यदि योग और ज्योतिष का गंभीरता पूर्वक अध्ययन किया जाय तो इन दोनों मे बहुत अधिक साम्यता देखने को मिलती हैं । योग क्रिया पर आधारित एक प्रकार की साधना है और क्रिया ज्योतिष के मान बिन्दुओं पर आधारित होती हैं । ज्योतिष के आधार पर अपनायी गयी क्रिया कभी निष्फल नहीं होती है, इसीलिए प्रत्येक क्रिया में मुहूर्त का विशेष महत्व है । यदि ब्राह्म मुहूर्त में योग साधना की जाय तो उसका फल अनुकूल होगा परन्तु यदि मध्याह्न अथवा असमय में योग क्रिया की जाय तो निष्फल सिद्ध होगी । जिस प्रकार सूर्य और चन्द्र ज्योतिष के नियामक हैं उसी प्रकार से ये योग के भी नियम हैं ।
सूर्य प्राणवायु
हैं और चन्द्र अपानवायु ये प्राण और अपानवायु ही योग विद्या की कारक है । ज्योतिष
में जिस प्रकार स्वस्थ रहने के बारे में कुण्डली के विभिन्न भावों का अध्ययन किया
जाता है, उसी
प्रकार योग में स्वास्थ्य के प्रति सचेष्ट रहना योगी का प्रथम सोपान हैं । ज्योतिष
में मन का कारक चन्द्रमा है चन्द्रमा के कारण ही मस्तिष्क में उतार-चढ़ाव और पृथ्वी पर ज्वार भाटे की
स्थिति पैदा होती है । योगी इसी मन को प्राण और अपानवायु का सहारा लेकर स्थिर करने
का प्रयास करता है । वह स्थिर तन को स्वस्थ, मन को स्थिर और आत्मा को परमपद में प्रतिष्ठित
करने अथवा मृतत्व को प्राप्त करने का अमोघ साधन तथा महाज्ञान मानता है । हठ योग
में आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि
के साथ-साथ कुण्डलिनी जागरण,
मुद्राबन्ध आदि अभ्यास, षटचक्रभेदन, नादानुसांधान
तथा अमृतपान आदि पर विशेष बल दिया जाता है । हम जानते हैं कि शरीर का प्रत्येक भाग
रक्त, मज्जा, हड्डी, सहस्त्रार, आज्ञाचक्र, कण्ठचक्र, विशुद्धचक्र, अनहतनाद, मूलाधार तक सभी ग्रहों
के स्थान हैं और विभिन्न ग्रहों के आधार पर विभाजित हैं । नाभि, योनि द्वार, जंघा, उरु आदि सभी नौ
ग्रहों तथा उनके अधिष्ठात्री देवताओं के आधार पर विभाजित हैं ।
जिस प्रकार
ज्योतिष में सूर्य की प्रधानता है उसी प्रकार नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि स्थित
कर कौटि सूर्य का प्रकाश का ध्यान करने से दीर्घजीवी होने तथा हठात् ज्योतिर्मय
शिव स्वरूप को प्राप्त करने की योगसाधना वर्णित है । हठ योग में जिस प्रकार बिन्दु, पवन और मन की
स्थिरता को महत्व दिया गया है, जिस प्रकार प्राणवायु, सूर्यनाड़ी और
चन्द्र नाड़ी को बन्द कर सुषुप्रा में योगी मन को स्थिर करता है, सुषुम्ना
मध्यवर्तनी ब्रह्मनाड़ी के मुख को खुला पाकर वायु उसी मार्ग से उर्ध्वगमन करती है, कुण्डलिनी
प्राणवायु के निरोध से ऊपर उठती है, षडचक्र वेधन करती है उसी प्रकार ज्योतिष में
सूर्य ग्रहराज माना जाता है,
उसी के प्रकाश से चन्द्रमा प्रकाशित है । चन्द्रमा का पुत्र बुध और
सूर्य का पुत्र शनि हमारे जीवन
मे अपना विशेष महत्व रखता है । मंगल भूमि पुत्र तथा राहु और केतु एक ही
शरीर के दो भाग हमेशा वक्री फल देते हैं,गुरु और शुक्र ज्ञान के कारक ग्रह हैं । जिस
प्रकार ब्रह्माण्ड में आकाश,
वायु, तेज, जल और पृथ्वी का
समावेश है उसी प्रकार मुख,
दो नेत्र, दो
कान, दो
नासारंध्र एक उपस्थ और एक गुदा शरीर के नौ दरवाजे और ब्रह्मा विष्णु, रुद्र, ईश्वर तथा
सदाशिव विद्यमान रहते हैं । जिनकी अनुभूति एवं संतुलन के आधार पर योगी साधना की
पराकाष्ठा तक पहुंचता है ।
इस प्रकार हम
देखते हैं कि योग और ज्योतिष परस्पर एक दूसरे के पूरक हैं । एक अच्छे साधक को
ज्योतिष का ज्ञान होना आवश्यक है ।
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