मंगलवार, 12 नवंबर 2024

पहले खुद को जाने

एक संन्यासी सारी दुनिया की यात्रा करके भारत वापस लौटा था । एक छोटी सी रियासत में मेहमान हुआ । उस रियासत के राजा ने जाकर उस संन्यासी को कहा स्वामी, एक प्रश्न बीस वर्षों से निरंतर पूछ रहा हूं। कोई उत्तर नहीं मिलता। क्या आप मुझे उत्तर देंगे?

स्वामी ने कहा निश्चित दूंगा ।

वह राजा हंसा, उसने कहा कि इतना निश्चय न दें, इतना आश्वासन न दें, क्योकि न मालूम कितने संन्यासियों से मैने पूछा है वहीं प्रश्न और उत्तर नहीं पाता हूं ।

उस संन्यासी ने उस राजा से कहा नहीं, आज तुम खाली उत्तर नहीं लौटोगे । पूछो ।

उस राजा ने कहा मैं ईश्वर से मिलना चाहता हूं और पहले ही बता दूं कृपा करके गीता के श्लोक पढ़कर समझाने की कोशिश मत करना, वह मैने काफी सुन लिया है । उपनिषद और वेदों की बातें सुनने की भी मेरी कोई इच्छा नहीं है, वे मैने सब पढ़ लिए हैं । ईश्वर को समझाने की कोशिश मत करना मैं तो सीधा मिलना चाहता हूं मिलवा सकते हो तो कह दें, हां, न मिलवा सकते हो तो कह दें, ; मैं वापस लौट जाऊंगा

यही उसने न मालूम कितने संन्यासियों से पूछा था हमेशा संन्यासी चौंक गए होंगे, लेकिन इस बार उस राजा को ही चौंक जाना पड़ा,उस संन्यासी ने कहा अभी मिलना चाहते हैं कि थोड़ी देर ठहर कर?

इसकी आशा भी न थी, अपेक्षा भी न थी । राजा थोड़ा चिंतित हुआ, सोचा उसने, शायद मेरी बात समझी नहीं गई । न मालूम यह कोई ईश्वर नाम वाले आदमी से मिलाने की बात तो नहीं समझ रहे? तो उसने कहाः माफ करिए, शायद आप समझे नहीं । मैं परम पिता परमात्मा की बात कर रहा हूं, किसी ईश्वर नाम वाले आदमी की नहीं, जो आप कहते हैं कि अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हो ?

उस संन्यासी ने कहाः महानुभाव, भूलने की कोई गुंजाइश नहीं है । मैं तो चौबीस घंटे परमात्मा से मिलाने का धंधा ही करता हूं । अभी मिलना है कि थोड़ी देर रुक सकते हैं, सीधा जवाब दें ।

उस राजा ने भी कभी सोचा नहीं था कि कोई आदमी इतनी जल्दी मिलवाने को तैयार हो जाएगा । ऐसे आपको भी कोई मिल जाए और एकदम से कह दे कि अभी मिलना है कि थोड़ी देर बाद? तो आप कहेंगे: थोड़ा मैं घर पूछ आऊं, पत्नी से, बच्चों से, इतनी जल्दी भी क्या! पता नहीं मिलने का क्या परिणाम हो । वह राजा भी थोड़ा परेशान हुआ ।

संन्यासी ने कहाः इतना परेशान क्यों होते हैं ? जब बीस साल से मिलने को उत्सुक थे और आज वक्त आ गया तो मिल लो ।

राजा ने हिम्मत की, उसने कहा अच्छा मैं अभी मिलना चाहता हूं, मिला दीजिए ।

संन्यासी ने कहा कृपा करो, इस छोटे से कागज पर अपना पता लिख दो ताकि में भगवान के पास पहुंचा दू कि आप कौन है ।

राजा ने कहा यह तो ठीक है । मुझसे भी कोई मिलता है तो पता पूछ लेता हूँ नाम, ठिकाना, परिचय । राजा ने लिखा अपना नाम, अपना महल, अपना परिचय, अपनी उपाधियां और उसे दी |

वह संन्यासी बोला कि महाशय, ये सब बातें मुझे बिल्कुल झूठ और असत्य मालूम होती है जो आपने कागज पर लिखीं |

वह राजा बोला मैं पहले ही शक में पड़ गया था कि आप आदमी कुछ गड़बड़ हो । भगवान से मिलवाने की बात इतनी आसान ! कल्पना में भी नहीं उठती थी तभी में समझ गया था कि या तो यह आदमी पागल है, और या फिर मैं पागल हूँ । यह हो क्या रहा है, यहां भगवान से मिलवाना हुआ जा रहा है ! यह मेरा ही परिचय है । मैं हूं राजा इस राज्य का । यह मेरा ही नाम है ।

उस संन्यासी ने कहा मित्र, अगर तुम्हारा नाम बदल दें तो क्या तुम बदल जाओगे ?  तुम्हारा अ नाम से ब कर दें तो फर्क पड़ जाएगा कुछ ? तुम्हारी चेतना, तुम्हारी सत्ता, तुम्हारा व्यक्तित्व दूसरा हो जाएगा ?

उस राजा ने कहा नहीं, नाम के बदलने से मैं क्यों बदलूंगा ?  नाम नाम है, मैं मैं हूँ ।

तो संन्यासी ने कहा एक बात तय हो गई कि नाम तुम्हारा परिचय नहीं है, क्योंकि तुम उसके बदलने से बदलते नहीं । आज तुम उसके बदलने से बदलते नहीं । आज तुम राजा हो, कल गांव के भिखारी हो जाओ तो बदल जाओगे ?

उस राजा ने कहा नहीं, राज्य चला जाएगा, भिखारी हो जाऊंगा, लेकिन मैं क्यों बदल जाऊंगा ? मैं तो जो हूं हूं । राजा होकर जो हूं, भिखारी होकर भी वही रहूँगा । न होगा मकान, न होगा राज्य, न होगी धन-संपत्ति, लेकिन मै? मैं तो वही रहूंगा जो मैं हूं |

तो संन्यासी ने कहाः तय हो गई दूसरी बात कि राज्य तुम्हारा परिचय नहीं है, क्योंकि राज्य छिन जाए तो भी तुम बदलते नहीं । तुम्हारी उम्र कितनी है ?

उसने कहा चालीस वर्ष ।

संन्यासी ने कहा तो पचास वर्ष के होकर तुम दूसरे हो जाओगे ?  बीस वर्ष के जब थे तब दूसरे थे ?  बच्चे जब थे तब दूसरे थे ?  जवान जब हो गए, दूसरे हो गए ?  बूढ़े जब हो जाओगे तो दूसरे ?

उस राजा ने कहा नहीं उम्र बदलती है, शरीर बदलता है, लेकिन मैं? मैं तो जो बचपन में था, जो मेरे भीतर था, वह आज भी है, कल भी रहेगा । मैं तो एक सातत्य हूं | मैं तो एक कंटीन्यूटी हूं । मेरे भीतर तो एक सतत कोई है, चेतना, जो कुछ भी कहें, जीवन कहें, वह हूं मैं ।

उस अन्यासी ने कहा फिर उम्र भी तुम्हारा परिचय नहीं रहा,शरीर भी तुम्हारा परिचय नहीं रहा फिर तुम कौन हो उसे लिख दो तो पहुंचा दू ईश्वर के पास नहीं तो मैं भी झूठा बनूँगा तुम्हारे साथ,यह कोई भी परिचय तुम्हारा नहीं है ।

राजा बोला तब तो बड़ी कठिनाई हो गई । उसे तो मैं भी नहीं जानता फिर जो मैं हूँ उसे तो मैं भी नहीं जानता । इन्हीं को मैं जानता हूँ मेरा होना ।

उस सन्यासी ने कहा फिर तो बड़ी कठिनाई हो गयी क्यूंकी जिसका मै परिचय भी न दे सकू, बता भी न सकूं कि कौन मिलना चाहता हैं तो भगवान भी क्या कहनेगे की किसको मिलाना चाहते हो ? तो जाओ पहले इसको खोज लो की तुम कौन हो और मैं तुमसे कहे देता हू कि है,जिस दिन तुम यह जान लोगे कि तुम कौन हो, उस दिन तुम आओगे नहीं भगवान को खोजने । क्योंकि खुद को जानने में वह भी जान लिया जाता हैं जो परमात्मा हैं |

वो मूर्तियों में नहीं है, और न नामों में है, और न चित्रों में, और न रूपों में, न मंदिरों में जो उसे वहां खोजता है, वह एक झूठे भगवान के पीछे दौड़ रहा है जो आदमी के द्वारा बनाया गया है । आदमी के द्वारा बनाया हुआ भगवान आदमी से बड़ा नहीं है, नहीं हो सकता है । उसमें आदमी के बनाए हुए भगवान के नाम पर झगड़े, उपद्रव, परेशानी खड़ी आदमी की सब क्षुद्रताएं, आदमी की करतूत है वह । और इसीलिए तो आदमी के बनाए हुये भगवान के नाम पर झगड़े,परेशानी खड़ी होती रही हैं हो रही हैं यह सारी जमीन बंट गई है -हिंदुओं में,मुसलमानों में, जैनों में, ईसाइयों में । आदमी - आदमी बंट गया है, खंडित हो गया है । किसके द्वारा ? आदमी के द्वारा बनाए हुए भगवान ! आदमी को तोड़ने का मार्ग बन गए हैं, जोड़ने का नहीं ।

लेकिन जो परमात्मा है, जो सत्य है, जो हम सबका जीवन है, उसे यदि हम सब जानेंगे तो मनुष्य टूटेगा नहीं, जुड़ जाएगा उसे हम जानेंगे तो प्रेम की एक धार सारे जगत में व्याप्त हो जाएगी उसे हम जानेंगे तो जीवन का अर्थ, जीवन का अभिप्राय कुछ और हो जाएगा । उस भगवान की इधर हम तीन दिनों तक बात कर रहे हैं कि उसको कैसे जाना जा सके |

लेकिन उसको हम छोड़ दे रहे हैं, इसलिए कि उसे जानने का सवाल उठता नहीं, जब तक कि हम उसे न जान लें जो हम हैं । इसलिए हम पूरी कोशिश कर रहे हैं इस बात को विचार करने की कि यह में कौन हूं? इसे कैसे जान सकूं? सच्चे धर्म का संबंध मनुष्य के सत्य को जानने से है । सच्चे धर्म की खोज, मनुष्य के भीतर जो छिपा है, उसे पहचान लेने से है और वह एक दफा पहचान लिया जाए तो वही पहचान आखिर में परमात्मा की पहचान सिद्ध होती है । उसके अतिरिक्त और कभी कहीं कोई परमात्मा न जाना गया है, न जाना जा सकता है । जो खुद को ही नहीं जानता वह और क्या जान सकेगा ?

ओशो,(अपने माहिं टटोल) 

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