ज्योतिष शास्त्र एक अगाध समुद्र है इसमें जितना अधिक गोता लगायेंगे, उतने ही रत्न उन्हें प्राप्त होंगे । देखा जाए तो इस शास्त्र का संबंध सृष्टि के सृजन से है । जिस क्षण से 'काल' की अनुभूति, सूर्य चंद्र, पृथ्वी का परिज्ञान होता है, उसी क्षण से ज्योतिष की भूमिका आरंभ हो जाती है । भारत में जिस समय श्रुति परंपरा विद्यमान थी उस समय भी वैदिक ऋषि ज्योतिष के आधारभूत काल का चिंतन किया करते थे और उस चिंतन से अनेकानेक शाखाओं को जन्म देने का कार्य करते थे । सूर्य ऋतुओं का नियमन करता है । सूर्य के कारण ही दिन, तिथि, मास, पक्ष, ऋतु, अयन आदि की जानकारी होती हैं, इसका परिज्ञान हमारे वैदिक ऋषियों को भलीभांति था । ऋग्वेद में स्पष्ट कहा गया है -
चक्राणासः
परीणहं पृथिव्या हिरण्येन मणिना शुम्भमानाः
ऐतरेय ब्राह्मण
में स्पष्ट किया गया है कि वृत्तासुर के दूत पृथ्वी की परिधि के चारो ओर भागकर भी
इन्द्र को नहीं जीत सके । सूर्य कभी न उगता है न अस्त होता है यह तो पृथ्वी की गति
हैं उसे ऐसा परिलक्षित करती है ।
स वा एष नकदाचना
स्तमेतिनेदेति ।
तैतरीय ब्राह्मण
मुहूतों के बारे में स्पष्ट उल्लेख करता है -
चित्रः
केतुर्दाता प्रदाता सविता प्रसविता...। एष ह्येव तेऽहूनो मुहर्त्ताः एष रात्रेः ॥
इसी प्रकार
तैतरीय संहिता में नक्षत्रों के नाम तथा उनके अधिष्ठात्र देवताओं की भी जानकारी
मिलती है । अथर्वसंहिता में उल्का व धूमकेतु का वर्णन है । तैतरीय ब्राह्मण में
अनेकानेक कार्यों के लिए शुभ और अशुभ नक्षत्रों का वर्णन मिलता है -
यान्येव देव
नक्षत्राणि । तेषु कुर्वीत यत्कारी स्यात् ।
स्वाती नक्षत्र
में कन्या दान करने को श्रेष्ठ बताया गया है । वाजसनेयी संहिता में आकाशीय
नक्षत्रों का वेध तथा अन्वेषण करने का उल्लेख मिलता है । तैतरीय ब्राह्मण में इस
कार्य में दक्ष ऋषियों के नामों का उल्लेख है । वेदांग ज्योतिष सूर्य, चंद्र
की मध्यम एवं स्पष्ट गतियों के बारे में जानकारी देता है । अथर्व ज्योतिष में जन्म,
संपत, विपत, नक्षत्र,
तारा आदि का वर्णन है । अश्चिलयन एवं पारस्कर सूत्रों में विवाह,
नक्षत्र, अंश, भेद, मूलनक्षत्र मे उत्पन्न बालक के शुभाशुभ ज्येष्ठ आदि नक्षत्रो
मे हल जोतने,असलेशा गंदान्त आदि का वर्णन मिलता हैं | निरुक्त मे युग पद्द्ति,सप्तऋषि
ब्रह्मा के अहोरात्र का निरूपण पाणिनी व्याकरण मे तरादी ग्रहो कौललेख प्राप्त होता
हैं | इसी क्रम मे मनुस्मृति,महाभारत रामायण आदि ग्रंथो मे भी ज्योतिष के अनेक
प्रसंग देखने को मिलते हैं । फलतः वैदिक संहिता काल से लेकर वेदांग काल, सूत्र काल, पौराणिक काल में
'त्रिस्कंध
ज्योतिष' के
अनेक तथ्यों का भली प्रकार उल्लेख प्राप्त होता है । स्पष्ट है कि वैदिक तथा उसके
पूर्व के काल में भूलोक,
अंतरिक्ष लोक,
आकाश अथवा देवलोक की अवधारण विद्यमान थी अनंत ब्रह्माण्ड के बारे में
तत्कालीन मनीषी भलीभांति चिंतन किया करते थे ।
स्पष्ट है कि
वर्तमान में सृष्टि के नियामक इस शास्त्र का सम्यक् अध्ययन एवं उसका प्रयोग आवश्यक
है । अतएव ज्योतिर्विदों का ये दायित्व है कि सृष्टिकाल से चले आ रहे इस शास्त्र
पर कभी प्रश्नचिन्ह न लगने दें ।