भारतीय समाज मे विवाह
को एक संस्कार माना जाता हैं जिस कारण विवाह को जीवन मे बहुत ही महत्व दिया गया हैं
| विवाह बंधन मे बांधने से पूर्व हमारे समाज
मे वर व कन्या के गुण मिलान करने की परंपरा रखी गयी हैं जिसमे मुख्य रूप से अष्टकुटों
का मिलान किया जाता हैं जो वर्ण,वैश्य,तारा,योनि,ग्रहमैत्री,गण,राशि या भकुट,व नाड़ी
के रूप मे होते हैं जिनमे क्रमश: 1 से 8 तक अंको का समावेश होता हैं जो कुल 36 की
संख्या का बन जाता हैं | जिस वर व कन्या के गुणमिलान की संख्या 18 से अधिक
मिल जाती हैं उसे विवाह के लिए अच्छा समझा व मान लिया जाता हैं |
इन सभी अष्टकुटों के मिलान मे सबसे ज़्यादा
अंकीय महत्व हमारे विद्वानो ने “नाड़ी” को दिया हैं जिसके 8
अंक रखे या माने गए हैं | नाड़ी चूंकि व्यक्ति विशेष के मन व मानसिक
ऊर्जा की सूचक होती हैं और किसी भी जातक के निजी संबंध जो विवाह हेतु अति महत्वपूर्ण होते हैं उसके
मन व मानसिक ऊर्जा से ही जुड़े हुये होते हैं संभवत: इसी कारण इस “नाड़ी” को सबसे ज़्यादा अंको
के साथ महत्व दिया गया हैं |
जैसे शरीर मे वात,पित्त व कफ इन 3 प्रकार के दोषो
की जानकारी कलाई मे चलने वाली नाड़ियो से प्राप्त की जाती
हैं उसी प्रकार अपरिचित व्यक्तियों के भावनात्मक लगाव की जानकारी आदि,मध्य व अन्त्य नाम की इन 3 नाड़ियो के द्वारा
मिलती हैं | ज्योतिष के अनुसार ये 3 नाड़िया आवेग,उद्धेग
व संवेग की सूचक होती हैं जिनसे संकल्प,विकल्प व प्रतिक्रिया
जन्म लेती हैं और हमारा मानव मन भी अपने सभी कार्यो के लिए इन्ही तीनों के द्वारा ही
अपना व्यवहार प्रदर्शित करता हैं | इस प्रकार स्पष्ट रूप से कहा
जा सकता हैं की इस नाड़ी के माध्यम से ही भावी दंपति की मानसिकता व मनोदशा का मूल्यांकन
किया जा सकता हैं |
एक नाड़ी मे विवाह वर्जित
क्यू किया जाता हैं –
जिस प्रकार वात प्रकृति के व्यक्ति के लिए वात नाड़ी चलने पर वात
गुण वाले पदार्थ का सेवन व वातावरण वर्जित होता हैं अथवा कफ प्रकृति
वाले व्यक्ति के लिए कफ नाड़ी चलने पर कफ प्रधान पदार्थो का सेवन व वातावरण वर्जित होता हैं ठीक उसी प्रकार
मेलापक मे भी एक समान नाड़ी का होना वर कन्या के मानसिक और भावनात्मक तालमेल मे हानी कारक होने के
कारण उनमे आपसी सामंजस्य होने की संभावना न्यूनतम और टकराव की संभावना अधिकतम हो जाना बताता हैं
इसलिए हमारे विद्वानो द्वारा एक ही नाड़ी मे विवाह करना वर्जित किया गया हैं | इसे विस्तार से इस प्रकार
भी समझा जा सकता हैं |
आदि नाड़ी वात स्वभाव की मानी जाती हैं
जिसमे चंचलता अधिक होती हैं इसलिए आदि नाड़ी के वर
का विवाह यदि आदि नाड़ी की कन्या से हो जाए तो उनमे चंचलता की अधिकता के कारण समर्पण व आकर्षण
की भावना विकसित नहीं होती और उनमे व्याभिचार का दोष उत्पन्न होने की संभावना रहती हैं | नक्षत्रानुसार अश्विनी,आद्रा,पुनर्वसु,उत्तराफाल्गुनी,हस्त,ज्येष्ठा,मूल,शतभिषा व पूर्वाभाद्रपद
नक्षत्र मे जन्मे जातक आदि नाड़ी वाले होते हैं |
मध्य नाड़ी को पित्त स्वभाव का माना
गया हैं जिसमे अहम का अधिकता रहती हैं इस लिए मध्य नाड़ी के वर का विवाह मध्य नाड़ी की
कन्या से हो जाए तो उनमे परस्पर अहम के कारण संबंध अच्छे
नहीं बन पाते जिससे उनमे विकर्षण की संभावना ज़्यादा रहती हैं परस्पर लड़ाई झगड़े होने
से तलाक तक की नौबत आ जाती हैं संतान सुख मे कमी अथवा गर्भपात जैसी समस्याओ का सामना
करना पड़ सकता हैं | नक्षत्रानुसार भरनी,मृगशिरा,पुष्य,पूर्वाफाल्गुनी,चित्रा,अनुराधा,पूर्वाषाढ़ा,धनिष्ठा,उत्तराभाद्रपद नक्षत्र मे जन्मे जातक मध्य नाड़ी
वाले होते हैं |
अन्त्य नाड़ी को कफ स्वभाव
का माना जाता हैं जिसमे काम संबंधी भावनाए अल्प मात्रा मे होती हैं इसलिए अन्त्य नाड़ी के
वर का विवाह यदि अन्त्य नाड़ी की कन्या से होता हैं तो उनमे कामभाव की
कमी पैदा होने लगती हैं दोनों का स्वभाव शांत होने के कारण परस्पर सामंजस्य
का अभाव होने लगता हैं जिससे दाम्पत्य जीवन मे ग़लतफहमी पैदा होने लगती
हैं | नक्षत्रानुसार कृतिका,रोहिणी,अश्लेषा,मघा,स्वाति,विशाखा,उत्तराषाढ़ा,श्रवण और रेवती नक्षत्रमे जन्मे जातक अन्त्य
नाड़ी वाले होते हैं |
एक ही नाड़ी होने पर क्या
करे-
वैसे तो हमारे प्राचीन विद्वानो ने नाड़ी दोष के कई परिहार बताए हैं परंतु यदि
उनको मान भी लिया जाये तो भी अनुभव मे देखने मे आता
हैं की वर कन्या दोनों की मध्य नाड़ी होने पर वर को प्राण जाने का भय रहता हैं इसके
लिए वर को महामृत्युंजय का जाप करते रहना चाहिए | इसी प्रकार यदि वर कन्या दोनों की नाड़ी आदि या
अन्त्य होतो कन्या को मृत्यु भय रहता हैं इस स्थिति मे कन्या को महामृत्युंजय का जाप
करते रहना चाहिए |
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