मुद्रा विज्ञान, तत्व विज्ञान पर आधारित है । हमारा शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है - अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी व जल तत्व । हाथ की पांचों भिन्न-भिन्न अंगुलियां भिन्न-भिन्न तत्वों का प्रतिनिधित्व करती हैं; जैसे कि अंगूठा अग्नि तत्व, तर्जनी अंगुली वायु तत्व, मध्यमा आकाश तत्व, अनामिका पृथ्वी तत्व तथा कनिष्ठिका जल तत्व का प्रतिनिधित्व करती है । हमारा स्वास्थ्य शरीर में पाए जाने वाले पांचों तत्वों के सन्तुलन पर निर्भर करता है । जब ये पांचों तत्व सम अवस्था में होते हैं तब हम स्वस्थ होते हैं । यदि शरीर में इनका सन्तुलन बिगड़ता है तो हम अस्वस्थ हो जाते हैं । आसनों की भांति मुद्राएं हमारे शरीर में इन तत्वों को सन्तुलित कर हमें स्वस्थ रखने में सहायक हैं ।
दूसरी ओर ध्यान
के अभ्यास में भी मुद्राओं का एक विशेष महत्व है । हमारे शरीर में रीढ़ पर
सुषुम्ना नाड़ी पर पांच चक्र - मूलाधार, स्वाधिष्ठान,
मणिपुर, अनाहत व विशुद्धि चक्र स्थित हैं । ये
चक्र सूक्ष्म ऊर्जा के केन्द्र कहलाते हैं । यहां से असंख्य सूक्ष्म नाड़ियां व
उपनाड़ियां निकल कर हमारे स्थूल व सूक्ष्म शरीर में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को प्रवाहित
करती हैं । हमारे ये पांचों चक्र क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि,
वायु व आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं । जब शरीर में पांचों
तत्व सन्तुलित होते हैं तो साधक इन चक्रों को जाग्रत कर ध्यान की गहराई में डूबने
लगता है । इस महान कार्य में सफलता पाने के लिए हमारे आध्यात्मिक जीवन में
मुद्राएं एक बड़ी भूमिका निभा सकती हैं । साधक पहले पांचों तत्व मुद्राओं का
अभ्यास अपनी जरूरत के अनुसार शरीर में तत्वों का सन्तुलन करने के लिए कर सकता है
पश्चात्, पांचों प्राणों - समान प्राण, अपान
प्राण, उदान प्राण, व्यान प्राण,
मुख्य प्राण को सम अवस्था में रखने के लिए प्राण-मुद्राओं का अभ्यास
करना चाहिए । ध्यान में जाने के लिए इसके अतिरिक्त कुछ विशेष आध्यात्मिक मुद्राएं
हैं जैसे कि ज्ञान मुद्रा, ध्यान मुद्रा, ब्रह्मांजलि
मुद्रा, चिन मुद्रा, चिन्मय मुद्रा,
आदि मुद्रा, षण्मुखी मुद्रा, खेचरी
मुद्रा, शाम्भवी मुद्रा, अगोचरी मुद्रा
तथा आकाशी मुद्रा व नमस्कार मुद्रा इनके सन्तुलित होने पर साधक को शारीरिक व
मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है । जब साधक तत्व व प्राण-मुद्राओं का अभ्यास कर
शारीरिक व मानसिक स्थिरता प्राप्त कर लेता है तो उसके लिए ध्यान में जाना सहज हो जाता
है । तत्व मुद्राओं में ज्ञान मुद्रा, वायु मुद्रा,
आकाश मुद्रा, शून्य मुद्रा, पृथ्वी
मुद्रा, सूर्य मुद्रा, वरुण मुद्रा व
जलोदर नाशिनी मुद्रा आती हैं । इस प्रकार प्राण मुद्राओं में प्राण मुद्रा,
अपान मुद्रा, व्यान मुद्रा, उदान
मुद्रा व समान मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है । यहां पर हम कुछ महत्वपूर्ण उन
आध्यात्मिक मुद्राओं की चर्चा करेंगे जो साधक को ध्यान में ले जाने में सहायक हैं,
जिनका विवरण नीचे दिया गया है |
ज्ञान मुद्रा - ज्ञान
मुद्रा की गिनती तत्व मुद्रा तथा आध्यात्मिक मुद्रा दोनों में होती हैं
। अंगूठा परमात्मा का प्रतीक है और तर्जनी आत्मा की । ज्ञान मुद्रा से आत्मा का
परमात्मा से मिलन होता है । अंगूठे और तर्जनी अंगुली के अग्रभाग को मिलाएं बाकी
तीनों अंगुलियां सीधी रखें । दोनों हाथों से यह बनाते हुए हथेलियों का पृष्ठ भाग
घुटनों पर रख लें। मुद्रा लगाने का सर्वोत्तम आसन पद्मासन, सिद्धासन
व सुखासन हैं । इसे 15 मिनट से 45 मिनट तक करें। जितना अधिक समय लगाएंगे, उतना
ही लाभ भी मिलेगा। अंगूठे के अग्रभाग में मस्तिष्क व पिच्यूटरी ग्रन्थि के दबाव
बिन्दु होते हैं और तर्जनी के अग्रभाग पर मन का बिन्दु है । जब इन दोनों का
हल्का-सा स्पर्श करते ही हल्का दबाव बनता है तो मन, मस्तिष्क और
पिच्यूटरी ग्रन्थि-तीनों जाग्रत होते हैं । फलस्वरूप मानसिक स्वच्छता आती है तथा
मन शान्त होता है । इस मुद्रा के अभ्यास से ध्यान में जाना सहज हो जाता है ।
नमस्कार मुद्रा -
नमस्कार मुद्रा का प्रयोग प्रार्थना, ध्यान, मन्त्रोच्चारण
या किसी अतिथि/ परिचित के स्वागत-सम्मान हेतु किया जाता है । किसी भी ध्यान के आसन
जैसे कि पद्मासन, सिद्धासन या सुखासन में बैठें । दोनों
हाथ नमस्कार मुद्रा में जोड़ लें । अंगूठे का मूल भाग छाती से लगा हो । अंगुलियां
ऊपर की ओर सीधी रहें। नेत्र सहजता से बंद हों। ध्यान आज्ञा चक्र में रखें।
गहरे-लम्बे श्वास लें । नमस्कार मुद्रा से विनम्रता का भाव उत्पन्न होता है।
एकाग्रता का विकास होता है । नमस्कार मुद्रा से साधक में ईश्वर प्रणिधान का भाव
जाग्रत होता है जो कि चित्त को निर्मल करता है और समर्पण के भाव को बढ़ाता है ।
ऐसा होने पर चित्त की एकाग्रता बढ़ती है ।
3. ब्रह्मांजलि
मुद्रा - यह ध्यान की मुद्रा है। इसमें बाएं हाथ की हथेली को नाभि के निकट रखें और
दाएं हाथ की हथेली को इसके ऊपर रखें तथा अंगूठे एक-दूसरे पर रहेंगे । इस मुद्रा का
साधक एक समय पर 15 मिनट से 45 मिनट तक का अभ्यास कर सकता है । इसके लिए पद्मासन,
सुखासन या सिद्धासन में बैठें । इस मुद्रा से शारीरिक व मानसिक
स्थिरता प्राप्त होती है । मन शान्त होता है यह मुद्रा साधक को ध्यान की गहन
अवस्था में ले जाती है ।
4. षण्मुखी
मुद्रा - किसी भी ध्यान के आसन में बैठें। दोनों हाथों के
अंगूठे कानों में, तर्जनी आंखों पर, मध्यमा
अंगुली नासिका पर तथा अनामिका अंगुली होंठ पर तथा छोटी अंगुली होंठ के नीचे रखें।
इस तरह सभी छिद्र (ज्ञानेन्द्रियों के) बंद हो जाएं । मध्यमा अंगुलियों को उठा कर
नासा छिद्रों से नाड़ी शोधन की तरह श्वास भरें, रोकें व छोड़ें ।
जितनी देर श्वास को रोक कर कुम्भक लगाया जाता है, उस समय ध्यान का
केन्द्र, बिन्दु चक्र रहना चाहिए । इस मुद्रा के अभ्यास
से ध्यान लगने लगता है । अनहद नाद सुनाई देता है यह आन्तरिक साधना को आगे बढ़ाने
वाली मुद्रा है ।
5. खेचरी मुद्रा
- ध्यान की गहराई में जाने के लिए खेचरी मुद्रा का अभ्यास एक महत्वपूर्ण अभ्यास है
। खेचरी मुद्रा का अभ्यास कुण्डलिनी जागरण के जिज्ञासुओं के लिए भी सहायक है ।
खेचरी मुद्रा के दो रूप हैं - राज योग पद्धति एवं हठ योग पद्धति । हठ
योग पद्धति अधिक कठिन होने के कारण गुरु एवं निपुण व्यक्ति की देखरेख में ही सीखी
जाती है, जिसका विवरण यहां नहीं दिया जा रहा है,पर राज योग
पद्धति, गृहस्थ योगियों के लिए बहुत सहायक है । इस
पद्धति के अनुसार ध्यान के एक आसन में बैठें। मुंह को बन्द कर जिह्वा को ऊपर की ओर
मोड़ कर ऊपर वाले तालू में पीछे से स्पर्श करें । कुछ मिनट क्षमता के अनुसार रुकें
। प्रतिदिन जिवा के अग्रभाग को अधिक से अधिक पीछे की और तालू के ऊपरी छिद्र की ओर
बढ़ाने का प्रयास करते रहें । अभ्यास में एकाग्रता बढ़ाने के लिए इस मुद्रा में
उज्जायी प्राणायाम का अभ्यास किया जा सकता है । धीरे-धीरे श्वासों की गति को कम
करते जाएं । एक मिनट में लिए जाने वाले श्वासों की संख्या कम से कम हो जाए । ऐसा
करने पर इस मुद्रा के अभ्यास में साधक स्थूल से सूक्ष्म शरीर में प्रवेश करने की
क्षमता में आ जाता है । सोम चक्र प्रभाव में आने से वहां टपकने वाले सोम रस का वह
रसास्वादन करता है । कुण्डलिनी का जागरण सहज होता है ।
शाम्भवी मुद्रा
- शाम्भवी मुद्रा से हमारा अभिप्राय भ्रूमध्य दृष्टि है । एक स्थिर आसन में बैठकर
रीढ़, गर्दन, सिर को सीधा
करें । दोनों हाथ ज्ञान मुद्रा में; एक से दो मिनट
तक अपने से कुछ दूरी पर एकाग्र दृष्टि से देखें अब गर्दन व सिर को स्थिर रखते हुए
आसमान की ओर अधिक से अधिक ऊपर की ओर देखें पश्चात्, दोनों भौहों के
मध्य दृष्टि को टिका दें । एकटक नजर से भ्रूमध्य को देखते जाएं । ऐसा करने से साधक
का क्रोध व तनाव खत्म होता है । चित्त एकाग्र होने लगता है । मन शान्त होता है ।
अगोचरी मुद्रा -
पद्मासन, सिद्धासन, स्वस्तिकासन या
सुखासन में बैठें। कमर, गर्दन, सिर एक सीध में
हों। दोनों हाथ ज्ञान मुद्रा में, दोनों आंखें खोल कर दृष्टि को नासिका
के अग्रभाग पर लगाएं। कुछ देर एकटक नजर से ऐसा करते रहें । धीरे-धीरे
समय की वृद्धि करें। शाम्भवी मुद्रा की भांति, अगोचरी मुद्रा
चित्त की एकाग्रता को बढ़ाने वाली है । इससे इन्द्रियां अन्तर्मुखी होती हैं,
जिससे ध्यान में जाना सहज हो जाता है ।
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