सोमवार, 20 अगस्त 2012

बादल ओर तरंग




बादल ओर तरंग-माँ जो बादलो मे रहता हैं उसने मुझे बुलाया हम भोर सवेरे से रात अंधेरे तक खेले हम सवेरे के उजाले से रात के अंधरे चाँद तक खेले मैंने उससे पूछा मैं तुम्हारे पास कैसे आ सकता हूँ उसने कहा धरती के कोने तक आओ आकाश की ओर हाथ उठाओ बादल तुम्हें उठा लेंगे |

मैंने कहा मेरी माँ घर पर इंतज़ार कर रही होगी मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ वो मुस्कुराए ओर चले गए ओर मैं घर आ गया लेकिन मैं उनसे अच्छा खेल जानता हूँ माँ मैं बादल बन जाता हूँ ओर तुम चाँद मैं अपने दोनों हाथो से तुम्हें ढक लूँगा ओर हमारा घर नीला आकाश होगा |

जो लहरों मे रहता हैं उसने मुझे बुलाया हम सवेरे से रात तक गाते रहे ओर पता नहीं कहा से कहा तक   चलते रहे मैंने उससे पूछा मैं तुम्हारे संग कैसे चलु वो बोला तट के किनारे तक आओ ओर आँखें बंद करो तुम्हें लहरे उठा लेंगी मैंने कहा मेरी माँ हमेशा मुझे घर पर चाहती हैं मैं उसे छोड़ कर कैसे आऊ वो मुस्कुराए,नाचे ओर चले गए लेकिन मैं इससे भी अच्छा खेल जानता हूँ माँ मैं एक लहर ओर तुम अंजान तट बन जाती हो मैं तुम पर टकरा टकरा कर हँसते हुये गोद पर आता हूँ ओर दुनिया मे कोई नहीं जान पाएगा की हम कहाँ हैं |    


प्रस्तुत कविता गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टगोर द्वारा लिखी गई है जिसे हमने हिंदी में रूपांतरित किया है।

1 टिप्पणी:

Golden Park ने कहा…

pranam
me from Kagadi, patti chalansyun.
am i talking to my brother here !!!!
09898941772