जीवनसाथी जैसा कि नाम से पता चल रहा है कि इस लोक के जीवन को जीने के लिए हमें एक साथी अथवा साझेदार की आवश्यकता होती है । जन्म, मरण,परण (शादी) पूर्व निर्धारित होते हैं भले ही हमें लगे कि हमने प्रेम विवाह किया है और ईश्वर की इसमें कोइ भूमिका नहीं, तो यह मिथ्या है क्योंकि हमारा प्रेम किस व्यक्ति/महिला मे होगा ? यह भी हमारे वश में नहीं । वास्तविकता यह है कि सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड कर्म बन्धन में बंधा होता है अर्थात् हमारे इस जीवन में जीवनसाथी के रूप में केवल वही जीव (आत्मा) जुड़ेगा जिसका कि हमसे कोई पुराना लेना - देना है अर्थात् पुराने जन्म का कर्जदार अथवा पुराने जन्म का देनदार ही इस जीवन में अपने पुराने कर्मों को चुकाने के लिए जीवनसाथी बनता है । पूर्वजन्मों के हमारे कर्म ये तय करते हैं कि इस जीवन में हमें वैवाहिक सुख मिलेगा या नहीं मिलेगा और यदि मिलेगा तो उसकी प्रकृति, मात्रा, गुण कैसे होंगे ? अब प्रश्न यह उठता है कि पूर्वजन्म के कर्म तो हमें याद ही नहीं और यदि याद आ भी जाएं तो अब उसकी परिणिति किस रूप में होगी, ये कैसे जानें ?
किसी भी जातक की
जन्मपत्रिका के द्वारा उसके भूत, वर्तमान और भविष्य का अनुमान लगाया जा
सकता है । अब उसके वैवाहिक सुख और जीवनसाथी के संबंध
में सूचना उसकी जन्मपत्रिका के सप्तम भाव से और सप्तमेश की प्रकृति से लगाया जा
सकता है । उसका सूक्ष्म और सटीक अवलोकन सप्तम भाव, भावेश के
नक्षत्रों और उपस्वामी को देखकर किया जा सकता है क्योंकि सप्तम भाव एक साझेदारी को
दर्शाता है । साझेदार जिस प्रकार लाभ - हानि में हमारे साथ उत्तराधिकारी होता है ठीक
वैसे ही जीवनसाथी भी सुख-दुःख में हमारा साथ देता है । यदि सप्तम भाव और सप्तमेश
शुभ ग्रह के भाव हों और उनका सही भावों में बैठना हो एवं उन पर शुभ ग्रहों की
दृष्टि की अधिकता हो, तो कम उम्र में ही अच्छा वैवाहिक सुख
प्राप्त हो जाता है । व्यक्ति सन्तुष्टिपूर्ण तरीके से वैवाहिक जीवन गुजार लेता है
किंतु यदि सप्तम भाव के स्वामी क्रूर या पापी हों और उन पर पाप ग्रहों की दृष्टि
हो अथवा उनकी स्थिति सही नहीं हो, तो दाम्पत्य सुख नहीं मिलता है अथवा
देर से मिलता है अथवा मिलने पर असंतुष्टि बनी रहती है । वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
अधिक पढ़ाई - लिखाई करने के कारण सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव यदि किसी क्षेत्र पर
पड़ा है, तो वह वैवाहिक पक्ष ही है । वास्तव पुनः उत्पादन
का कारक गुरु ही है । शुक्र को भी प्रजनन का कारक माना जाता है किन्तु शुक्र सिर्फ भोग व आनंद को दर्शाता है,जब तक उससे गुरु संयुक्त नहीं होगा,
निषेचन नहीं होगा, क्योंकि फल का कारक गुरु है, अतः
गुरु वैवाहिक जीवन के संतान उत्पत्ति उद्देश्य की पूर्ति में सहायक है । अब गुरु
ग्रह का दोहन विद्याअर्जन में अधिक हुआ है, अतः वैवाहिक सुख
कम होता जा रहा है । यही कारण है कि अधिक पढ़ी - लिखी स्त्रियां या दम्पत्ति कम
बच्चों में विश्वास रखते हैं जबकि कम पढ़े-लिखे दम्पत्ति गुरु का प्रयोग प्रजनन से
जोड़ते हैं ।
यदि सप्तम भाव
में मेष या वृश्चिक राशि पड़े और इस भाव में मंगल बैठा हो
अथवा दृष्टिपात करे, तो जातक का जीवनसाथी बड़ा ऊर्जावान् होगा
और उसे पूर्ण सुख प्रदान करेगा । हालांकि इसे मांगलिक
दोष माना जाता है जिसके कारण वैचारिक मतभेद अथवा स्वास्थ्य संबंधी परेशानी हो सकती
है । जीवनसाथी का वर्ण लालिमा लिए हुए होगा गठीला शरीर और घुंघराले बाल हो सकते
हैं ।
यदि सप्तम भाव
में वृषभ अथवा तुला राशि पड़े तो जातक का साथी सुंदर होगा । सांसारिक विद्याओं से
परिपूर्ण होगा । उसके कलात्मक गुण होने के साथ-साथ कामुकता के गुण भी पाए जा सकते
हैं । उसकी चमड़ी चमकीली, बाल सीधे, मोटे
होने की संभावना होती है ।
यदि सप्तम भाव
में बुध अथवा कन्या राशि पड़े अथवा बुध ग्रह का निवास हो, तो
जातक के दम्पत्ति में व्यावहारिकता कूट - कूटकर भरी होगी । इनका शरीर छरहरा होगा अथवा
उसमें वही तेजी से परिवर्तन होता रहेगा ।
यदि सप्तम भाव
में धनु अथवा मीन हो अथवा गुरु स्थित हो, तो जातक को
बुद्धिमान किंतु अपनी चलाने वाला दम्पति प्राप्त होता है । ऐसे में जातक उसकी
बुद्धिमत्ता का कायल होते हुए भी उसकी प्रशंसा नहीं कर पाता अधिकांशतः गौरवर्ण
अथवा स्थूल शरीर वाला होगा ।
यदि सप्तम भाव
में कुम्भ या अथवा शनि स्थित हो, तो जातक का जीवनसाथी धीरे किंतु ठोस
कदम चलने वाला होता है किन्तु आश्चर्य की बात है कि ऐसे में लग्नेश या तो कर्क
(चंद्रमा) या सिंह सूर्य होगा अतः विपरीत विचारधारा होने के कारण वैवाहिक सुख में
कमी पाई जाती है । यही स्थिति सप्तम भाव में सिंह अथवा कर्क राशि की
पड़ने अथवा सूर्य, चंद्रमा की स्थिति होने पर भी देखा
जाता है । यद्यपि इन सभी फलों पर दृष्टि, दशा, गोचर
आदि का प्रभाव अस्त, वक्री अवस्था का प्रभाव पड़ता है ।
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