भारतीय ज्योतिष में वैसे तो हर क्षण का महत्व है । किसी न किसी रूप में उसका सामंजस्य मानव जीवन के साथ जुड़ा हुआ है परन्तु तिथियों तथा वार का कुछ विशेष महत्व मानव की दिनचर्या से जुड़ा हुआ है । इसीलिए प्रत्येक तिथि तथा वार के व्रत, अनुष्ठान आदि संपन्न करने का विधान है । हमारे शास्त्रों में सप्ताह के सातों दिनों का व्रत करने का विधान अनादि काल से चला आ रहा है । सामान्यजन उसे करते भी आ रहे हैं परन्तु इन व्रतों के पीछे क्या वैज्ञानिकता है, क्या रहस्य छिपा हुआ है, क्या लाभ और क्या हानि हो सकती है, क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए ? इनके बारे में लोग अनभिज्ञ हैं वे केवल परम्परागत विधान से ही व्रतों को करते आ रहे हैं । उदाहरण के लिए रविवार का व्रत भगवान सूर्य का व्रत है यह नेत्ररोग, कुष्ठादि चर्म व्याधियों को नष्ट कर आयु तथा सौभाग्य की वृद्धि करता है । इसे कब आरंभ करना चाहिए, इसके बारे में सामान्यतः लोगों को जानकारी नहीं रहती ।
शास्त्रीय मत से
इस व्रत का शुभारंभ शुक्लपक्ष के प्रथम रविवार से प्रारंभ कर, एक
वर्ष पर्यन्त कम से कम द्वादश व्रत करना चाहिए । व्रत के दिन केवल गेहूं की रोटी,
गुड़ से बना दलिया, घृत, शक्कर आदि लिया
जा सकता है । सूर्य का मंत्र 'ऊं ह्रां ह्रीं ह्रौं सः सूर्याय नमः'
यथा शक्ति जपना चाहिए । रविवार की कथा तथा सूर्य को गन्ध, अक्षत,
लाल फूल, दूर्वायुक्त जल से अर्घ्य के साथ अर्पण
करना चाहिए । इसके लिए इस मंत्र का प्रयोग करें -
'नमः सहस्त्रकिरण
सर्वव्याधि विनाशन ।
गृहाणार्घ्यं
मया दत्तं संज्ञया सहितो रवे ॥'
अर्घ्य के
पश्चात अपने स्थल पर ही प्रदक्षिणा कर लाल चंदन का तिलक लगायें | इसके उद्यापन
के समय ब्राह्मण दम्पत्ति को भोजन कराने के पश्चात लाल वस्त्र, फल
पुष्पादि सहित दक्षिणा प्रदान श्रेयस्कर होता है । व्रत तथा दान दोनों का विधान
प्राणी के आयु का संवर्द्धन तथा जीवन को गतिशील बनाता है ।
इसी प्रकार
सोमवार का व्रत भगवान शिव के लिए समर्पित है । इस व्रत को श्रावण, चैत्र,
वैशाख, कार्तिक या मार्गशीर्ष के महीनों के
शुक्लपक्ष के प्रथम सोमवार से आरंभ करना चाहिए । इसे पांच वर्ष, चौदह
वर्ष अथवा 16 वर्ष करने का विधान हैं । यदि कोई व्यक्ति
चैत्र शुक्ल अष्टमी, आर्द्रा नक्षत्र, सोमवार
अथवा श्रावण मास के प्रथम सोमवार को इस व्रत का आरंभ करता है तो विशेष श्रेयस्कर
होता है । भगवान शिव का पंचाक्षर मंत्र - ऊं नमः शिवाय श्वेत फूल, सफेद
चंदन, पंचामृत, अक्षत, बिल्वपत्र
आदि से 'षोडषोपचार' पूजन करने तथा
दान करने के पश्चात एक समय नमक रहित भोजन करना चाहिए । व्रत का
उद्यापन भी इन्हीं मासों में करना श्रेयस्कर होता है । उद्यापन के लिए जप का
दसमांश हवन, सफेद पदार्थ, दूध-दही,
खीर आदि श्वेत फलों का दान करना चाहिए। यह व्रत मानसिक शांति, धन,
पुत्र आदि की सुखों की प्राति के लिए श्रेयस्कर होता है ।
इसी क्रम में
मंगलवार का व्रत सभी प्रकार के सुखों के साथ रक्त सम्बन्धी विकार, शत्रु
बाधा निवारण, स्वास्थ्य की रक्षा, पुत्र
प्राप्ति के लिए किया जाता है इस व्रत को शुक्लपक्ष के प्रथम मंगलवार से आरंभकर 21
सप्ताह अथवा जीवनपर्यन्त किया जा सकता है । मंगलवार के व्रत में गेहूं और गुड़
सहित भोजन का विधान है भोजन नमक रहित एक समय ही करना चाहिए इस व्रत को करने से 'मंगलदोष'
के अरिष्ट की भी शांति होती है । व्रत में लाल पुष्प, फल,
तांबे के बर्तन में नारियल आदि के द्वारा हनुमान जी का पूजन कर दान
करना श्रेयस्कर होता है |
यदि किसी का
मंगल अच्छा नहीं है तो उसे 'ऊं क्रां क्रीं, क्रौं
सः भौमाय नमः ' का जाप करना चाहिए। इस व्रत में गुड़, पीले
लड्डुओं तथा लाल वस्त्र के दान का विशेष महत्व है । व्रत के साथ ही उनसे सम्बन्धित
मंत्रों का अपना एक वैज्ञानिक महत्व हैं ।
अढ़ाई दिन में
चंद्रमा एक राशि को छोड़ता है उसकी कलाएं हर क्षण बदलती रहती हैं। सूर्य की गति भी
परिवर्तित होती रहती है । ग्रहों का भी चक्र गतिमान रहता है । ऐसी स्थिति में
प्रत्येक वार का अलग-अलग प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता है ।
व्रत की स्थिति
में उसका मानसिक संतुलन बना रहता है जिससे शरीर के अंदर निहित रक्त का संचार
ग्रहों के कारण प्रभावित नहीं हो पाता । मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्परिणामों से बच
जाता है । इसलिए अपने जन्म कुण्डली के आधार पर जिसे जिस वार का व्रत करना
श्रेयस्कर हो, उसे करना चाहिए ।
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