शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

कैसा होगा मई माह

लीजिये दोस्तों हम फिर हाज़िर हैं पूर्व की भाँती हर माह का ज्योतिषीय आंकलन लेकर,आई पी एल सम्बंधित बहुत से फ़ोन व बधाईया हमें आ़प सभी ने भेजी इस हेतु आ़प सब का बहुत बहुत शुक्रिया हमारे कुछ मित्रो ने २०-२० विश्व कप के विषय में जानना चाहा हैं की इस वर्ष यह कप कौन जीतेगा इस पर हमारे शोध अभी जारी हैं जैसे ही पूरा होगा हम आपको अवश्य सूचित करेंगे|तब तक माई माह का आंकलन कर लेते हैं |

मई माह का ग्रह गोचर इस प्रकार से हैं|
सूर्य १५ मई को वृष राशी पर प्रवेश करेगा,मंगल २६ मई को सिंह राशी पर,बुध ७ मई को उदित होकर १२ मई को, मार्गी होगा (मेष राशी में ) गुरु २ मई को मीन राशी में प्रवेश करेगा,शुक्र१५ मई को मिथुन राशी पर तथा शनि,राहू व केतु क्रमश:कन्या ,धनु व मिथुन में गोचर करेंगे |

इस मई के माह में ५ शनिवार,५ रविवार तथा ५ ही सोमवार होंगे जिनके प्रभाव से पूर्वी राज्यों में उथल पुथल होगी,महंगाई बढेगी,जनता में विरोध बढेगा,प्राकतिक आपदाए होगी,जन धन की हानि होगी, सीमाओ पर तनाव भी बढ सकता हैं इन सबके अलावा शांति प्रयासों में कामयाबी भी मिलेगी |

माह के शुरू में ही गुरु ग्रह का शनि के साथ सम सप्तक में आना व सूर्य का नव पंचम में आना ज़बरदस्त जन हानि का संकेत दे रहा हैं,मंगल राहू का षडाष्टक योग होना उपयोगी वस्तुओ का अत्यधिक महंगा होना दर्शा रहा हैं |१५ मई के बाद सीमाओं पर युद्ध जैसे हालत बन सकते हैं|२६ मई के बाद रोगों के अधिकता होने के योग बन रहे हैं मंगल के कारण दुर्घटनाओं व अग्निकांडो में अधिकता रह सकती हैं |

विभिन्न राशियो हेतु यह माह कुछ इस प्रकार से रहेगा|
मेष,मिथुन,कर्क,सिंह व मीन राशियो के लिए यह माह उन्नति कारक व लाभ प्रदान करने वाला रहेगा जबकि वृष कन्या राशियो हेतु भाग दौड़ वाला माह रहेगा तथा अन्य राशियो के लिए यह माह मिश्रित फल प्रदान करने वाला रहेगा |

विशेष- कन्या, मकर, कुम्भ व मीन राशी वाले जातको को शनिवार के दिन शनि मंदिर में शनिदेव का तेलाभिषेक करना लाभदायक रहेगा|

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

काल सर्प "योग या दोष"

काल सर्प योग के विषय में अनेक मत भ्रांतियां हैं कुछ विद्वान् इसे भयंकर दोषों में गिनते हैं कुछ इसके आस्तित्व को ही पूर्णतया नकार देते हैं कारण चाहे कोई भी हो मानव जीवन मुख्यत: कालसर्प के कारक राहू-केतु के प्रभावों से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं यह दोनों (राहू-केतु) अद्रश्य पिंड या बिंदु हैं जो चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का परिभ्रमण करते हुए पृथ्वी पथ को काटने पर बनते हैं चूँकि ऐसा दो बार होता हैं अत: दो बिंदु निर्मित होते हैं जिन्हें क्रमश: राहू(दक्षिणीसम्पात बिंदु) तथा केतु (उत्तरी सम्पात बिंदु) कहा जाता हैं |चन्द्रमा हर माह दो बार पृथ्वी पथ को काटता हैं जिससे दो ही बिंदु निर्मित होते हैं परन्तु अलग अलग समय के अंतराल पर (लगभग १४ दिनों के अन्तर से) ऐसे में जब दो बिंदु एक साथ हैं ही नहीं तो इनके बीच आने या ग्रहों को इनके मध्य कैसे माना गया यह समझ से परे हैं |

खगोल विज्ञान से देखे तो भी मंगल,गुरु व शनि ग्रह पृथ्वी कक्षा से बाहर हैं और राहू केतु का निर्माण केवल चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी पथ को काटने पर होता है अत:मंगल,गुरु व शनि इनके बीच कभी आ ही नहीं सकते हैं |यवन आचार्यो ने भी अपने २००० प्रकार के योगो में भी इस योग की चर्चा नहीं की हैं अपनी ज्योतिष के ज्ञान के आधार पर हमारे विद्वानों ने भी कही किसी पुस्तक में इस योग की चाह्चा नहीं की हैं (सर्पयोग की चर्चा हैं ) स्वयं मैंने भी ज्योतिष के अपने अनुभव व शोधो में कालसर्प योग का ज़िक्र किसी भी पुरानी ज्योतिषीय पुस्तक में नहीं पढ़ा हैं |

अगर माना भी जाये की कालसर्प योग होता हैं तो भी यह शुभ ही होना चाहिए क्यूंकि योग शब्द की उत्त्पत्ति का अर्थ ही जोड़ना होता हैं जबकि इस योग से प्रभावित व्यक्ति टूटा व बिखरा ही दिखता हैं अत:इसे योग ना कहकर दोष क्यों नहीं कहा जाता एक तरफ तो इसके भयानक प्रभाव बतलाये जाते हैं व दूसरी तरफ इसे योग का नाम दिया जाता हैं जो की किसी भी तरह से उचित नहीं हैं एक अकेले ग्रह मंगल से प्रभावित होने पर मंगल दोष कहा जाता हैं परन्तु दो क्रूर व पाप पिंडो से प्रभावित होने पर योग कहा जाये यह बात कुछ समझ से परे हैं |

आखिर राहू केतु के मध्य ग्रहों के आ जाने से विपदाए व कष्ट क्यों मिलते हैं इसका जवाब हैं की इन दोनों पिंडो का अपना कोई आस्तित्व नहीं हैं यह जिस राशी में बैठते हैं उसी राशी के स्वामी के बल में कमी या तेजी कर देते हैं जिससे व्यक्ति विशेष परेशानी महसूस करता हैं,फिर कुछ ऐसे स्थान (कुंडली) में होते हैं जो हमारे जीवन पर बेहद प्रभाव डालते हैं (केंद्र व त्रिकोण)जिनमे बहुत से ऐसे अन्य कारण भी हैं जिनसे व्यक्ति पर प्रभाव पड़ता ही हैं | अगर यह दोनों पिंड हमेशा पीड़ा ही देते हैं तो क्यों इन्हें ३,६.११वे भाव में शुभता देते देखा गया हैं एक कारण यह भी हैं की यदि एक पिंड सही स्थान पर होगा तो दूसरा पिंड इसके बिलकुल विपरीत (१८०)स्थान पर होगा जिससे अच्छे बुरे दोनों फल होंगे, अच्छे फल न बताकर बुरे ही बताये जायेंगे तो व्यक्ति और डरेगा वैसे भी आमतौर पर देखा जाए तो हर कोई इन दोनों ग्रह पिंडो से डरा ही रहता हैं |

अंत में यही कहने चाहूँगा की यदि कालसर्प होता हैं तो वह योग नहीं हो सकता दोष होगा और यदि नहीं होता तो फिर इससे डरने के ज़रूरत ही नहीं हैं |भगवान हमेशा हमारे साथ रहते हैं हम जो भी करते हैं या करना चाहते हैं उस प्रभु की आज्ञा बिना कर ही नहीं सकते |
प्रस्तुत लेख "आ़प का भविष्य" नामक पत्रिका में मई के अंक में छपा हैं |

अगले लेख में "त्रियम्बकेश्वर नामक स्थान का क्या महत्व हैं" इस पर अपने विचार बताने की चेष्टा करूँगा |

चेन्नई की जीत हमें पता थी

जैसा की हमने पहले ही लिख दिया था की इस वर्ष का आई पी एल चेन्नई ही जीतेगी और ऐसा ही हुआ |हम जब भी कोई गणना आदि करते हैं तो यह अवश्य देखते हैं की जिस दिन यह होना हैं उस दिन का गोचर कैसा हैं तथा किस विशेष खिलाडी हेतु यह अच्छा साबित होगा | हमने अपने पिछले लेख {आई पी एल का आंकलन} में लिखा था की चेन्नई की टीम यह टूर्नामेंट जीतेगी उसका कारण था की धोनी के सितारे २५ अप्रैल के दिन बहुत प्रबल थे जबकि वही सचिन के सितारे इतना अच्छा प्रभाव नहीं दिखा रहे थे {जबकि मुंबई ही एक मात्र ऐसी टीम थी जो तब तक सेमीफायनल में पहुंची हुई थी} इसका एक और कारण भी था की यदि यह फाइनल २४ तारीख को होता तब यह फाइनल मुंबई जीत सकती थी क्यूंकि सचिन हेतु ६ का अंक हमेशा अच्छा रहा हैं जबकि धोनी के लिए ७ का अंक अच्छा रहता हैं|
इतनी गणनाए करने के बाद भी कई सारी गलतिया हो ही जाती हैं जैसे सेमीफायनल की टीमो का सही आंकलन ना हो पाना इसके लिए हम इतना ही कहना चाहेंगे की हम भी भगवान के बनाये हुए अदने से मानव हैं जिनसे गलतिया होनी ही चाहिए और होती ही हैं पर फिर भी हम यह ज़रूर कहते हैं चाहे दुनिया आपके साथ हो ना हो पर भगवान आपके साथ होना चाहिए और शायद भगवान हमारे साथ तो हैं..............................................

शुक्रवार, 16 अप्रैल 2010

भयंकर आपदाओ का महीना

सूर्य देवता मेष राशी में गए | यह राशी जैसा की आ़प सब जानते ही हैं की मंगल ग्रह की राशी हैं तथा सूर्य की ऊँच राशी भी हैं | जैसे ही यह परिवर्तन हुआ धरती पर इसका प्रभाव दिखने लगा,ज्वालामुखी का फटना,भूकंप का आना,चक्रवात का आना,आगजनी की घटनाओ का एकाएक बढ जाना यह सब नज़र आने लगा, वैसे यह परिवर्तन कोई नया नहीं हैं हर वर्ष होता हैं परन्तु इस वर्ष इसकी कुछ ख़ास विशेषता हैं एक तो मंगल ग्रह अपनी नीच राशी कर्क से सिंह राशी की और रहा हैं जो की सूर्य की ही राशी हैं,दूसरा मंगल का आश्लेषा नक्षत्र में प्रवेश जिसमे माना जाता हैं की वर्षा कम होती हैं तथा अकाल पड़ता हैं |

जैसे
ही यह मंगल ग्रह मार्गी हुआ था हमने अपने इसी ब्लॉग में पहले ही लिख दिया था की
बलात्कार की
घटनाएं,आगजनी ,विस्फोट आदि बढेंगे, चूँकि यह दोनों ग्रह अग्नि तत्त्व के हैं अत:इनका प्रभाव धरती हम मानव जन पर तुरंत पड़ता हैं जिसका अनुमान लगाना कोई मुश्किल नहीं होता आ़प सब देख ही सकते हैं |

आगामी
एक माह (१५ मई तक ) कई अन्य परेशानियो का रहने वाला हैं जिनमे प्रमुख
महंगाई का बढना,खूब गर्मी का पड़ना, दूध पानी की भयंकर कमी होना,प्राकतिक आपदाओ का एकाएक बढ जाना,किसी नेता की हत्या हो जाना,बड़े घोटालो का खुलना,किसी बड़ी रेल दुर्घटना का होना,सीमाओ पर युद्ध जैसे हालात बनना,होने की प्रबल संभावनाए हैं जिनसे सावधान रहने की आवशयकता हैं| यहाँ यह भी ध्यान रखे की ऐसा मात्र सूर्य,मंगल के कारण नहीं बल्कि अन्य ग्रह जैसे राहू केतु (अपनी अपनी नीच राशियो में ) के दुस्प्रभाव के कारण भी होगा ..................शेष फिर

गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

) चरणस्पर्श (साष्टांग प्रणाम ) करने का क्या प्रयोजन हैं ?
उ) भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति में प्राचीनकाल से ही माता-पिता,गुरुओ आदि के चरण स्पर्श करने की परम्परा रही हैं | अथर्ववेद में मानवीय व्यव्हार को लेकर आचार संहिता का पूरा एक खंड दिया गया हैं जिसमे प्रात: काल इस प्रकार के नमन को प्रमुखता दी गयी हैं | मनुस्मृति में भी कहा गया हैं की जो व्यक्ति प्रतिदिन अपने बड़ो का चरणस्पर्श करता हैं उसकी आयु,बल,विद्या,यश व कीर्ति में सदा वृद्दि होती हैं | कही कही शास्त्रों में यह भी उल्लेख मिलता हैं की इस प्रकार चरणस्पर्श करने से सामने वाले के कुछ अच्छे संस्कार व गुण आ़प पर स्वयं ही आ जाते हैं| इसलिए जितना हो सके अपने बड़ो का चरणस्पर्श करना चाहिए |

१०) अन्न्प्रासन्न संस्कार का क्या महत्व हैं ?
उ) माता के गर्भ में रहने पर शिशु में मलिन भोजन के शुद्दिकरण और शुद्ध भोजन करने की प्रक्रिया ही अन्न्प्रासन्न संस्कार कही जाती हैं| शास्त्रों के अनुसार इस संस्कार में माता-पिता शुभ मुहूर्त में जौ और चावल की खीर बनाकर देवताओ को निवेदित कर चांदी की चम्मच से शिशु को चटाते हैं, इसके साथ ही एक मंत्र भी कहा जाता हैं जिसका अर्थ होता हैं की "हे शिशु ! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक और पुष्टकारी हो"| यह दोनों वस्तुए यक्ष्मानाशक और देवान्न होने के कारण पापनाशक हैं |

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

) पूजा से पूर्व स्नान की क्या आवश्यकता हैं ?
उ) सुषुप्त अवस्था में व्यक्ति के मुख से निरंतर लार बहती रहती हैं | अत: प्रात: स्नान किये बगैर कोई भी कार्य नहीं करना चाहिए | प्रात: कालीन स्नान से अलक्ष्मी,कालकरणी,बुरे स्वप्न और विचार भी नष्ट हो जाते हैं जिनके होने से पूजा नहीं की जानी चाहिए इसलिए पूजा से पूर्व स्नान ज़रूर करना चाहिए|

) पत्नी को वामांगी क्यों कहा जाता हैं तथा बाएं क्यों बिठाया जाता हैं ?
उ) पौराणिक आख्यानो के अनुसार ब्रह्माजी के दायें स्कंध से पुरुष और बाएं स्कंध से स्त्री की उत्पति हुई हैं |यही कारण हैं की स्त्री को वामांगी कहा जाता हैं और विवाह के बाद उसे पति के बाएं भाग की और बैठाया जाता हैं |यहाँ यह भी बात ध्यान रखने योग्य हैं की जब पुरुष प्रधान धार्मिक कार्य संपन्न किये जाते हैं तो उस समय पत्नी को दायें भाग की और बैठाया जाता हैं | इसके विपरीत स्त्री प्रधान धार्मिक संस्कारों में पत्नी पति के वाम अंग की और ही बैठती हैं |संस्कार गणपति में सिंदूरदान,भोजन,शयन और सेवा के समय पत्नी को हमेशा पति के वाम अंग की और ही रहना चाहिए |आशीर्वाद और ब्राह्मण के पैर पखारते समय भी पत्नी को पति के बाई और ही रहना चाहिए |

)तिलक में विभिन्न द्रव्यों का क्या महत्व हैं ?
उ) विभिन्न द्रव्यों से बने तिलक की अलग अलग उपयोगिता और महत्व होता हैं |चन्दन का तिलक तरो- ताजगी व ठण्डकता प्रदान करता हैं |कुमकुम का तिलक तेजस्विता को प्रखर करता हैं |विशुद्ध मिट्टी का तिलक कीटाणुओ को दूर करता हैं तथा यज्ञ भस्म का तिलक सौभाग्य में वृद्धि करती हैं |

)आचमन तीन बार क्यों कराया जाता हैं ?
उ) वेदों में आचमन तीन बार कहा गया हैं क्यूंकि तीन बार आचमन करने से शारीरिक,मानसिक और वाचिक तीनो प्रकार के पापो से मुक्ति मिल जाती हैं और अनुपम आदर्श फलो की भी प्राप्ति होती हैं |

) सगोत्री विवाह वर्जित क्यों कहे गए हैं ?
उ) प्राचीन समय में सगोत्री विवाह इसलिए वर्जित माने गए हैं क्यूंकि एक तो इनसे दुसरे समाज व राज्यों से प्रसार नहीं हो सकता था तथा दूसरा एक ही गोत्र विवाह होने से व्यभिचार कर्म को भी बढावा मिल सकता था |आज के सन्दर्भ में कहे तो आधुनिक चिकित्सा भी यह स्पष्ट कर चुकी हैं की सगोत्र विवाह से उत्पन्न संतानों में आनुवांशिक दोष होने के सम्भावना ज्यादा होती हैं |इसलिए सगोत्री विवाह नहीं करना चाहिए .........................................जारी