अंतर्दशा के स्वामी का गोचर भी इसी प्रकार देखना होगा अर्थात् दशा/
अंतर्दशा स्वामी यदि षष्ठेश या षष्ठेश के नक्षत्र में गोचर करता है तो रोग होता है
और रोग उसी भाव से संबंधित होता है जिस भाव में ग्रह गोचर कर रहा होता है |
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