ज्योतिष मे बारह राशियां मनुष्य के विभिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करती हैं । मेष राशि - मस्तिष्क का, वृष - मुख का, मिथुन - वक्षस्थल का, कर्क - हृदय का, सिंह - उदर का, कन्या - कटि प्रदेश का, तुला - वास्ति (पेडू) का, वृश्चिक - गुप्तांग का, धनु - जंघा का, मकर - घुटने का, कुम्भ - पिंडलियों का और मीन राशि - पैरों का प्रतिनिधित्व करती हैं ।
इसी तरह 7 ग्रह मनुष्यो के विभिन्न कारकत्वों का प्रतिनिधित्व
करते हैं जिनमे सूर्य - आत्मा का, चंद्रमा
- मन का, मंगल - धैर्य का, बुध - वाणी का,
गुरु - विवेक का, शुक्र - वीर्य का और शनि - संवेदना का
प्रतिनिधित्व करते हैं ।
ये सभी राशियां और ग्रह जन्म से लेकर अंतिम
संस्कार तक मनुष्य के जीवन को प्रभावित करते रहते हैं ।
उपरोक्त शास्त्र
सम्मत बातों के आधार पर यह समझ लेना जरूरी होगा कि जब पति - पत्नी दोनों स्वस्थ
हैं और संतान उत्पत्ति करने के
योग्य हैं फिर भी उन्हें संतान का सुख प्राप्त नहीं हो रहा है, तो इस अभाव का
कारण ग्रह योग हो सकता है ।
स्त्रियों के
विषय में शास्त्र कहता है कि रजोदर्शन, रतिक्रीड़ा और
गर्भाधान की क्रिया बिना ग्रह योग के संभव नहीं है हम सभी जानते हैं की मंगल और चंद्रमा
के कारण स्त्रियों में रजोदर्शन की प्रतिक्रिया होती है ।
शरीर में रक्त जल व अग्नि पित्त के
रूप में विद्यमान रहती है । जल पर चंद्रमा का और पित्त पर मंगल का प्रभाव है ।
स्त्री के शरीर
में पित्त की वजह से रक्त विकार उत्पन्न होता है और यही रजोदर्शन का कारण बनता है
। पुरुष के शरीर में जल और अग्नि अर्थात् रक्त और पित्त दोनों साथ - साथ रहते हैं
।
शास्त्रों में
ऐसा भी वर्णित है कि रजोदर्शन के बाद की सोलह रात्रियों का समय ऋतु चक्र कहलाता है
। इन सोलह रात्रियों में ही गर्भाधान संभव होता है । ऋतु स्नान के बाद जब स्त्री की
राशि से 2, 4, 5, 7,
8, 9 एवं 12वें स्थान में से किसी स्थान पर
चंद्रमा हो और उस पर मंगल की दृष्टि हो या पुरुष की राशि से उपचय स्थानों में से
किसी एक पर चंद्रमा मित्र ग्रहों अर्थात् शुक्र और गुरु में से किसी एक से दृष्ट
हो तो (गर्भाधान) अर्थात संतान सुख होने
का योग बनता है ।
लड़का होगा या
लड़की
ऋतु स्नान के
बाद की सोलह रात्रियों में से सात रातों को 'सम' और
छह रात्रियों को 'विषम' रात्रि कहते हैं
। इनमें पहली, दूसरी और तीसरी रात्रियां त्याज्य होती हैं ।
चौथी, छठी, आठवीं, दसवीं,
चौदहवीं और सोलहवीं रात्रियां सम रात्रियां हैं । यदि इन रातों में
पति - पत्नी सहवास करें, तो गर्भ धारण होने पर पुत्र की
प्राप्ति होती है और विषम रात्रियों (5, 7, 9,
11, 13 और 15वीं) में सहवास करने से कन्या उत्पन्न
होती है ।
संतान सुख का
योग ग्रहों की स्थिति पर निर्भर होता
है । प्रत्येक
कुंडली में छह स्थान - लग्न, तृतीय, पंचम्,
सप्तम्, नवम् और एकादश भाव संतान प्राप्ति के
लिए महत्वपूर्ण होते हैं ।
संतान प्राप्ति कब व कैसे होती हैं इसके कुछ
योग निम्न हैं
|
पति - पत्नी की
जन्म लग्न कुंडली या चंद्र कुंडली में यदि गोचर से गुरु और शनि - लग्न, पंचम्,
सप्तम् एवं एकादश भावों में भ्रमण करें तो संतान होगी ।
क्रीड़ा के समय
कुंडली में लग्नेश और पंचमेश एक साथ हों या एक - दूसरे को देखते हों अथवा दोनों एक
- दूसरे की राशि को देखते हों ।
विषम राशि या
विषम नवमांश में चंद्रमा हो, चंद्र, मंगल और गुरु
अपनी राशि में हों और लग्न पर पुरुष ग्रह की दृष्टि हो ।
कुंडली में
पंचम् भाव में चंद्रमा और लग्नेश एक साथ हों ।
जिस वर्ष कुंडली
में मंगल और शुक्र एक - दूसरे को देखते हों ।
जन्म कुंडली के
पंचम भाव का स्वामी (ग्रह) जिस वर्ष तृतीय भाव की राशि में हो ।
जन्म कुंडली में
शनि जिस स्थान पर होता है और गोचर से जब गुरु शनि की राशि में आए, लेकिन
यह स्थान लग्न, तृतीय, पंचम्, सप्तम्,
नवम् और एकादश भाव में होना चाहिए ।
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