written by sangita puri
भारत के बहुत
सारे लोगों को शायद इस बात का ज्ञान भी न हो कि कुछ वर्षो पूर्व अपने देश में
ज्योतिष की एक नई शाखा “गत्यात्मक ज्योतिष” का
विकास हुआ है, जिसके द्वारा वैज्ञानिक ढंग से की जानेवाली
सटीक तिथियुक्त भविष्यवाणी जिज्ञासु बुद्धिजीवियों के मध्य चर्चा का विषय बनी हुई
है ।
गत्यात्मक
ज्योतिष के विकास की चर्चा के आरंभ में इसका प्रतिपादन करनेवाले वैज्ञानिक
ज्योतिषी श्री विद्यासाग महथा का परिचय आवश्यक होगा,जिनका वैज्ञानिक
दृष्टिकोण गत्यात्मक ज्योतिष के जन्म का कारण बना । महथाजी का जन्म 15 जुलाई 1939
को झारखंड के बोकारो जिले में स्थित पेटरवार ग्राम में हुआ | एक
प्रतिभावान विद्यार्थी के रुप में मशहूर महथाजी बी एससी करते हुए अपने एस्ट्रोनामी
पेपर के ग्रह नक्षत्रों में इतने रम गए कि ग्रह-नक्षत्रों की चाल और उनका पृथ्वी
के जड़-चेतन पर पड़नेवाले प्रभाव को जानने की उत्सुकता ही उनके जीवन का अंतिम
लक्ष्य बन गयी । इन्होने अपने पैतृक गांव में रहकर ही प्रकृति के रहस्यों को
ढूंढने का फैसला किया |
ग्रह नक्षत्रों
की ओर गई उनकी उत्सुकता ने उन्हें ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन को प्रेरित किया ।
गणित विषय की कुशाग्रता और साहित्य पर मजबूत पकड़ के कारण तात्कालीन ज्योतिषीय
पत्रिकाओं में इनके लेखों ने धूम मचायी । 1975 में उन्हीं लेखों के आधार पर 'ज्योतिष-मार्तण्ड'
द्वारा अखिल भारतीय ज्योतिष लेख प्रतियोगिता में इन्हें प्रथम
पुरस्कार प्रदान किया गया । उसके बाद तो ज्योतिष-वाचस्पति, ज्योतिष-रतन,
ज्योतिष-मनीषी जैसी उपाधियाँ से अलंत किए जाने का सिलसिला ही चल पड़ा
। 1997 में भी नाभा में आयोजित सम्मेलन में देश-विदेश के ज्योतिषियों के मध्य इन्हें
स्वर्ण पदक प्रदान किया गया ।
विभिन्न
ज्योतिषियों की भविष्यवाणी में एकरुपता के अभाव के कारणों को ढूंढ़ने के क्रम में
इनके वैज्ञानिक मस्तिष्क को ज्योतिष की कुछ कमजोरिया दृष्टिगत हुई । फलित ज्योतिष
की पहली कमजोरी ग्रहों के शक्ति-आकलन की थी । ग्रहों के निर्धारण से संबंधित
सूत्रों की अधिकता भ्रमोत्पादक थी, जिस कारण ज्योतिषियों को एक निष्कर्ष
में पहुंचने में बाधा उपस्थित होती थी । हजारो कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद
इन्होंने ग्रहों की गत्यात्मक शक्ति को ढूंढ निकाला । ग्रह-गति छ: प्रकार की होती
है - 1. अतिशीघ्री, 2. शीघ्री, 3.
सामान्य, 4. मंद, 5. वक्र ,
6. अतिवक्र ।
अपने अध्ययन में
इन्होनें पाया कि किसी व्यक्ति के जन्म के समय अतिशीघ्री या शीघ्री ग्रह अपने अपने
भावों से संबंधित अनायास सफलता जातक को जीवन में प्रदान करते हैं । जन्म के समय के
सामान्य और मंद ग्रह अपने-अपने भावों से संबंधित स्तर जातक को देते हैं । इसके
विपरीत वक्री या अतिवक्री ग्रह अपने अपने भावों से संबंधित निराशाजनक वातावरण जातक
को प्रदान करते हैं । 1981 में सूर्य और पृथ्वी से किसी ग्रह की कोणिक दूरी से उस
ग्रह की गत्यात्मक शक्ति को प्रतिशत में निकाल पाने के सूत्र मिल जाने के बाद
उन्होने परंपरागत ज्योतिष को एक कमजोरी से छुटकारा दिलाया ।
फलित ज्योतिष की
दूसरी कमजोरी दशाकाल-निर्धारण से संबंधित थी । दशाकाल-निर्धारण की पारंपरिक
पद्धतिय, त्रुटिपूर्ण थी । अपने अध्ययनक्रम में उन्होने
पाया कि ज्योतिष के प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ग्रहों की अवस्था के अनुसार ही
मानव-जीवन पर उसका प्रभाव 12-12 वर्षों तक पड़ता है । जन्म से 12 वर्ष की उम्र तक
चंद्रमा, 12 से 24 वर्ष की उम्र तक बुध,24
से 36 वर्ष क उम्र तक मंगल, 36 से 48 वर्ष की उम्र तक शुक्र,48
से 60 वर्ष की उम्र तक सूर्य,60 से 72 वर्ष की उम्र तक बृहस्पति,
72 से 84 वर्ष की उम्र तक शनि, 84 से 96 वर्ष
की उम्र क यूरेनस,96 से 108 वर्ष क उम्र तक नेपच्यून तथा
108 से 120 वर्ष की उम्र तक प्लूटो का प्रभाव मनुष्य पड़ता है | विभिन्न
ग्रहों की एक खास अवधि में निश्चित भूमिका को देखते हुए ही 'गत्यात्मक
दशा पद्धति की नींव रखी गयी | अपने दशाकाल में सभी ग्रह अपने
गत्यात्मक और स्थैतिक शक्ति के अनुसार ही फल दिया करते हैं ।
उपरोक्त दोनो
वैज्ञानिक आधार प्राप्त हो जाने के बाद ' गत्यात्मक
भविष्यवाणी करना काफी सरल होता चला गया । दशा पद्धति में नए-नए अनुभव जुडते चले गए
और शीघ्र ही ऐसा समय आया,जब किसी व्यक्ति की मात्र जन्मतिथि और
और जन्मसमय की जानकारी से उसके पूरे जीवन के सुख-दुख स्तर के उतार-चढ़ाव का
लेखाचित्र खींच पाना संभव हो गया ।
धनात्मक और
ऋणात्मक समय की जानकारी के लिए ग्रहों की सापेक्षिक शक्ति का आकलण सहयोगी सिद्ध
हुआ । भविष्यवाणिया सटीक होती चली गयी और जातक में समाहित विभिन्न संदर्भों की
उर्जा और उसके प्रतिफलन काल का अंदाजा लगाना संभव दिखाई पड़ने लगा ।
गत्यात्मक दशा
पद्धति के अनुसार जन्मकुंडली में किसी भाव में किसी ग्रह की उपस्थिति महत्वपूर्ण
नहीं होती, महत्वपूर्ण होती है उसकी गत्यात्मक शक्ति,
जिसकी जानकारी के बिना भविष्यवाणी करने में संदेह बना रहता है । गोचर
फल की गणना में भी ग्रहो की गत्यात्मक और स्थैतिक शक्ति की जानकारी आवश्यक है । इस
जानकारी पश्चात् तिथियुक्त भविष्यवाणिया, काफी
आत्मविश्वास के साथ कर पाने के लिए 'गत्यात्मक गोचर
प्रणाली' का विकास किया गया ।
गत्यात्मक दशा
पद्धति एवं गत्यात्मक गोचर प्रणाली के विकास के साथ ही ज्योतिष एक वस्तुपरक
विज्ञान बन गया है, जिसके आधार पर सारे प्रश्नों के उत्तर
हाँ या नहीं में दिए जा सकते हैं । गत्यात्मक ज्योतिष की जानकारी के पश्चात् समाज
में फैली धार्मिक एवं ज्योतिषीय भ्रांतिय, दूर की जा सकती
हैं, साथ ही लोगों को अपने ग्रहों और समय से ताल-मेल
बिठाते हुए उचित निर्णय लेने में सहायता मिल सकती है । यही नहीं, बुरे
ग्रहों के प्रभाव को दूर करने के लिए किए जाने वाले उपचार भी बिल्कुल वैज्ञानिक और
परंपरागत ज्योतिष से बिल्कुल भिन्न है । आनेवाले गत्यात्मक युग में निश्चय ही
गत्यात्मक ज्योतिष ज्योतिष के महत्व को सिद्ध करने में कारगर होगा,ऐसा
मेरा विश्वास है और कामना भी लेकिन सरकारी,अर्द्धसरकारी और
गैरसरकारी संगठनों के ज्योतिष के प्रति उपेक्षित रवैये तथा उनसे प्राप्त हो सकने
वाली सहयोग की कमी के कारण इस लक्ष्य को प्राप्त करने में कुछ समय लगेगा, इसमें
संदेह नहीं है |
गत्यात्मक दशा
पद्धति - एक परिचय :
ज्योतिष की इस
नई शाखा में प्रत्येक ग्रह के प्रभाव को अलग-अलग 12 वर्षो के लिए निर्धारित किया
गया है । साथ ही ग्रहों की शक्ति निर्धारण के लिए स्थान बल, दिक्
बल, काल बल, नैसर्गिक बल,अष्टक
वर्ग बल से भिन्न ग्रहों की गतिज और स्थैतिज ऊर्जा को स्थान दिया गया हैं । भचक्र
के 30 प्रतिशत तक के विभाजन को यथेष्ट समझा गया है तथा उससे अधिक विभाजन की
आवश्यकता नहीं समझी गयी है । लग्न को सबसे महत्वपूर्ण राशि समझते हुए इसे सभी
प्रकार की भविष्यवाणियों का आधार माना गया है ।
चंद्रमा मन का
प्रतीक ग्रह है । जन्म से 12 वर्ष की उम्र तक बालक अपने मन के अनुसार ही कार्य
करना पसंद करते हैं । इसलिए इस अवधि को चंद्रमा का दशा काल माना गया है, चाहे
उनका जन्म किसी भी नक्षत्र में क्यों न हुआ हो । चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति के
निर्धारण के लिए इसकी सूर्य से कोणिक दूरी पर ध्यान देना आवश्यक होगा । यदि
चंद्रमा की स्थिति सूर्य से 00 की दूरी पर हो, तो चंद्रमा की
गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत, यदि 90 अंश या 27अंश दूरी पर हो, तो
चंद्रमा की 'गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत और यदि 180 अंश की
दूरी पर हो, तो चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत
होती है । चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपनी परिस्थितियां प्राप्त
करते हैं । यदि चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत हो, तो
उन भावों की कमजोरियों, जिनका चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी
स्थिति है, के कारण जातक के बाल मन के मनोवैज्ञानिक विकास
में बाधाएं उपस्थित होती हैं । यदि चंद्रमा की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत हो,
तो उन भावों की अत्यधिक स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका
चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी स्थिति है, के कारण बचपन
में जातक का मनोवैज्ञानिक विकास संतुलित ढंग से होता है । यदि चंद्रमा की
गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत हो, तो उन भावों की अति सहज, सुखद
एवं आरामदायक स्थिति, जिनका चंद्रमा स्वामी है तथा जहां उसकी
स्थिति है, के कारण बचपन में जातक का मनोवैज्ञानिक विकास
काफी अच्छा होता है । 5वें 6ठे वर्ष में चंद्रमा का प्रभाव सर्वाधिक दिखायी पड़ता
है ।
बुध विद्या,
बुद्धि और ज्ञान का प्रतीक ग्रह है । 12 वर्ष से 24 वर्ष की उम्र
विद्याध्ययन की होती है, चाहे वह किसी भी प्रकार की हो। इसलिए
इस अवधि को बुध का दशा काल माना गया है । बुध की गत्यात्मक शक्ति के निर्धारण के
लिए इसकी सूर्य से कोणिक दूरी के साथ इसकी गति पर भी ध्यान देना आवश्यक होता है ।
यदि बुध सूर्य से 00 की दूरी पर स्थित हो और इसकी गति वक्र हो, तो
इसकी गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है । यदि बुध सूर्य से 260-270 के आसपास
स्थित हो तथा बुध की गति 10 प्रतिदिन की हो, तो इसकी
गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत होती है । यदि बुध सूर्य से 00 की दूरी पर स्थित हो और
बुध की गति 20 प्रतिदिन के आसपास हो, तो इसकी
गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती है । बुध की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक
विद्यार्थी जीवन में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं । यदि बुध की शक्ति 0
प्रतिशत हो, तो उन संदर्भों की कमजोरियों, जिनका
बुध स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक के
मानसिक विकास में बाधाएं आती हैं । यदि बुध की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो,तो
उन भावों की स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका बुध
स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक का
मानसिक विकास उच्च कोटि का होता है । यदि बुध की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो,
तो उन भावों की आरामदायक स्थिति, जिनका बुध
स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक का
मानसिक विकास सहज ढंग से होता है । 17वें-18वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक
दिखायी पड़ता है ।
मंगल शक्ति एवं
साहस का प्रतीक ग्रह है । युवावस्था, यानी 24 वर्ष से
36 वर्ष की उम्र तक जातक अपनी शक्ति का सर्वाधिक उपयोग करते हैं । इस दृष्टि से इस
अवधि को मंगल का दशा काल माना गया है । मंगल की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य
से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर किया जाता है । यदि मंगल सूर्य से 180 अंश की दूरी
पर स्थित हो, तो मंगल की गत्यात्मक शक्ति ० प्रतिशत, यदि
90 अंश की दूरी पर स्थित हो, तो मंगल की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत,
यदि 00 की दूरी पर स्थित हो, तो मंगल की
गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होगी । मंगल की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक
अपनी युवावस्था में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं । यदि मंगल की शक्ति ०
प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका
मंगल स्वामी है और जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक के
उत्साह में कमी आती है । यदि मंगल की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो
उन भावों की अत्यधिक स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका मंगल
स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण उनका
उत्साह उच्च कोटि का होता है । यदि मंगल की शक्ति 100 प्रतिशत के आसपास हो,
तो उन भावों की सुखद एवं आरामदायक स्थिति, जिनका
मंगल स्वामी है और जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण जातक की
परिस्थितियां सहज होती हैं । 29वें 30वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक दिखायी
पड़ता है।
शुक्र चतुराई का
प्रतीक ग्रह है । 36 वर्ष से 48 वर्ष की उम्र के अपने कार्यक्रमों को युक्तिपूर्ण
ढंग से अंजाम देते हैं । इसलिए इस अवधि को शुक्र का दशा काल माना गया है । शुक्र
की गत्यात्मक शक्ति के आंकलन के लिए, सूर्य से इसकी
कोणिक दूरी के साथ-साथ, इसकी गति पर भी ध्यान देना आवश्यक होता
है । यदि शुक्र सूर्य से 00 की दूरी पर हो और इसकी गति वक्र हो, तो
शुक्र की यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है । यदि शुक्र सूर्य से 45 अंश की दूरी के
आसपास स्थित हो और इसकी गति प्रतिदिन 10 को हो तो शुक्र की गत्यात्मक शक्ति 50
प्रतिशत होती है । यदि शुक्र की सूर्य से दूरी 00 हो और इसकी गति प्रतिदिन 10 से
अधिक हो, तो शुक्र की गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होती
है । शुक्र की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही जातक अपनी प्रौढावस्था पूर्व का समय
व्यतीत करते हैं । यदि शुक्र की शक्ति 00 हो, तो उन संदर्भों
की कमजोरियों, जिनका शुक्र स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति
है. के कारण जातक अपनी जिम्मेदारियों का पालन करने में कठिनाई प्राप्त करते हैं ।
यदि शुक्र की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन संदर्भों
की मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका स्वामी है तथा जिसमें उसकी
स्थिति है, के कारण जातक शुक्र अपनी जिम्मेदारियों का पालन
काफी सहज ढंग से कर पाते हैं । 41वें - 42वें वर्ष में यह प्रभाव सर्वाधिक दिखायी
पड़ता है |
ज्योतिष की
पुस्तकों में मंगल को राजकुमार तथा सूर्य को राजा माना गया है । मंगल के दशा काल
24 से 36 वर्ष में पिता बनने की उम्र 24 वर्ष को जोड़ दिया जाए, तो
यह 48 वर्ष से 60 वर्ष हो जाता है । इसलिए इस अवधि को सूर्य का दशा काल माना गया
है । एक राजा की तरह ही जनसामान्य को सूर्य के इस दशा काल में अधिकाधिक कार्य
संपन्न करने होते हैं । सभी ग्रहों को ऊर्जा प्रदान करने वाले अधिकतम ऊर्जा के
स्रोत सूर्य को हमेशा ही 50 प्रतिशत गत्यात्मक शक्ति प्राप्त होती है इसलिए इस समय
उन भावों की स्तरीय एवं मजबूत स्थिति, जिनका सूर्य
स्वामी है तथा जिसमें उसी स्थिति है, के कारण उनकी
बची जिम्मेदारियों का पालन उच्च कोटि का होता है ।
बृहस्पति धर्म
का प्रतीक ग्रह है। 60 वर्ष से 72 वर्ष की उम्र के वृद्ध, हर
प्रकार की जिम्मेदारियों निर्वाह कर, धार्मिक जीवन
जीना पसंद करते हैं । इसलिए इस अवधि को बृहस्पति का दशा काल माना गया है ।
बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर किया
जाता है | यदि बृहस्पति सूर्य से 180 अंश की दूरी पर
स्थित हो, तो बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति ० प्रतिशत,
90 अंश की दूरी पर स्थित हो, तो बृहस्पति की गत्यात्मक
शक्ति 50 प्रतिशत तथा यदि 00 की दूरी पर स्थित हो, तो बृहस्पति की
गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत होगी । बृहस्पति की गत्यात्मक शक्ति के अनुसार ही
जातक अपने वृद्ध जीवन में अपनी परिस्थितियां प्राप्त करते हैं । यदि बृहस्पति की
शक्ति 0 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की कमजोरियों, जिनका
बृहस्पति स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण उनका
जीवन निराशाजनक बना रहता है । यदि बृहस्पति की शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो,
तो उन भावों की मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका
बृहस्पति स्वामी है तथा जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण अवकाश
प्राप्ति के बाद का जीवन उच्च कोटि का होता है । यदि बृहस्पति की शक्ति 100
प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की आरामदायक स्थिति,
जिनका बृहस्पति स्वामी है और जिसमें इसकी स्थिति है, के
कारण जातक की परिस्थितियां वृद्धावस्था में काफी सुखद होती हैं ।
प्राचीन ज्योतिष
के कथनानुसार ही शनि को, अतिवृद्ध ग्रह मानते हुए, जातक
के 72 वर्ष से 84 वर्ष की उम्र तक का दशा काल इसके आधिपत्य में दिया गया है । शनि
की गत्यात्मक शक्ति का आकलन भी सूर्य से इसकी कोणिक दूरी के आधार पर ही किया जाता
है । यदि शनि सूर्य से 180 अंश की दूरी पर हो, तो इसकी
गत्यात्मक शक्ति 0 प्रतिशत होती है । यदि शनि सूर्य से 90 अंश की दूरी पर स्थित हो,
तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत होती है । यदि शनि सूर्य से 00
की दूरी पर स्थित हो, तो इसकी गत्यात्मक शक्ति 100 प्रतिशत
होती है । शनि की शक्ति के अनुसार ही जातक अति वृद्धावस्था में अपनी परिस्थितियां
प्राप्त करते हैं । यदि शनि की शक्ति ० प्रतिशत के आसपास हो, तो
उन भावों की कमजोरियों, जिनका शनि स्वामी है, या
जिसमें उसकी स्थिति है, के कारण अति वृद्धावस्था का उनका समय
काफी निराशाजनक होता है । यदि शनि की गत्यात्मक शक्ति 50 प्रतिशत के आसपास हो,
तो उन भावों की अत्यधिक मजबूत एवं स्तरीय स्थिति, जिनका
शनि स्वामी है, या जिसमें उसकी स्थिति है, के
कारण उनका यह समय उच्च कोटि का होता है | यदि शनि की 'शक्ति
100 प्रतिशत के आसपास हो, तो उन भावों की अति सुखद एवं आरामदायक
स्थिति, जिनका शनि स्वामी हो, था
जिसमें उसकी स्थिति हो, के कारण, वृद्धावस्था के
बावजूद, उनका समय काफी सुखद होता है ।
इसी प्रकार जातक
का उत्तर वृद्धावस्था का 84 वर्ष से 96 वर्ष तक का समय यूरेनस, 96
से 108 वर्ष तक का समय नेप्च्यून तथा 108 से 120 वर्ष तक का समय प्लूटो के द्वारा
संचालित होता है । यूरेनस, नेफ्यून एवं प्लूटो की गत्यात्मक शक्ति
का निर्धारण भी, मंगल, बृहस्पति और शनि
की तरह ही, सूर्य से इसकी कोणात्मक दूरी के आधार पर किया
जाता है । इस प्रकार इस दशा पद्धति में सभी ग्रहों की एक खास अवधि में एक निश्चित
भूमिका होती है । विंशोत्तरी दशा पद्धति की तरह एक मात्र चंद्रमा का नक्षत्र ही
सभी ग्रहों को संचालित नहीं करता है । इस पद्धति के जन्मदाता श्री विद्या सागर
महभाजी पेटखार, बोकारो निवासी हैं, जिन्होंने
इस पद्धति की नींव जुलाई 1975 में रखी । ग्रहों की गत्यात्मक शक्ति के रहस्य की
खोज 1981 में हुई । इस दशा पद्धति का संपूर्ण गत्यात्मक विकास 1987 जुलाई तक होता
रहा। 1987 जुलाई के पश्चात अब तक हजारों कुंडलियों में इस दशा पद्धति की प्रायोगिक
जांच हुई और सभी जगहों पर सफलता ही मिली । आज गत्यात्मक दशा पद्धति किसी भी कुंडली
को ग्रहों की शक्ति के अनुसार लेखाचित्र में अनायास रूपांतरित कर सकती है ।
'गत्यात्मक दशा
पद्धति' की जानकारी के पश्चात् किसी भी व्यक्ति के जीवन
की सफलता असफलता, सुख-दुख, महत्वाकांक्षा,
कार्यक्षमता एवं स्तर को लेखाचित्र में ईस्वी के साथ अंकित किया जा सकता
है । जीवन में अकस्मात् उत्थान एवं गंभीर पतन को भी ग्राफ से निकाला जा सकता है ।
सभी ग्रह, अपनी अवस्था विशेष में कुंडली में प्राप्त बल
और स्थिति के अनुसार, अपने कार्य का संपादन करते हैं लेकिन
इन 12 वर्षों में भी समय-समय पर उतार-चढ़ाव आना तथा छोटे-छोटे अंतरालों के बारे
में जानकारी इस पद्धति से संभव नहीं है । 12 वर्ष के अंतर्गत होने वाले उलट-फेर का
निर्णय 'लग्न सापेक्ष गत्यात्मक गोचर प्रणाली' से
करें, तो दशा काल से संबंधित सारी कठिनाइयां समाप्त
हो जाएंगी । इन दोनों सिद्धांतों का उपयोग होने से ज्योतिष विज्ञान दिन दूनी रात
चौगुनी प्रगति के पथ पर होगा, इसमें कोई संदेह नहीं हैं |
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