काल
सर्प योग या दोष
कालसर्प
योग के विषय मे अनेक मत व भ्रांतिया हैं कुछ विद्वान इसे भयंकर दोषो मे गिनते हैं
तो कुछ इसके आस्तित्व को ही पूर्णतया नकार देते हैं कारण चाहे कोई भी हो मानव जीवन मुख्यत: कालसर्प के
कारक राहू-केतू के प्रभावो से सबसे ज़्यादा प्रभावित होते हैं | यह दोनों अद्रष्य पिंड या बिन्दु हैं जो चन्द्र द्वारा
पृथ्वी का परिभ्रमण करते हुये पृथ्वी पथ को काटने पर बनता हैं चूंकि ऐसा दो बार
होता हैं अत: दो बिन्दु निर्मित होते हैं जिन्हे क्रमश: राहू (दक्षिणी संपात बिन्दु)
व केतु ( उत्तरी संपात बिन्दु ) कहा जाता हैं | चन्द्र हर
माह दो बार पृथ्वी पथ को काटता हैं जिससे दो ही बिन्दु निर्मित होते हैं परंतु अलग
अलग समय के अंतराल पर (लगभग 14 दिनो के अंतर से )| ऐसे मे जब
दो बिन्दु एक साथ है ही नहीं तो इनके बीच आने या ग्रहो को इनके मध्य कैसे माना गया
हैं यह समझ से परे हैं |
खगोल विज्ञान
से देखे तो भी मंगल,गुरु व शनि ग्रह
पृथ्वी की कक्षा से बाहर स्थित हैं और राहू-केतू का निर्माण केवल चन्द्र द्वारा
पृथ्वी पथ को काटने पर होता हैं अत: गुरु,मंगल व शनि इनके
बीच कभी आ ही नहीं सकते हैं | यवनाचार्यों ने भी अपने 2000
प्रकार के योगो मे भी इस योग की चर्चा नहीं की हैं अपने ज्योतिष के ज्ञान के आधार
पर हमारे विद्वानो ने भी किसी भी पुस्तक मे इस योग की चर्चा नहीं की हैं (सर्पयोग
की चर्चा हैं ) स्वयं मैंने भी अपने अनुभव व शोधो मे कालसर्प योग का ज़िक्र किसी भी
पुरानी ज्योतिषीय पुस्तक मे नहीं पढ़ा हैं |
अगर
माना भी जाए की कालसर्प योग होता हैं तो भी इसे शुभ ही होना चाहिए क्यूंकी योग
शब्द की उत्पत्ति का अर्थ ही जोड़ना होता हैं जबकि इस योग से प्रभावित जातक टूटा व
बिखरा ही दिखता हैं अत: इसे योग ना कहकर दोष क्यूँ नहीं कहा जाता,एक तरफ तो इसके भयानक प्रभाव बताए जाते हैं व दूसरी तरफ
इसे योग का नाम दिया जाता हैं जो किसी भी तरह से उचित नहीं हैं | एक अकेले ग्रह मंगल से प्रभावित होने पर मंगल दोष कहा जाता हैं परंतु दो
क्रूर व पाप पिण्डो से प्रभावित होने पर योग कहा जाये यह बात कुछ समझ से परे हैं |
आइए अब
देखते हैं की इस कुयोग की शांति हेतु “त्रयम्ब्केश्वर” नामक स्थान का क्या महत्व
हैं | प्राचीन काल से ही इस स्थान मे
सर्पशाप की शांति व पित्रदोष हेतु नागबलि विधान किया जाता रहा हैं 1980 के दशक से
इस जगह का महत्व घटता जा रहा था (कलयुग मे सर्पदोष को लोग नकारने व ना मानने लगे हैं
) तब तथाकथित कुछ कर्मकांडी विद्वान ब्राह्मणो व ज्योतिषियो ने इस योग को प्रचारित
करना शुरू किया की कुंडली मे जिस भी व्यक्ति के सभी ग्रह राहू-केतू के मध्य हो (जो
की असंभव व साधारण सी एक घटना हैं ) उन्हे इस जगह आकर इसकी शांति करवानी चाहिए
जिससे इस स्थान का महत्व फिर से बढ्ने लगा,आज तो हर शहर मे
ही इस योग की शांति कराई जा रही व जनता को भ्रमित किया जा रहा हैं |
आखिर
राहू-केतू के मध्य ग्रहो के आ जाने से विपदाये व कष्ट क्यू मिलते हैं इसका जवाब यह
हैं की इन पिण्डो का अपना कोई आस्तित्व नहीं हैं यह जिस राशि मे बैठेंगे उसी राशि
के स्वामी के बल मे तेजी या कमी कर देते हैं जिससे व्यक्ति परेशानी महसूस करता हैं
फिर कुछ ऐसे स्थान कुंडली मे होते हैं जो हमारे जीवन मे बेहद प्रभाव डालते हैं
(केंद्र व त्रिकोण) जिनमे ऐसे बहुत से अन्य कारण भी हैं जिनसे व्यक्ति पर प्रभाव
पड़ता ही हैं | अगर यह दोनों पिंड हमेशा
पीड़ा ही देते हैं तो क्यू 3,6,11 भावो मे इन्हे बहुत शुभता
देते देखा गया हैं एक कारण यह भी हैं की यदि एक पिंड सही स्थान मे होगा तो दूसरा
उससे सप्तम स्थान मे होगा जिससे अच्छे बुरे दोनों फल प्राप्त होंगे अच्छे फल ना
बताकर बुरे फल ही बताए जाएंगे तो व्यक्ति और डरेगा वैसे भी आमतौर से देखने पर हर
कोई इन दोनों ग्रहो से डरा ही रहता हैं |
अंत मे
यह कहना चाहूँगा की यदि कालसर्प होता हैं तो वह योग नहीं दोष होगा और यदि नहीं
होता हैं तो फिर इससे डरने की ज़रूरत ही नहीं हैं | भगवान हमेशा हमारे साथ रहते हैं हम जो करते हैं या करना चाहते हैं उस
प्रभु की आज्ञा के बिना कर ही नहीं सकते हैं |
यह
मेरे कालसर्प के विषय मे व्यक्तिगत विचार हैं यदि किसी की इससे आपत्ति हैं तो मैं
क्षमाप्रार्थी हूँ
प्रस्तुत
लेख आप का भविष्य नामक ज्योतिषीय पत्रिका मे मई 2010 के अंक मे प्रकाशित हुआ हैं |
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