जातक के जन्म महादशा कम से जातक के जीवन काल के सभी व्यापार, आचार-विचार, कार्य शैली, व्यवहारिक जीवन के प्रत्येक मोड़ पर उसके दृष्टिकोण के आधार पर उसके भूत, वर्तमान व भविष्य काल के चित्रों के रूप रेखा का ज्ञान किया जा सकता है ।
महादशा कम से जातक के भूत, वर्तमान एवं भविष्य काल की रूप रेखा के ज्ञान के दो आधार है ।
1. प्रथम - ग्रहों के महादशा के नैसर्गिक,स्वभाविक गुण धर्म जो भाव स्थिति से प्रभावित होते हैं |
2. द्वितीय - पारीवारिक, सामाजिक एवं लौकिक व्यवहारों का जातक के क्रमिक आयु वृद्धि पर पड़ने वाले संस्कारों के काल का प्रभाव ।
जन्म से मृत्यु के बीच जातक की पांच अवस्था होती है |
1. उम्र के 3 वर्ष से 12 वर्ष की अवस्था बाल्यावस्था (बिजारोपण की अवस्था)
2. 12 से 18 वर्ष की अवस्था - तरूण (कुमार) अवस्था ।
3. 18 से 30 वर्ष की अवस्था - युवा अवस्था ।
4. 30 से 50 वर्ष की अवस्था - प्रौढ़ा अवस्था या प्रज्ञा अवस्था ।
5. 50 से 75 वर्ष की अवस्था - वृद्धा अवस्था या प्रायश्चित अवस्था ।
3 वर्ष से 12 वर्ष की अवस्था - (बीजारोपण की अवस्था)- जातक की यह बाल अवस्था होती हैं बालक इस अवस्था में अपनों के व्यवहार,कार्यपद्धति,पसन्द और नापसन्दगी का नकल करता है । समझता हैं कि ऐसा ही करना उचित होता हैं उस अवधि में बालक की महादशा दशा,भुक्त दशा के ग्रहों के प्रभाव गुण,धर्म के अनुसार उसके नकल करने की विधा में जो संशोधन होते है उसमें कुछ विशेषताओं व विशेष अभिरूची के लिए नैसर्गिक आकर्षण उत्पन्न होता है । जिसका बीजारोपण इस काल में हो जाता है । उदाहरण स्वरूप-
1. यदि इस अवधि में राहु की भुक्ति हो तो बालक में झूठ बोलने, छुप-छुप कर कार्य करने, कुसंगति के प्रति आकर्षण को उचित समझने लगता है ।
2. यदि इस अवधि में मंगल की भुक्ति हो तो अपने शारीरिक, बौद्धिक ताकत से व्यवहारों को ग्रहण करता है । भाईयों, मित्रों से अपनी श्रेष्ठता समझकर अपने प्रभुत्व का प्रदर्शन करता है ।
3. यदि इस अवधि में शनि की भुक्ति हो तो और शनि कुण्डली में शुभ अवस्था में हो तो कार्यों में कुशलता से उत्साहवृद्धि, स्वच्छ वस्त्र आदि के प्रति रूची, उज्ज्वल कीर्तिवान लक्ष्य के प्रति रूची मानसिक स्वभाव होता है। और यदि अशुभ शनि हो तो आलस्य निद्रा, कार्यों में प्रति उदासिनता निम्न वर्गों के जातक के जीवन शैली से संस्कारित होता है |
4. यदि इस अवधि में सूर्य की भुक्ति हो तो जातक सभी कार्यों में अपने अधिकार को विशेष महत्व देता है। तुलनात्मक रूप से अपने को अन्य की तुलना में विशिष्ट समझने लगता है । अहंकार उसका स्वभाव बन जाता है । पिता के प्रति असंतोष का भाव उत्पन्न होता है । अपनी श्रेष्ठता को विशेष महत्व देता है ।
5. इस अवधि में चन्द्र दशा की भुक्ति हो तो जातक मानसिक चंचलता, तरलता के स्वभाव का विशेष आधार होता है । मातृ भक्ति उसके सभी कार्यों का अधिकार बनता है । शांत, सुन्दर,शीतलता,शुद्धता उसके विशेष गुण बनते है ।
6. यदि इस अवधि में गुरू दशा की भुक्ति हो, गुरूजनों की भक्ति, आध्यात्मिक रूची, अध्ययन के प्रति गंभीरता, गुढ़ विद्याओं के प्रति लगाव का बीजारोपण जातक के जीवन मे होता है ।
7. यदि इस अवधि में शुक की दशा की भुक्ति हो तो बनावटी श्रृंगार, शारीरिक सौख्य के आकर्षण में विशेष रूची बनती है । स्त्रियों का दुलार का बीजारोपण उसके जीवन में होता है । सौन्दर्य जीवन शैल के प्रति रूझान उसके जीवन जीने की कला का प्रमुख अंग बनता है ।
8. यदि इस अवधि में बुध दशा की भुक्ति हो तो जातक विभिन्न शिल्प विद्या के जानने की रूची उसके जीवन का अंग बनता है । कलाकारिता के प्रति रूची, पुस्तक संग्रह, अध्ययन, संकोची भाव, विनम्रता, वृद्धों के प्रेम सम्मान को विशेष महत्व देता है ।
12 से 18 वर्ष की उम्र में जातक की तरूण अवस्था होती है । बालपन का बीज पौधे के रूप में विकसित होने लगता है तब यह अपने बीज के गुण धर्म के अनुकूल फूल और पत्तो के प्रति विशेष आकर्षण रखता है और वह अपने जड़ों और तनों के मजबुती के लिये विशेष ध्यान रखता है ।
18 वर्ष से 30 वर्ष की अवस्था में इस पौधे में कलियां लगती है और फूल खिलते है । जो जातक के जीवन को अपने सुन्दर रंगों और खुश्बू के आकर्षण में बांधे रखता है । यह फूल अपने गुण धर्म के अनुरूप उसके मानसिक जीवन के सुख या दुख का कारक बनकर उसके जीवन को प्रभावित करता है । जातक जीवन जीने की शैली के प्रति अनुकूल साधन प्राप्ति के खोज का प्रयास करता है |
30 वर्ष से 50 वर्ष की अवस्था प्रज्ञा अवस्था या प्रौढ़ा अवस्था होती है । जिसमें जातक के जीवन रूपी पौधे में फल लग जाते हैं इस प्रज्ञा अवस्था में जातक अपने जीवन रूपी पौधों के फलों के अच्छाई और दुखदाई अवस्था के गुण धर्म से परिचित होकर उसका उपभोग करते हुये जीवन को जीता है।
50 वर्ष से 75 वर्ष की अवस्था जातक के प्रायश्चित की अवस्था होती है । इस अवस्था का भोग करते हुये वह मृत्यु को प्राप्त होता है । इस अवस्था में जीवन के प्रारम्भ में बाल्यावस्था के अपने बीज और अंकुरण के ज्ञान को गहराई से अनुभव करता हुआ उन्नति या अवनति के परिणाम को प्राप्त होता है |
निष्कर्ष रूप में हम कहे तो जातक का जीवन जिस महादशा से प्रारम्भ होता है वही उसके जीवन का बीज तैयार होता है । विंशोत्तरी दशा कम के अनुसार उस बीज से पौधा, पत्ती, फूल, कली, फल का निर्माण होता है । इस बीज पौधा,फल,फूल की प्रगति ग्रहों के महादशा के नैसर्गिक फलों से जाना जा सकता है जिसकी जानकारी, निम्नलिखित है |
ग्रहों की महादशा के नैसर्गिक फल जो अपनी भाव स्थिति के अनुसार जातक के जीवन को प्रभावित करती है ।
1. सूर्य की महादशा – सूर्य की महादशा मे परदेश वास,भूमि,पिता, अग्नि, शास्त्र तथा औषधि से धन की प्राप्ति होती हैं । जातक की रूची अभिजात कर्मों में बढ़ती है अपने प्रिय से मित्रता होती है । भाई बन्धुओं से विचार वैषम्य,स्त्री,पुत्र और पिता से वियोग अथवा चिंता होती हैं । चोर अग्नि तथा शत्रु से भय, दांत, नेत्र तथा उदर में पीड़ा होती हैं । स्थान एवं आत्मियजनों से पृथकता प्राप्त होती है,
सूर्य की महादशा के शुरू
मे माता-पिता को रोग, दुःख,मानसिक व्यथा और अधिक व्यय होता है । दशा के मध्य में जातक तथा उसके सहयोगी को पीड़ा तथा दशा के अंत में विद्या जनित उन्नति व सुख होता है ।
2. चन्द्र की महादशा - चन्द्र की महादशा में जातक की आध्यात्मिक रूची बढ़ जाती है । समाज से प्रसन्नता प्राप्त होती है । युवतियो,स्त्रीयों द्वारा धन, भूमि, पुष्प, गन्ध व भूषण आदि अर्थात सुख के पदार्थों का लाभ होता है । कलाओं में कुशलता प्राप्त होती है घुमने में प्रेम होता है । जातक आलसी, निद्रा से व्याकुल, जलीय तत्वों का प्रेमी होता है,कफ और वात की अधिकता होती है ।
चन्द्रमा की महादशा के पहले 3 वर्ष 4 माह में चन्द्रमा जिस भाव में होता है,उस भाव से सम्बन्धित फल का नाश करता है । मध्य वाले 3 वर्ष 4 महीने में चन्द्रमा के अंश द्वारा फल एवं उस राशि से सम्बन्धित फल प्रदान करता है । अन्तिम 3 वर्ष 4 महीना में चन्द्रमा अपने साथी ग्रहों के फल के साथ तत् सम्बन्धित भाव के अंगों को प्रतिपादित करता है |
3. मंगल की महादशा - जातक प्रशासनिक क्षेत्र, अस्त्र-शस्त्र एवं विवाद से, धूर्तता एवं चतुराई से अनेकानेक क्रूर क्रियाओं द्वारा अनेक उद्यमों से धन की वृद्धि प्राप्त करता है तथा पित्त जनित,रूधिर प्रकोप तथा ज्वर से पीड़ित होता है । राज भय, पारिवारिक कलह, स्त्री पुत्र, सम्बन्धियों से वैमनस्य तथा इन्ही कारणों से दुर्भाग्य का फल प्राप्त होता है ।
मंगल की महादशा में प्रथम खण्ड में नाना प्रकार से धन और मान की हानि होती है । द्वितीय खण्ड में राजभय होता है । अन्तिम खण्ड में भाई, संतान, स्त्री और धन इत्यादि की कमी एवं मूत्र सम्बन्धित रोग होते है ।
4. राहु की महादशा - राहु की महादशा में सांसारिक स्थिति के विपरित क्रम में जीवन जीता है । पिता, पुत्र, स्त्री-पति आदि कुल के सदस्यों से वियोग एवं दुःख प्राप्त होता है । जातक रोगी होता है झूठ बोलने और झगड़े में उसकी विशेष अभिरूची होती है । 18 वर्ष की दशा मे षष्ठ और अष्टम वर्ष बहुत कष्टदायी होता है । स्थान एवं आत्मियजनों से पृथकता प्राप्त होती है ।
राहु के दशा में प्रथम खण्ड में दुःख,मध्य खण्ड में सुख और यश तथा अन्तिम खण्ड में माता - पिता, गुरू, पति- स्त्री एवं स्थान का नाश और मानसिक विघ्न बाधाओं की प्राप्ति होती है ।
5. गुरू की महादशा – इस महादशा मे जातक को मनोवांछित फल की प्राप्ति होती है । आध्यात्मिक कर्म, वेद शास्त्र, यज्ञ आदि कर्मों में रूची बढ़ती है भूमि, वस्त्र, वाहन का लाभ होता है । बुद्धिमान, नम्र, धनी तथा उत्तम मनुष्यों की संगति प्राप्त होती है । परिवार समाज में उसे विशेष अधिकार की प्राप्ति होती है ।
गुरु की महादशा फल के प्रथम 5 वर्ष 4 महीना में आनन्द और मर्यादा की प्राप्ति,द्वितीय खण्ड के 5 वर्ष 4 महीना में स्त्री-पुत्रादि से सुख तथा अन्तिम खण्ड में दुःख आदि का आगमन कार्य की हानि एवं मानसिक पीड़ा होती है ।
6. शनि की महादशा - शनि की महादशा में वृद्धा स्त्री, मोटा अन्न, नगर एवं जाति के निम्न श्रेणी के बीच सुख प्राप्त होता है अथवा किसी नीच जाति से सम्बन्ध बनता है । इस दशा में आलस्य निद्रा, कफ, वात, पित्त जन्य रोग, ज्वर पीड़ा, स्त्री संग से रोग की उत्पत्ति और चर्म रोग आदि से पीड़ा होती है ।
शनि की महादशा के प्रथम खण्ड में भाईयों व स्वजनों की मृत्यु से दुःख होता है । मध्य खण्ड में स्थान परिवर्तन या दूर यात्रा का कष्ट प्राप्त होता है । अन्तिम खण्ड में पर गृह वास, स्थान परिवर्तन,आत्मिय जनों से पृथकता परान्य भोजन प्राप्त होता है ।
7. बुध की महादशा - विद्वान, मित्रो से सम्पर्क, कुटुम्ब से सुख प्राप्ति, समाज में यश, कीर्ति मिलती है । जातक अनेक उद्यमों से धनवान, बनता है । आध्यात्मिकता लेखन, प्रकाशन आदि में विशेष अभिरूची होती है । हास्य क्रिड़ा, सुख से जीवन व्यतीत करने वाला होता है । जातक की मति दुविधा युक्त रहती है उसे वात रोग का भय होता है ।
बुध की महादशा के प्रथम खण्ड में धन, मान और अन्न का लाभ, मध्य खण्ड में राज सम्मान एवं अन्तिम खण्ड में स्वजनों से मतभेद होता है ।
8. केतु की महादशा – इस महादशा मे सुख की कमी होती है । जातक दीन, विवेक हीन, और रोग ग्रस्त होता है शारीरिक कष्ट की वृद्धि, स्त्री पुत्रादि से मानसिक चिंता, विद्या धन सम्बन्धि आपत्ति, चोर, विष, जल, अग्नि, शस्त्र और मित्रों से भय एवं मानसिक पतन, मन में संताप होता है ।
केतु की महादशा के आरम्भ में कुटुम्ब एवं गुरूजनों के कारण कष्ट और दुःख,मध्य में धनागम और अन्त में सुख होता है ।
9. शुक्र की महादशा - शुक्र की महादशा में जातक को स्त्री, संतान, धन, समृद्धि और, भूषण वस्त्र आदि से सम्मान प्राप्त होता है । परपुरूष या पर स्त्री के प्रति प्रेम की चेष्टा प्रबल होती है । गायन, नृत्य आदि में मन विशेष रूप से लगता है । शुक्र की दशा में वाहन, पुत्र, पौत्र और पूर्व संचित धन आदि से सुख प्राप्त होता है ।
नोट - ग्रहों के उच्च नीच आदि के भेद मित्र, शत्रु राशि एवं भावेश अवस्था आदि को ध्यान में रखते हुये फलों का निर्णय करना चाहिये । जातक की उम्र, पारीवारिक एवं सामाजिक एवं देश काल की परिस्थितियों को ध्यान में रखकर फल का निर्णय करना चाहिये ।
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