मूल लेखक - डॉ॰ सुरेन्द्र शर्मा
अर्थशास्त्र ( Economics
) विषय का अध्ययन करते समय दो प्रमुख विशेष ध्यान गया - प्रथम माँग तथा
पूर्ति का सिद्धान्त, जिसके आधार पर समाज में जिस की मांग
अधिक होती है तथा पूर्ति सीमित होती है तो उस का मूल्य बढ जाया करता है तथा जिस वस्तु की माँग कम
होता है तथा पूर्ति असीमित
होती है तो उस वस्तु का मूल्य घट जाया करता है,ठीक यही सब कुछ आज के समय में
ज्योतिष विद्या के साथ भी हो रहा है । प्राचीन काल मे अनेक गावों के अन्तर्गत एक
या दो ज्योतिषी हुआ करते थे तो उस काल में ज्योतिष का महत्व व ज्योतिषी का विशेष
सम्मान भी था और आजकल एक मोहल्ले में अनेक ज्योतिषी प्राय उपलब्ध हो जाते हैं तो
इस स्थिति में आम लोगो का
ज्योतिष के प्रति रुझान नगण्य हो गया
हैं | दिल्ली के रोहिणी क्षेत्र
में तो मानो कृषि उपज की भांति जैसे ज्योतिषियों की खेती हो रही हो । चूंकि आजकल
लगभग समस्त प्रकार का ज्ञान कम्प्युटर पर उपलब्ध कराया जा चुका है तो ज्योतिष या
ज्योतिषी के प्रति आम जनता का न तो कोई महत्व रह गया है और न ही उनके प्रति कोई
सम्मान की भावना । आर्थिक अथवा शारीरिक रूप से शिथिल होने पर ही जातक को किसी
ज्योतिषी का महत्व महसूस होता है ।
दूसरे
अर्थशास्त्र का एक प्रमुख सिद्धान्त कि अर्थशास्त्र के सभी नियम विज्ञान की तरह
प्रभावी होते हैं If other things remain unchanged . अर्थात
यदि अन्य बातें समान रहे तो ठीक यही नियम ज्योतिष विद्या पर भी सटीक बैठता है । यह
हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि ज्योतिष विद्या देश - काल - पात्र के आधार पर ही
पूर्ण रूप से फलित होती है । आजकल के मनीषी गण प्राचीन काल के देश - काल - पात्र
के अनुसार ज्योतिषीय नियमों को जब आज के बदलते हुये नवीन आधुनिक परिवेश में बिना
देश - काल - पात्र का ध्यान रखते हुये हू - ब - हू लागू करने का प्रयास करते हैं
तो यथोचित परिणाम प्राप्त नहीं हो पाते हैं तथा इस स्थिति में ज्योतिष विद्या तथा
ज्योतिषी को अविश्वसनीय दृष्टि से देखा जाता है ।
हमने विभिन्न
विषयों का अध्ययन करते समय केवल यही पढ़ा था कि अमुक विषय विज्ञान है अथवा कला या
दोनों इसी धारणा के वशीभूत होकर एक बार हमने अपने से वरिष्ठ ज्योतिर्विद जी से
अनायास पूछ लिया कि बड़े भाई जी आपकी दृष्टि में ज्योतिष विज्ञान है या कला या फिर
दोनों वे मेरे इस प्रश्न पर चौके तथा
स्पष्ट करते हुये कहा कि मेरी दृष्टि में ज्योतिष न तो विज्ञान है और न ही कला
बल्कि ये सीधा - सादा एक अनुमान शास्त्र है । उनके इस कथन पर हम हतप्रभ रह गये तथा
एक - दो अन्य वरिष्ठ विद्वानों से इस कथन की सत्यता को प्रमाणित करने का प्रयास
किया तो सभी ने कहा कि " ज्योतिष
पूर्णतः अनुमान शास्त्र तो हैं, हम कुण्डली के आधार पर किसी भी जातक के
बारे में अनुमान ही तो लगाते हैं, इसी लिये तो कह है कि जातक के साथ अमुक
घटना हो सकती है न कि होगी । "
हमने इस विषय पर
गम्भीरता से विचार किया तथा पाया कि ज्योतिष शास्त्र न तो विज्ञान है और कला और न
ही अनुमान शास्त्र बल्कि आज के इस प्रगतिशील विकासशील युग में मात्र एक भिड़न्त
विद्या है, अर्थात जातक की कुण्डली से संबन्धित किसी भी
घटना को भाव, राशि, नक्षत्र,
चरण, आदि की स्थिति, दृष्टि
युति, भावेश , भावात्भाव,
गोचर, विभिन्न दशादि, षोडस
वर्ग, भाव कुण्डली, नवांश कुण्डली
आदि के आधार पर निर्धारित व प्रमाणित कर देना भिडाना नहीं है तो और क्या है ?
जबकि देश - काल - पात्र की दृष्टि से एक समान कुंडलियों में एक ही
प्रकार का नियम भिन्न - भिन्न प्रकार का प्रभाव दिखाता है ।
जहाँ तक सनातन धर्म ( हिन्दू जाति ) तथा राजनीतिक परिस्थिति का प्रश्न है तो 1968 में इतिहास विषय का अध्ययन करते समय यह स्पष्ट कर दिया गया था कि " इतिहास साक्षी है कि हिन्दू न तो कभी एक हुये थे, ना ही है और ना ही कभी एक होंगे तथा साथ ही ना ही किसी आक्रामक शक्ति के द्वारा हिन्दू कभी समाप्त हो पाये हैं । बल्कि ये सदैव से विभिन्न विदेशी अथवा आन्तरिक आक्रमणकारी शक्तियों के द्वारा प्रताड़ित होते रहे हैं और होते रहेंगे | जहाँ ज्योतिष विद्या का प्रश्न है तो यह स्पष्ट हैं की ज्योतिष खगोल अर्थात विभिन्न ग्रहो आदि के द्वारा पर मानव पर होने वाले प्रभावों दुष प्रभावों तथा अप्रत्याशित प्रकृतिक पटनाओं के बारे में फलित करता है कि Man made problems के बारे में | इस प्रकार की समस्याओ के समाधान के बारे तो व्यक्ति को स्वयं ही निर्णय लेना होगा | यदि ध्यान से देखा जाये तो पाश्चात्य सभ्यता में ढले आज के आधुनिक विकासशील युग मे कुछ विषय ज्योतिष क्षेत्र की परिधि से लगभग बाहर हो चुके हैं | जैसे..
1॰ नौकरी सरकारी लगेगी या प्राइवेट – प्राचीन काल में नौकरी का आशय प्राय: सरकारी नौकरी से ही लगाया जाता था या फिर जातक अपना कोई भी संभावित कार्य गुजारी के लिए कर लेता था | संयुक्त परिवार थे इसलिए भरण पोषण की विशेष समस्या नहीं थी | एक कमाता था तथा 10 लोग बैठ कर खाते थे आजकल देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भरमार है जो योग्य व्यक्तियों को प्राय: उनके विद्यालय से ही नियुक्त कर लेती हैं हमने अनेक स्थानों में देखा है कि यदि 10 व्यक्तियों को सरकारी नौकरी मिल गई तो उनमे से 6 व्यक्ति सरकारी नौकरी छोड़कर अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनी में चले जाते हैं क्योंकि वहां पर उन्हे वेतन प्रमोशन विदेश गमन तथा अन्य अनेक प्रकार की सुविधाएं सरलता से प्राप्त हो जाती है इसलिए आजकल यह कह पाना अत्यंत कठिन है कि सरकारी नौकरी लगेगी या प्राइवेट |
2. विवाह कब होगा ? - यह भी बता पाना आज के परिवेश में बहुत ही कठिन कार्य हो गया है क्योंकि जातक जातिका की ऊंच आकांक्षा (उच्चशिक्षा उच्च पद आर्थिक समृद्धि, विदेश गमन आदि) ने उसके मन मष्तिस्क पर अपना पूर्ण स्वामित्व जमा रखा है, जिसके कारण वे प्रायः विवाह आयु को पार कर जाते हैं,जबकि विवाह का उपयुक्त मुहूर्त तो जातक जातिका के लिये समय - समय पर ज्योतिष की दृस्टी से आता रहता हैं |
3.संतान कब और कितनी होगी ? - आज
के बदलते परिवेश में इससे बड़ा मूर्खतापूर्ण प्रश्न कोई हो ही नहीं सकता है । जिस
समय आधुनिक चिकित्सा जान व सुविधा उपलब्ध नहीं थी, सन्तान का होना प्राय: भगवान की
देन माना जाता था तथा सन्तान उत्पत्ति पर किसी भी प्रकार की कोई रोक नहीं थी तो सन्तान होने का समय, सन्तान
की संख्या पुरुष अथवा स्त्री सन्तान की संख्या सबकुछ ज्योतिष में निहित था लेकिन आजकल तो दम्पति एक
सन्तान भी मुश्किल से चाहते हैं और वो भी अपनी मर्जी से चाहे इसके लिये उन्हें कितनी भी चिकित्सीय
सेवायें क्यों न लेनी पड़ जायें और जब चिकित्सा विज्ञान सन्तानोत्पत्ति में विफल हो
जाता है तो फिर वे ज्योतिषियों के यहाँ चक्कर प्राय: लगाते देखे गये हैं ।
4. पुत्र - वधू
परिवार के अन्य सदस्यों की क्या सेवा
करेगी ? - संयुक्त परिवार की स्थिति में यह बता पाना बहुत
ही सरल कार्य था । आज एक परिवार में पति - पत्नी का अपने परिवार के सदस्यों से
सम्बन्ध ही नहीं रह गया है तो फिर सेवा भावना कहाँ से पनपेगी । सेवा कार्य अथवा
सेवा भावना संस्कार का विषय होता है । यदि दूसरी दृष्टि से विचार किया जाये तो गुण
मिलान केवल वर - वधू का ही परस्पर किया जाता है न कि परिवार के किसी अन्य सदस्य के
साथ, अतः गृह शान्ति के लिये पति - पत्नी को तो एक -
दूसरे के प्रति समर्पित भाव से रहना ही चाहिये तथा एक - दूसरे के सहयोग से
पारिवारिक जिम्मेदारियों का पूर्ण रूपेण निर्वहन करना चाहिये । विवाह समय होने
वाली परम्परा के अनुसार एक प्रथा के अन्तर्गत वर के माता - पिता विवाह से पहले तथा
वधू के माता - पिता वधू की विदाई के समय उनसे अपना पूर्ण सम्बन्ध विच्छेद कर लेते है तो फिर दोनों परिवारों का पति -
पत्नी के जीवन निर्वाह में अनावश्यक हस्तक्षेप उनके निजी जीवन शान्ति की को प्राय बर्बाद कर देता है यहाँ तक कि
कचहरी तक जाना सम्भव हो जाता है, अतः इस सावधान रहने की आवश्यकता है ।
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