प्रश्न - श्राद्द किसे कहते हैं ?
उत्तर – श्रद्धा
से किया जानेवाला वह कार्य, जो पितरोंके निमित्त किया जाता है,
श्राद्ध कहलाता है ।
प्रश्न - कई लोग
कहते हैं कि श्राद्धकर्म असत्य है और इसे ब्राह्मणों ने ही अपने लेने - खानेके
लिये बनाया है । इस विषय पर क्या विचार है ?
उत्तर – श्राद्ध
कर्म पूर्णरूपेण आवश्यक कर्म है और शास्त्रसम्मत है । हाँ, वर्तमानकाल
में लोगों में ऐसी रीति ही चल पड़ी है कि जिस बात को वे समझ जायँ वह
तो उनके लिये सत्य है; परंतु जो विषय उनकी समझ के बाहर हो,
उसे वे गलत कहने लगते हैं ।
कलयुग काल के लोग प्रायः स्वार्थी हैं,उन्हें दूसरे का
सुखी होना सुहाता नहीं । स्वयं तो मित्रों के बड़े - बड़े भोज स्वीकार
करते हैं, मित्रों को अपने घर भोजन के लिये
निमन्त्रित करते हैं, रात - दिन निरर्थक
व्यय में आनन्द मनाते हैं,
परंतु श्राद्ध कर्म में एक ब्राह्मण को भोजन कराने में भार अनुभव
करते हैं । जिन माता - पिता की जीवन भर
सेवा करके भी ऋण नहीं चुकाया जा सकता, उनके पीछे भी
उनके लिये श्राद्ध कर्म करते रहना आवश्यक है ।
प्रश्न -
श्राद्ध करने से क्या लाभ होता है ?
उत्तर – मनुष्यमात्र
के लिये शास्त्रों में देव - ऋण, ऋषि - ऋण और पितृ – ऋण ये तीन ऋण बताये
गये हैं । इनमें श्राद्ध के द्वारा पितृ - ऋण उतारा जाता है ।
विष्णुपुराण कहा गया हैं की श्राद्द से तृप्त होकर पितृगण
समस्त कामनाओं को
पूर्ण कर देते हैं ।
इसके अतिरिक्त
श्राद्धकर्ता से विश्वेदेवगण, पितृगण, मातामह तथा
कुटुम्बीजन - सभी सन्तुष्ट रहते हैं । पितृपक्ष (आश्विनका कृष्णपक्ष) में तो
पितृगण स्वयं श्राद्ध ग्रहण करने आते हैं तथा श्राद्ध मिलने पर प्रसन्न होते हैं
और न मिलनेपर निराश हो शाप देकर लौट जाते हैं । विष्णुपुराण में पितृ गण कहते हैं हमारे
कुल में क्या कोई ऐसा बुद्दिमान धन्य
पुरुष उत्पन्न होगा जो धन के लिए लोभ को त्याग कर हमारे लिए पिंड दान करेगा | इसी विष्णुपुराण मे श्राद्ध कर्म के
सरल से सरल उपाय बतलाये गये हैं । अत: इतनी सरलता से होने वाले कार्य को त्यागना
नहीं चाहिये ।
प्रश्न – पितरों
को श्राद्ध कैसे प्राप्त होता है ?
उत्तर - यदि हम
चिट्ठी पर नाम - पता लिखकर डाक
पेटी (लैटर बॉक्स) में डाल दें तो वह अभीष्ट को, वह
जहाँ भी है, अवश्य मिल जायेगी । इसी प्रकार जिनका नामोच्चारण किया
गया है, उन पितरों को, वे जिस जगह अथवा जिस योनि में भी हों,
श्राद्ध प्राप्त हो जाता है । जिस प्रकार सभी पत्र पहले बड़े डाक घर में
एकत्रित होते हैं और फिर उनका अलग - अलग विभाग होकर उन्हें अभीष्ट स्थानों में
पहुँचाया जाता है, उसी प्रकार अर्पित पदार्थ का सूक्ष्म
अंश सूर्य - रश्मियों के द्वारा सूर्य लोक में पहुँचता है और वहाँ से बँटवारा होता
है तथा अभीष्ट पितरों को प्राप्त होता है ।
पितृपक्ष में
विद्वान् ब्राह्मणों के द्वारा आवाहन किये जाने पर पितृगण स्वयं उनके शरीर में
सूक्ष्म रूप से स्थित हो जाते हैं । अन्न का स्थूल अंश ब्राह्मण खाता है और
सूक्ष्म अंश को पितर ग्रहण करते हैं ।
प्रश्न - यदि
पितर पशु – योनि में हों, तो उन्हें उस योनि के योग्य आहार हमारे
द्वारा कैसे प्राप्त होता है ?
उत्तर – विदेश में
हम जितने रुपये भेजें, उतने ही रुपयों का डालर आदि (देशके
अनुसार विभिन्न सिक्के) होकर अभीष्ट व्यक्ति को प्राप्त हो जाते हैं । उसी प्रकार
श्रद्धा पूर्वक अर्पित अन्न पितृगण को, वे जैसे आहार के
योग्य होते हैं, वैसा ही होकर उन्हें मिलता है ।
प्रश्न - यदि
पितर परम धाम में हों, जहाँ आनन्द – ही - आनन्द है, वहाँ
तो उन्हें किसी वस्तु की भी आवश्यकता नहीं है । फिर उनके लिये किया गया श्राद्ध
क्या व्यर्थ चला जायेगा ?
उत्तर – नहीं,जैसे हम दूसरे शहर में अभीष्ट व्यक्तिको कुछ रुपये
भेजते हैं, परंतु रुपये वहाँ पहुँचने पर पता चले कि अभीष्ट
व्यक्ति तो मर चुका है, तब वह रुपये हमारे पास वापस होकर हमें ही
मिल जायेंगे ।
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