सन 1926 मे लुग्दीबाई ने जब शांति देवी के रूप में पुनर्जन्म लेकर अपने पूर्वजन्म की घटनाओं का विवरण दिया तो संसार भर के वैज्ञानिकों के लिये यह एक शोध का विषय बन गया ।
प्रस्तुत लेख मे हम कुछ प्रमुख घटनाओं की
जानकारी ज्योतिषीय आधार पर पुर्नजन्म में शांतिदेवी के जन्म कुण्डली के आधार पर
जानने का प्रयास करगें |
शांति देवी की
जन्म दिनांक 11 दिसम्बर 1926 स्थान दिल्ली
समय 13-47 दिल्ली मीन लग्न मे हुआ जिसमे मेष मे मंगल, मिथुन
मे राहू,वृश्चिक
मे सूर्य, शनि, बुध,धनु मे शुक्र,
केतु, मकर मे गुरू व कुंभ मे चन्द्र स्थित हैं | इनके पूर्वजन्म
लुग्दीबाई के जीवन के सामान्य घटनाओं की जानकारी के लिये हम नवम भाव को लग्न मानकर
अवलोकन करने के प्रयास करेगें ।
मीन लग्न की इस
पत्रिका के नवम भाव के वृश्चिक राशि है जो स्त्री संज्ञक राशि है । अतः पूर्वजन्म
में भी यह स्त्री थी । वृश्चिक राशि का वर्ण विप्र होने से इसका
पूर्वजन्म ब्राह्मण कुल में होना चाहिए तथा इस राशि का स्वामी मंगल है व यह राशि
स्वयं जल तत्व की राशि होने से पर्वतीय क्षेत्र में नदी का तट वाले स्थान पर जन्म
होना चाहिए ।
वृश्चिक राशि उतर दिशा की सूचक होने से उक्त महिला का जन्म उतरी क्षेत्र में होना
चाहिए ।
जहां तक स्वभाव आचारण का सवाल है वृश्चिक राशि एवं उसके स्थित ग्रहो के अनुसार यह
महिला मेहनती सात्विक विचार एवं धर्म के प्रति रूझान की रही होगी परन्तु इनकी वाणी
कुछ कटु हो सकती है
।
इनकी पत्रिका के
लग्न से
चतुर्थ भाव में चन्द्र स्थित है जो राहू के नक्षत्र में है अतः शिक्षा नहीं के समान
हुई होगी ।
इसकी पत्रिका के लग्न से
षष्ठम भाव मे स्वग्रही मंगल स्थित है जो अग्नितत्व ग्रह होकर अग्नितत्व की राशि
में स्थित है उसका तात्पर्य यह है कि मंगल से संबंधित बीमारी उक्त महिला को रही
होगी यानि रक्ताधिक्य का प्रवाह मासिक धर्म में तथा योनि मार्ग में वेदना रही
होगीं इसका सीधा प्रभाव हुआ होगा कि महिला को शरीर में खून की कमी होना ।
शुक्र सप्तमेश
होकर द्वितीय भाव में गुरू की राशि में केतू संग स्थित है जो परिवार का स्थान है,
गुरू द्वितीयेश होकर तृतीय भाव में बैठा है वह पंचम दृष्टि से सप्तम
भाव को देख रहा है । एकादश भाव का स्वामी बुध लग्न में शनि व सूर्य के साथ स्थित
है जो जल राशि है यह विवाह के लिये अनुकुल है । ऐसी स्थिति में द्वितीय सप्तमेश व
एकादश की संयुक्त दशा अवधि में इनका विवाह होना चाहिए । जो 16 से
17 वर्ष की आयु आती है । इसी आयु अवधि में गुरू एवं शानि का गोचर भ्रमण
भी सप्तम भाव में हेाना चाहिए । गुरू इस स्थान से सप्तम भाव, एकादश
भाव व लग्न को प्रभावित कर रहा है । शनि इस स्थान को सप्तम, नवम
लग्न एवं दशम भाव के स्थित चंद्र को प्रभावित कर रहा है जो विवाह का योग बनाते है ।
प्रथम संतान का भाव पंचम है । यह भाव किसी भी अशुभ ग्रह से प्रभावित नहीं है । इस भाव का स्वामी गुरू अवश्य ही राशि से दृष्टियोग द्वारा प्रभावित है अतः प्रथम संतान का जन्म भी अत्यंत वेदना के बाद हुआ होना चाहिए | द्वितीय संतान के लिये सप्तम भाव जिसका स्वामी बुध है वह पाप ग्रह शनि के साथ द्वादश भाव में स्थित है । सप्तम भाव में राहू स्थित है ऐसी स्थिति में द्वितीय संतान का जन्म बहुत ही ज्यादा कष्टप्रद स्थिति के यानि मृत्यु तुल्य कष्ट द्वारा हुआ होगा । तृतीय संतान के लिये नवम भाव से विचार करे तो उस भाव का स्वामी चन्द्र है जो चतुर्थ में स्थित होकर शनि से केन्द्र योग कर रहा है, नवम भाव पर मंगल की चतुर्थ दृष्टियोग एवं गुरू भी इस भाव को देख रहा है । मंगल पत्रिका जातिका की कुण्डली में षष्ठेश होकर षष्ठ भाव यानि रोग स्थान में स्थित है । अतः जातिका ने कष्टपूर्ण वातावरण में मृत्यु तुल्य कष्ट से तृतीय प्रसव को जन्म दिया एवं उसके शरीर में खून की कमी के कारण प्रसव के 5 से 6 दिन पश्चात जातिका की मृत्यु हो गई ।
इस कुण्डली में तृतीय प्रसव के समय अष्टमेश,
नवमेश दोनों पाप ग्रहो से प्रभावित होकर प्रसूति में मृत्यु योग
निर्माण कर रहे है दूसरी ओर लग्न का उपनक्षत्र स्वामी मंगल है जो 6-8-12
भावो के साथ 2-7-12 का भावो का भी कार्येश हो रहा इसमे
चंद्र बाधक होकर शनि से केन्द्रीय
योग कर रहा है जो अल्पायु येाग दर्शाता है यानि 33
वर्ष से कम | राहु
बुध की राशि में स्थित होने से बुध का प्रतिनिधित्व कर रहा है । गुरू मारक भाव का
स्वामी है । ऐसी स्थिति में गुरू दशा के राहू अंतर में शुक्र प्रत्यंतर में मृत्यु
होना चाहिए । तब जातिका की आयु 24 वर्ष के लगभग होनी चाहिए ।
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