शनिवार, 23 सितंबर 2023

कुल परम्परा का परिचय

 

प्रत्येक सनातन धर्मलम्बी को अपनी कुल परम्परा का सम्पूर्ण परिचय निम्न 11 (एकादश) बिन्दुओं के माध्यम से ज्ञात होना चाहिए

1) गोत्र

2) प्रवर

3)  वेद

4) उपवेद

5) शाखा

6) सूत्र

7)  छन्द

8) शिखा

9)  पाद 

10) देवता

11) द्वार

​1) गोत्र - गोत्र का अर्थ है कि वह कौन से ऋषिकुल का है या उसका जन्म किस ऋषिकुल से सम्बन्धित है |किसी व्यक्ति की वंश - परम्परा जहां से प्रारम्भ होती है, उस वंश का गोत्र भी वहीं से प्रचलित होता गया है | हम सभी जानते हें की हम किसी न किसी ऋषि की ही संतान है, इस प्रकार से जो जिस ऋषि से प्रारम्भ हुआ वह उस ऋषि का वंशज कहलाया |

इन गोत्रों के मूल ऋषि हैं विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप - इन सप्तऋषियों और आठवें ऋषि अगस्त्य की संतान गोत्र कहलाती है अर्थात जिस व्यक्ति का गोत्र भारद्वाज है, उसके पूर्वज ऋषि भारद्वाज थे और वह व्यक्ति इन्ही ऋषि का वंशज है | इन गोत्रों के अनुसार हर इकाई को पहचान मिली इस प्रकार कालांतर में ब्राह्मणो की संख्या बढ़ते जाने पर पक्ष ओर शाखाये बनाई गयीं | इस तरह इन सप्त ऋषियों पश्चात उनकी संतानों के विद्वान ऋषियों के नामो से अन्य गोत्रों का नामकरण हुआ यथा पाराशर गोत्र वशिष्ट गोत्र से ही संबंधित है |

2) प्रवर

प्रवर का अर्थ हे 'श्रेष्ठ" ! अपनी कुल परम्परा के पूर्वजों एवं महान ऋषियों को प्रवर कहते हें ! अपने कर्मो द्वारा ऋषिकुल में प्राप्‍त की गई श्रेष्‍ठता के अनुसार उन गोत्र प्रवर्तक मूल ऋषि के बाद होने वाले व्यक्ति, जो महान हो गए वे उस गोत्र के प्रवर कहलाते हें ! इसका अर्थ है कि आपके कुल में आपके गोत्रप्रवर्त्तक मूल ऋषि के अनन्तर तीन अथवा पाँच, अन्य ऋषि भी विशेष महान हुए थे, जिन्होने अपनी पहचान बनायी और उनका नाम आगे चल निकला !

3) वेद -

वेदों का साक्षात्कार ऋषियों ने प्राप्त किया है, इनको सुनकर  कंठस्थ किया जाता है, इन वेदों के उपदेशक गोत्रकार ऋषियों के जिस भाग का अध्ययन, अध्यापन, प्रचार प्रसार, आदि किया, उसकी रक्षा का भार उसकी संतान पर पड़ता गया इससे उनके पूर्व पुरूष जिस वेद के ज्ञाता थे तदनुसार उसी वेद के वेदाभ्‍यासी कहलाते हैं ! प्रत्येक  का अपना एक विशिष्ट वेद होता है, जिसे वह अध्ययन - अध्यापन करता है !

4) उपवेद -

प्रत्येक वेद से सम्बद्ध विशिष्ट उपवेद भी होता है, जिसका ज्ञान होना चाहिये !

5)  शाखा -

वेदो के विस्तार के साथ ऋषियों ने प्रत्येक गोत्र के लिए एक वेद के अध्ययन की परम्परा डाली है, कालान्तर में जब एक व्यक्ति उसके गोत्र के लिए निर्धारित वेद पढने में असमर्थ हो जाता था तब ऋषियों ने वैदिक परम्परा को जीवित रखने के लिए शाखाओं का निर्माण किया ! इस प्रकार से प्रत्येक गोत्र के लिए अपने वेद की उस शाखा का पूर्ण अध्ययन करना आवश्यक कर दिया गया ! इस प्रकार से उन्‍होने जिसका अध्‍ययन किया, वह उस वेद की शाखा के नाम से पहचाना जाने लगा !

6)  सूत्र -

प्रत्येक वेद के अपने अपने प्रकार के सूत्र हैं 1. श्रौत सूत्र और 2. ग्राह्य सूत्र ! यथा  शुक्ल यजुर्वेद का कात्यायन श्रौत सूत्र और पारस्कर ग्राह्य सूत्र है !

7) छन्द -

तदानुसार ही प्रत्येक ब्राह्मण के कुल का अलग छन्द भी दिया गया, अतः प्रत्येक ब्राह्मण को अपने परम्परागत   छन्द का भी ज्ञान होना चाहिए !

8) शिखा -

अपनी कुल परम्परा के अनुरूप ब्राह्मणों को अपनी शिखाबंधन का भी ज्ञान होना चाहिए ! शिखा को दक्षिणावर्त अथवा वामावार्त्त रूप से बांधने  की परम्परा शिखा कहते हैं, इसे जानना हर कुलीन ब्राह्मण को अावश्यक होता है !

9)  पाद -

अपने-अपने गोत्रानुसार उसके सदस्य अपना पाद प्रक्षालन भी करते हैं ! यह भी अपनी एक अलग पहचान बनाने के लिए ही बनाया गया एक नियम है ! अपने -अपने गोत्र के अनुसार ब्राह्मण लोग पहले अपना बायाँ पैर धोते हैं, तो किसी गोत्र के लोग पहले अपना दायाँ पैर धोते हैं, इसे ही पाद प्रक्षालन कहते हैं !

10) देवता -

प्रत्येक वेद या शाखा का पठन, पाठन करने वाले उसी शाखा के वेद के आराध्य देव की अाराधना करते हैं ! वही उनका कुल देवता {विष्णु, शिव, दुर्गा,सूर्य इत्यादि देवों में से कोई एक} उनके आराध्‍य देव होते हैं !

11)  द्वार -

यज्ञ मण्डप में अध्वर्यु (यज्ञकर्त्ता) जिस दिशा अथवा द्वार से प्रवेश करता है अथवा जिस दिशा में बैठता है, वही उस गोत्र वालों की द्वार या दिशा कही जाती है !

श्रोत स्मार्त हमारी मूल वैदिक परंपरा हे !

शैव, वैष्णव,शाक्त विगेरे इष्टदेव प्राधान्य दर्शाता है, परन्तु स्वधर्म स्वशाखा में से ही इन पांच इष्ट में से ही एक ही इष्टदेव हो सकते हैं,परंपरा तो सबकी स्मार्त ही है जो मूल वैदिक है ! पंथवादिमतवादी, में फँस कर हिंदू बिखर गये हैं, स्मार्त सब को एक जुट बनाता हे !

स्व शाखा के ग्रंथों का पठन मनन चिंतन आचरण और उन पर कहे सुने प्रवचन व्याख्या और विस्तार ही सत्संग है !

सनातन संस्कृति की चार पीठ मूल वैदिक पीठ है वह केवल शांकर पीठ नही, मूल वैदिक पीठ है ! यह चारों पीठ ही हमारी मुख्य धारा है, हम सब उनकी शाखा हैं !

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