रविवार, 17 फ़रवरी 2013
बुधवार, 13 फ़रवरी 2013
पंचांग गणितीय विधि
पंचांग शब्द पाँच अंगो से मिलकर बना हैं जिसमे निम्न पाँच अंग
होते हैं तिथि,वार,नक्षत्र,योग व करण |किसी भी कार्य करने हेतु उपयुक्त समय ज्ञात करना इन्ही पांचों
अंगो पर निर्भर करता हैं जिसे मुहूर्त निकालना कहाँ जाता हैं |
आइए मुहूर्त
के इन्ही पांचों अंगो को गणितीय विधि से निकालने का प्रयास करते हैं |
१)तिथि –अमावस्या
के दिन से सूर्य ओर चन्द्र के भोगांशों का अंतर बढ्ने लगता हैं (अमावस्या को दोनों
के भोगांश समान होते हैं ) इस अंतर का बढ़ना ही तिथि कहलाता हैं | जिसे गणितीय
दृस्टी से निम्न सूत्र द्वारा ज्ञात किया जाता हैं |
तिथि=(चन्द्र
भोगांश-सूर्य भोगांश)/12अंश
यदि
चंद्रमा के भोगांश सूर्य भोगांश से कम हो तो चन्द्र भोगांश मे 12 राशियाँ जोड़ देते
हैं |
आइये एक
उदाहरण से तिथि निकालना सीखते हैं | चन्द्र भोगांश 2राशि 02अंश 26मिनट हैं तथा सूर्य भोगांश
11राशि 08अंश 14मिनट हैं तो तिथि होगी |
=(2-02-26)-(11-08-14)/12अंश
=(14-02-26)-(11-08-14)/12अंश
=(13-32-26)-(11-08-14)/12अंश
=(2-24-12)/12अंश
=(2*30=60)+24=84अंश
12मिनट/12अंश
(2 राशि
यानि साठ अंश +24 अंश =84 अंश 12 कला को 12 से भाग देने पर हमें )
7-01 अर्थात “अष्टमी” तिथि प्राप्त होती
हैं |
जैसे ही
चन्द्र सूर्य से आगे बढ़ता हैं तो तिथि आरंभ होती हैं और जैसे ही इनका अंतर 12 अंश का हो जाता
हैं तब तक
पहली तिथि ही रहती हैं | जब तिथि का अंतर 0-180 होता हैं तब वह शुक्ल पक्ष की
तिथि होती हैं जब यह अंतर 180-360 होता हैं तब तिथि कृष्ण पक्ष की होती हैं उपरोक्त
उदाहरण मे हमारी तिथि 84 अंश 12 कला की थी जो की 0-180 के मध्य मे आती हैं यानि यह
तिथि शुक्ल पक्ष की अष्टमी हुई |
तिथियो के
नाम- शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष मे तिथियो के नाम एक से ही रहते हैं परंतु शुक्ल
पक्ष की 15वी तिथि पूर्णिमा तथा कृष्ण पक्ष की 15वी तिथि अमावस्या कहलाती हैं |कृष्ण पक्ष की
तिथिया 1 से 15 के स्थान पर 16 से 30 भी लिखी जाती हैं |
तिथियो के
नाम व संख्या –
प्रतिपदा
(1,16), द्वितीया (2,17),तृतीया (3,18), चतुर्थी (4,19), पंचमी (5,20), षष्ठी (6,21), सप्तमी (7,22), अष्टमी (8,23), नवमी (9,24), दशमी (10,25),एकादशी (11,26),द्वादशी (12,27),त्रियोदशी (13,28),चतुर्दशी (14,29),पुर्णिमा/अमावस्या (15,30
2)वार–सूर्योदय
से अगले सूर्योदय तक के समय को वार कहाँ जाता हैं जिससे उस दिन के स्वामी की
गणना की जाती हैं | वार मुख्यत; सात माने जाते
हैं जिन्हे रवि,सोम,मंगल,बुध,गुरु,शुक्र व शनि वारो के नाम से बुलाया जाता हैं |यह वार पृथ्वी से इन ग्रहो की दूरियो
के अनुसार रखे गए हैं |सूर्य (1),बुध (4),शुक्र (6),चन्द्र (2),मंगल (3),गुरु (5),शनि (7)
वार ज्ञात
करने की गणितीय विधि इस प्रकार से हैं –एक वर्ष मे सप्ताह निकालने पर एक दिन तथा
लीप वर्ष मे दो दिन शेष मिलते हैं (365/7=52 शेष 1)जिससे 100 वर्षो मे 5 दिन अधिक
हो जाते हैं (100+24 लीप दिन /7=17 शेष 5)
आइये इसे
एक उदाहरण से सीखते हैं | 3 अप्रैल 2010 का वार क्या होगा ?
2000
वर्षो मे अधिक दिन =00
9 वर्षो
मे अधिक दिन (9/7)=02
लीप वर्षो
मे अधिक दिन =02
जनवरी
2010 के दिन (31/7)=03
फरवरी
2010 के दिन (28/7)=00
मार्च
2010 के दिन (31/7)=03
अप्रैल
2010 के दिन =03
कुल दिनो
का योग =13 जिसे 7 से भाग देने पर हमें 6 शेष मिला जो की सोमवार से गिनने पर
शनिवार का दिन हुआ |प्रस्तुत तरीके मे हम दिन सोमवार से ही गिनेंगे क्यूंकी
एडी(एंटी डोमिनो) का आरम्भ सोमवार से माना गया हैं सोमवार को 1,मंगल को 2,...........तथा शनि को 6
गिना जाता हैं |
वार
निकालने का एक अन्य सूत्र इस प्रकार से हैं –इसके लिए हमे एक ध्रुवांक सारणी की
ज़रूरत पड़ती हैं |
क्रम माह जन
फर मा अ म जू जु अ सि अ न दि
1 समान्य १ 4 4
0 2 5 0 3 6 1 4 6
2
लीपवर्ष 0 3
3 0 2 5 0 3 6
1 4 6
1)सर्वप्रथम
दिये गए सन के दहाई अंक को 4 से भाग करे |(शताब्दी वर्ष मे 100 को भी जोड़ेंगे )
2) भागफल
मे दिया गया वर्ष जोड़े (केवल दहाई )
3)इसमे दि
गयी तारीख जोड़े |
4)फिर माह
का ध्रुवांक जोड़े |
5) अब इसमे
7 का भाग कर शेष को रविवार से गिने |
आइए इसे
एक उदाहरण से समझते हैं | 15-8-1947 का वार इस प्रकार देखेंगे ?
दहाई के
अंक 47 को 4 से भाग देने पर भागफल 11 आया
इसमे दिया
गया वर्ष 47 जोड़ा तो (11+47=58)आया
इसमे दि
गयी तारीख जोड़ने पर 58+15=73 आया
जिसमे
अगस्त माह का ध्रुवांक जोड़ने पर 73+3=76 आया
इसे 7 से
भाग देने पर 6 शेष आया जो की रविवार से गिनने पर शुक्रवार आया यानि 15-8-1947 को
शुक्रवार का दिन था |
नक्षत्र-वैदिक
ज्योतिष मे नक्षत्र का विशेष स्थान हैं प्रत्येक नक्षत्र का भोगांश 360/27=13 अंश
20 मिनट होता हैं कोई भी ग्रह किस नक्षत्र मे हैं इसका पता लगाने के लिए ग्रह के
भोगांशों को 13 अंश 20 मिनट से भाग देकर भागफल मे एक जोड़ देना चाहिए जिससे ग्रह का
नक्षत्र ज्ञात हो जाता हैं | हमारे यहाँ (भारत मे )चंद्रमा के नक्षत्र को जन्म
नक्षत्र कहाँ गया हैं अत; इसी जन्म नक्षत्र से शेष भोग्य दशा की गणना होती हैं |
यदि
चन्द्र का भोगांश 236 अंश 43 मिनट हैं (चन्द्र राशि को 30 से गुना किया गया हैं )
तो नक्षत्र होगा |
(236*60)+43/(13*60)+20=14203/800=17.75375
अर्थात 18वा नक्षत्र जो की ज्येष्ठा नक्षत्र हैं जिसका चौथा चरण चल रहा हैं
(नक्षत्र के चार चरण होते हैं ) यदि दशमलव 0 से 25 हो तो पहला चरण 25 से 50 हो तो
दूसरा चरण 50 से 75 हो तो तीसरा चरण और 75 से ऊपर हो तो चौथा या अंतिम चरण होता
हैं |
नक्षत्रो
के नाम व स्वामी इस प्रकार से हैं |
1)अश्वनी10) मघा,19) मूल स्वामी {केतू}|
2)भरणी
11) पूर्वाफाल्गुनी 20) पूर्वाषाढ़ा स्वामी {शुक्र}|
3)कृतिका
12) उत्तराफाल्गुनी21) उत्तराषाढ़ा स्वामी {सूर्य}|
4)रोहिणी
13) हस्त 23) श्रवण स्वामी {चन्द्र}|
5)मृगशिरा
14) चित्रा 23) धनिष्ठा स्वामी {मंगल}|
6)आद्रा
15) स्वाति 24) शतभिषा स्वामी {राहू}|
7)पुनर्वसु
16) विशाखा 25) पूर्वा भाद्रपद स्वामी {गुरु}|
8)पुष्य
17) अनुराधा 26) उत्तरा भाद्रपद स्वामी {शनि}|
9)आश्लेषा
18) ज्येष्ठा 27) रेवती स्वामी {बुध}|
आइए अब एक
उदाहरण देखते हैं | चन्द्र का भोगांश 2राशि 2अंश तथा 26मिनट हैंनक्षत्र बताए ?चन्द्र दो राशि
चल चुका हैं इसलिए (2*30)+2=62 अंश 26 मिनट=(62*60)+26/800=3746/800=4.68 अर्थात 5
वा नक्षत्र जो की “मृगशिरा” हैं चूंकि दशमलव 50 से 75 के बीच हैं इसलिए तीसरा चरण
चल रहा हैं |
योग- कुल
योगो की संख्या 27 हैं जो सूर्य और चन्द्र के भोगांश से जुड़कर समन्वय बनाते हैं | योग ज्ञात करने
के लिए सूर्य व चन्द्र के भोगांशों को जोड़कर 13अंश 20मिनट अर्थात 800 मिनट से भाग
देते हैं जो भागफल आता हैं उसमे एक जोड़ देते हैं |
यदि सूर्य
का भोगांश 4राशि 23अंश 34मिनट हैं और चन्द्र का भोगांश 5राशि 16अंश 12मिनट हैं
तो योग =(4राशि 23अंश 34मिनट +5राशि 16अंश 12मिनट )=10 राशि 9अंश 46मिनट हुआ, इसे 13 अंश 20मिनट
अर्थात 800 मिनट से भाग देने पर हमें 23॰2325 प्राप्त होता हैं |
{(10*30)+9=309अंश 46मिनट/13अंश 20मिनट=(309*60)+46/800=18586/800=23.2325
}
इस 23 मे
एक जोड़ने पर 24 हुआ जो की 24वा योग अर्थात “शुक्ल” योग हुआ |
योगो के
नाम निम्न हैं |
1)विषकुंभ 10) गण्ड 19) परिधि
2)प्रीति 11)
वृद्धि 20) शिव
3)आयुष्मान
12) ध्रुव 21) सिद्धा
4)
सौभाग्य 13) व्याघात 22) साध्य
5)शोभन
14) हर्षना 23) शुभ
6)
अतिगण्ड 15) वज्र 24) शुक्ल
7)
सुकर्मा 16) सिद्धि 25) ब्रह्म
8) घृती
17) व्यतिपात 26) इंद्र
9) शूल
18) वरियान 27) वैधृति
आइए अब एक
उदाहरण देखते हैं | सूर्य भोगांश 11राशि 8अंश14 मिनट हैं तथा चन्द्र भोगांश
2राशि 2अंश 26मिनट हैं योग बताए ?
(सूर्य
भोगांश व चन्द्र भोगांश)जोड़ने पर={11राशि 8अंश 14मिनट+ 2राशि 2अंश 26मिनट}/13अंश 20मिनट =(13राशि
10अंश 40मिनट)/13राशि 20मिनट
=1राशि
10अंश 40मिनट/13अंश 20मिनट (12 राशियो से ज़्यादा होने पर 12 राशिया घटाए )
=(1*30)+10=40
अंश 40 मिनट =(40*60)+40/800=2440/800=3.05
=3+1=4
अर्थात चौथा योग जो की “सौभाग्य” नामक योग हुआ |
करण=एक तिथि
के आधे भाग को “करण” कहते हैं (एक तिथि मे दो करण होते हैं ) इसे चन्द्र के भोगांश
से सूर्य के भोगांश को घटाकर शेषफल को 6 अंशो से भाग देकर जाना जाता हैं |
करण=(चन्द्र
भोगांश-सूर्य भोगांश)/6अंश
करण
मुख्यत;11 होते हैं
जिनमे 7 चर करण (बव,बालव,कौलव,तैतिल,गर,वनिज व विष्टि) तथा 4 स्थिर (शकुनि,चतुष्पाद,नाग व किन्तुघ्न)
करण होते हैं | यह 7 चर करण एक महीने मे 8 बार आते हैं जबकि स्थिर करण 4 बार
आते हैं जिनसे कुल 60 (7*8+4=60) करण हो जाते हैं |
करणो का
क्रम-1)बव,2) बालव,3) कौलव, 4) तैतिल, 5) गर, 6) वनिज,7) विष्टि
8)
शकुनि(कृष्णपक्ष की चतुर्दशी का दूसरा भाग),9) चतुष्पाद(अमावस्या का पहला भाग ),10) नाग(अमावस्या का
दूसरा भाग ),11) किन्तुघ्न(शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा का पहला भाग )
किन्तुघ्न
से गणना आरंभ करने पर 7 (चर करण) 8 बार पुनरावरत होते हैं अर्थात दोबारा आते हैं
(शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तक)अंत मे तीन स्थिर करण (कृष्ण
पक्ष चतुर्दशी के दूसरे भाग से शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पहले भाग तक) आते हैं |
आइए इसे
एक उदाहरण से समझते हैं | 23-3-2010 को सूर्य भोगांश 11राशि 8अंश 14मिनट हैं तथा
चन्द्र भोगांश 2राशि 2अंश 26मिनट हैं तो करण बताए ?
=(2राशि
2अंश 26मिनट)-(11राशि 8अंश 14मिनट)/12अंश
=(14राशि
2अंश 26मिनट)-(11राशि 8अंश 14मिनट)/12अंश
=2राशि
24अंश 12मिनट /12अंश
=84अंश
12मिनट /12 अंश
=7.01(अष्टमी
तिथि )
करण=84अंश
12मिनट /6अंश
=14.02
(पंद्रहवा करण) जो की किन्तुघ्न शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से गिनने पर “विष्टि” करण
हुआ |
यदि
भोगांश अंतर 0 से 180 के बीच आए तो तिथि शुक्लपक्ष की तथा 180 से 360 के बीच आए तो
तिथि कृष्ण पक्ष की होगी इसी प्रकार यदि तिथि ०.५० से पहले की हो तो दिन का पहला
करण व तिथि ०.५० से अधिक की हो तो दिन का दूसरा करण होगा |
इस प्रकार
हम पंचांग के पांचों तत्वो को गणितीय दृस्टी से निकाल कर मुहूर्त स्वयं प्राप्त कर
सकते हैं |
बुधवार, 6 फ़रवरी 2013
ल्यूकोडर्मा
ल्यूकोडर्मा
हमारी त्वचा की दो परते
होती हैं बाहरी परत व भीतरी परत |भीतरी
परत के नीचे के भाग मे मेलानोफोर नामक कोशिका
मे एक तत्व “मेलानिन” होता हैं जिसका मुख्य कार्य हमारी त्वचा को प्राकतिक वर्ण
अथवा रंग प्रदान करना होता हैं | जब यह
तत्व किसी भी प्रकार से विकृत हो जाता हैं तब “स्वित्र” यानि “ल्यूकोडर्मा” नामक
रोग हो जाता हैं जिसे आम बोलचाल की भाषा मे “सफ़ेद दाग” अथवा “फुलेरी” भी कहाँ जाता
हैं|
मेलानिन नाम के तत्व त्वचा
के भीतर नीचे की सतह मे उत्पन्न होकर ऊपर की ओर आकर त्वचा को प्राकतिक रंग प्रदान
करते हैं | त्वचा के जिन भागो मे इस तत्वकी
कमी या अभाव किसी भी वजह से होता हैं तो
वह भाग बाहरी त्वचा मे सफ़ेद दाग के रूप मे दिखाई देने लगता हैं |
आयुर्वेद मे इस रोग को अनुचित खान पान के कारण होने वाले रोगो की श्रेणी मे रखा
गया हैं जिसके अनुसार कफ की अधिकता के कारण त्वचा की छोटी छोटी शिराओ मे अवरोध होने
से मेलानिन तत्व उत्पन्न नहीं हो पाता हैं और यह रोग जन्म ले लता हैं |
ज्योतिषीय दृस्टी से देखने
पर हमें इस रोग को देखने हेतु निम्न भाव व ग्रहो का अध्ययन करना चाहिए |
भाव-लग्न,षष्ठ
व अष्टम भाव
ग्रह-सूर्य,बुध,मंगल,शुक्र
व लग्नेश
लग्न भाव हमारे शरीर को
दर्शाता हैं हमारे शरीर मे होने वाले किसी भी प्रकार के विकार व बदलाव को हम लग्न
पर पड़ने वाले प्रभाव से ही देखते हैं | इसी
लग्न से हम सामान्य भौतिक स्वास्थ्य को देखते हैं |
षष्ठ भाव मुख्यत;किसी
भी प्रकार के रोगो हेतु इस भाव को अवश्य देखा जाता हैं इसी भाव से बीमारी की अवधि
का भी पता चलता हैं, बीमारी छोटी होगी या बड़ी यह भी
इसी भाव द्वारा जाना जाता हैं |
अष्टम भाव यह बीमारी के
दीर्घकालीन प्रभाव को बताता हैं इसी भाव से बड़ी बीमारी का भी पता चलता हैं |
सूर्य ग्रह- सूर्य को लग्न
का व आरोग्य का कारक माना जाता हैं इसी सूर्य से हम व्यक्ति विशेष का तेज व आत्मविश्वास भी देखते हैं इस बीमारी के होने से
व्यक्ति आत्महीनता महसूस करने के कारण आत्मविश्वास खोने लगता हैं |
सूर्य का किसी भी रूप मे पाप प्रभाव मे होना या अशुभ होना इस बीमारी का एक कारण हो
सकता हैं |
बुध ग्रह- यह ग्रह हमारी
बाहरी अथवा ऊपरी त्वचा का कारक माना जाता हैं इसी ऊपरी त्वचा पर इस बीमारी के
लक्षण अथवा सफ़ेद धब्बा आने पर बीमारी का पता चलता हैं |
किसी भी प्रकार के बाहरी प्रभाव का पता भी इसी त्वचा कारक से चलता हैं इसलिए इस
बीमारी मे इसका अशुभ होना अवश्यंभावी हैं |
लग्नेश - शरीर का
प्रतिनिधित्व करता हैं इस ग्रह का किसी भी रूप से पीड़ित होना कोई भी बीमारी होने
के लिए आवशयक हैं जब तक लग्नेश पीड़ित नहीं होगा शरीर मे बीमारी नहीं हो सकती |
मंगल –
शरीर
मे उन तत्वो का निर्माण करने मे सहायक होता हैं जो त्वचा को रंग प्रदान करते हैं |
यही
मंगल त्वचा मे किसी भी प्रकार के दाग-धब्बो का कारक भी होता हैं |
खुजली
खारिश किसी भी प्रकार के फोड़े फुंसी व संक्रमण को इसी मंगल गृह से देखा जाता हैं
अत; इसका भी किसी ना किसी पाप या अशुभ प्रभाव मे
होना ज़रूरी हैं |
शुक्र ग्रह- यह ग्रह त्वचा
की सुंदरता,चमक व निखार का कारक हैं जिस जातक
का शुक्र जितना अच्छा होता हैं उसकी त्वचा मे उतनी ही चमक होती हैं इस बीमारी के
कारण त्वचा की चमक नहीं रहती जिससे यह ज्ञात होता हैं की शुक्र ग्रह को भी अशुभ या
पाप प्रभावित होना चाहिए |
आइए अब इस बीमारी
(ल्यूकोडर्मा) को कुछ जन्म पत्रिकाओ मे देखने का प्रयास करते हैं |
1)14-6-1983 11:40 अमरावती,सिंह
लग्न की इस कुंडली मे लग्न पर मंगल व लग्नेश सूर्य,त्वचाकारक
बुध तथा मंगल पर गुरु वक्री(अष्टमेश)का प्रभाव हैं |शुक्र
द्वादशेश चन्द्र संग द्वादश भाव मे शनि द्वारा द्र्स्ट हैं |
इस प्रकार सभी अवयव प्रभावित होने से यह जातिका ल्यूकोडर्मा से पीड़ित हैं और इसका
इलाज़ करा रही हैं
2)19-4-1975 19:30 दिल्ली,
तुला लग्न की इस कुंडली मे लग्न पर राहू(नक्षत्र) का प्रभाव हैं लग्नेश शुक्र
स्वयं अष्टम भाव मे राहू केतू अक्ष व मंगल(शत्रु राशि) द्वारा द्र्स्ट हैं वही
त्वचाकारक बुध अस्तावस्था मे केतू के
नक्षत्र मे हैं | सूर्य
भी ऊंच का होकर केतू के नक्षत्र मे ही हैं इस प्रकार सभी अवयव प्रभावित होने से जातिका
इस रोग से पीड़ित हैं |
3) 2-12-1987 2:30
(हरियाणा) कन्या लग्न की इस कुंडली मे लग्न पर राहू केतू प्रभाव हैं लग्नेश बुध
अस्तावस्था मे सूर्य संग शनि से पीड़ित हैं मंगल अस्टमेश(राहू के स्वाति नक्षत्र मे
हैं) तथा शुक्र (केतू के मूल नक्षत्र मे) होने से पाप प्रभाव मे हैं |
इस प्रकार इस पत्रिका मे भी सभी अवयव प्रभावित होने से यह जातिका भी इस रोग से
पीड़ित हैं |
4) 6-9-1936 13:40
गाज़ियाबाद वृश्चिक लग्न की यह कुंडली एक प्रसिद्ध वकील की हैं |
पत्रिका मे लग्न पर शनि की दृस्टी हैं लग्नेश मंगल नीच राशि के हैं सूर्य पर शनि
का प्रभाव हैं शुक्र नीच राशि मे हैं तथा त्वचाकारक बुध चन्द्र के नक्षत्र मे हैं
जो स्वयं षष्ठ भाव मे शनि द्वारा द्र्स्ट हैं |
इस प्रकार सभी अवयव के प्रभावित होने से जातक 1985 से इस रोग से पीड़ित रहे हैं |
5) 4-6-1968 19:57 दिल्ली
धनु लग्न की इस कुंडली मे लग्न व लग्नेश दोनों केतू के नक्षत्र मे हैं सूर्य,शुक्र
व मंगल षष्ठ भाव मे शनि द्वारा द्र्स्ट हैं व त्वचाकारक बुध राहू के नक्षत्र मे
हैं | इस जातिका के समस्त चेहरे व शरीर
मे यह बीमारी हैं |
6) 28-3-1954 6:04
(तमिलनाडू) मीन लग्न की इस कुंडली मे लग्न व लग्नेश दोनों पर मंगल का प्रभाव हैं
(लग्नेश गुरु मंगल के नक्षत्र मे हैं)मंगल स्वयं राहू केतू व शनि के प्रभाव मे हैं
सूर्य शुक्र पर भी इसी पापी मंगल का प्रभाव हैं वही त्वचा कारक बुध द्वादश भाव मे
राहू के नक्षत्र मे स्थित हैं सभी अवयव प्रभावित होने से जातक को यह ल्यूकोडर्मा रोग
हुआ |
7) 2-9-1943 4:20 दिल्ली
कर्क लग्न की इस कुंडली मे लग्न राहू केतू प्रभाव मे तथा लग्नेश द्वादशेश बुध संग
पीड़ित हैं बुध स्वयं चन्द्र नक्षत्र मे हैं सूर्य शुक्र पर शनि व मंगल की दृस्टी
हैं मंगल पर शनि की दृस्टी हैं शनि अस्टमेश भी हैं |
इन सभी कारणो से जातक काफी समय से ल्यूकोडर्मा से पीड़ित हैं |
8) 21-1-1993 9:01
गाज़ियाबाद कुम्भ लग्न की इस कुंडली मे लग्न राहू के नक्षत्र मे तथा लग्नेश शनि
सूर्य संग द्वादश भाव मे मंगल के नक्षत्र मे हैं शुक्र मृतावस्था मे हैं बुध अस्त
व मृतावस्था मे,तथा मंगल स्वयं नीचभिलाषी होकर
वक्री अवस्था मे हैं यह जातक सात साल की उम्र से इस बीमारी से पीड़ित हैं |
9) 15-2-1977 00:00 सैंट
लुइस (अमरीका) तुला लग्न की इस पत्रिका मे लग्न राहू केतू अक्ष मे लग्नेश शुक्र
षष्ठ भाव मे हैं | मंगल और बुध पर शनि का प्रभाव
हैं,सूर्य शनि राशि मे हैं |
सभी अवयवो के प्रभावित होने से जातिका कई साल से इस रोग से पीड़ित हैं तथा इलाज़
करवा रही हैं |
10) 15-10-1987 2:30
वांकानेर (गुजरात) सिंह लग्न के इस जातक की कुंडली मे लग्न केतू नक्षत्र मे शनि
द्वारा द्र्स्ट तथा लग्नेश सूर्य राहू केतू अक्ष मे मंगल संग दूसरे भाव मे हैं |
शुक्र व बुध स्वाति नामक राहू नक्षत्र मे हैं तथा अष्टमेश गुरु वक्री द्वारा
द्र्स्ट हैं | इन्ही सब कारणो से जातक काफी समय
से ल्यूकोडर्मा से पीड़ित हैं |
11) 2-5-1988 23:25
राजामुन्द्री, धनु लग्न के इस जातक की कुंडली
मे लग्न मे शनि वक्र अवस्था मे हैं लग्नेश गुरु अस्त हैं,
सूर्य पर मंगल द्वादशेश का प्रभाव हैं,
त्वचाकारक बुध षष्ठ भाव मे अस्त अवस्था मे हैं तथा शुक्र पर शनि की पूर्ण दृस्टी
हैं |इन सभी कारणो से जातक के शरीर के
अधिकतर हिस्से मे सफ़ेद दाग अर्थात ल्यूकोडर्मा हैं |
12) 23-11-1983 14:20
कानपुर,मीन लग्न की इस कुंडली मे लग्न पर
शुक्र (नीच व अस्ट्मेश) तथा मंगल का प्रभाव हैं वही लग्नेश गुरु सूर्य तथा बुध संग
राहू-केतू अक्ष मे पीड़ितवस्था मे हैं | मंगल
नीच के शुक्र संग हैं |
इन सभी अवयवो के अलावा
हमने कही-कही चन्द्र ग्रह को भी प्रभावित पाया संभवत;
जिन जातको के चेहरे पर इस बीमारी के दाग थे उनका चन्द्र ग्रह प्रभावित रहा हो (चन्द्र
ग्रह हमारे चेहरे को दर्शाता हैं) एक अन्य तथ्य भी जो हमने प्राप्त किया की शुक्र
व बुध की दोनों राशियो मे से कोई ना कोई राशि अवश्य ही पाप प्रभाव मे थी |
हमने इन कुंडलियो के अतिरिक्त
और भी लगभग ३00 कुंडलियों पर यह सभी अवयव प्रभावित पाये तथा यह पुष्टि की इन्ही
कारणो से यह बीमारी होती हैं
शनिवार, 2 फ़रवरी 2013
लाल किताब व खर्च
लाल किताब व खर्च
जन्म कुंडली मे 12वा भाव खर्च,व्यय,विदेश,हानी,आवास परिवर्तन अस्पताल,आदि
को दर्शाता हैं |जिस व्यक्ति का खर्च बहुत अधिक हो रहा हो
यानि हानी हो रही हो अर्थात बरकत ना होती हो उसे समझ लेना चाहिए की उसका 12वा भाव
व उसका स्वामी अवश्य ही पीड़ित अवस्था मे हैं |ऐसे व्यक्ति को
अपनी जन्मपत्रिका के 12वे भाव के स्वामी को 12वे भाव मे पहुचाहने हेतु लाल किताब
के निम्न उपाए करने चाहिए जिसके अनुसार भाव स्वामी की वस्तुओ को अपने मकान की छत
पर खुले आकाश के नीचे रखने से इन सभी समस्याओ का समाधान हो जाता हैं |
मेष व मकर लग्न वालो को गुरु ग्रह हेतु केले के पत्ते पर
2 मुट्ठी चने की दाल लगातार 12 गुरुवार छत पर रखनी चाहिए |
वृष व धनु लग्न वालों को मंगल ग्रह के लिए लगातार 12
मंगलवार लाल कपड़े मे लाल मसूर की दाल छत पर रखनी चाहिए |
मिथुन व वृश्चिक लग्न वालों को शुक्र ग्रह के लिए 12
शुक्रवार किसी सुंदर देव प्रतिमा को अपने छत पर रखना चाहिए (प्रतिमा इस प्रकार से
रखनी चाहिए की घर के बाहर से वह दिखाई दे ) या लाल ज्वार भी रख सकते हैं |
कर्क व तुला लग्न वालों को बुध ग्रह के लिए 12 बुधवार छत
पर हरी वनस्पतीया या साबुत मूंग की दाल रखनी चाहिए |
सिंह लग्न वालों को चन्द्र ग्रह के लिए 12 सोमवार चावल
गंगाजल से धोकर छत पर रखने चाहिए या बारिश का पानी छत पर रखना चाहिए |
कन्या लग्न वालों को सूर्य ग्रह के लिए 12 रविवार तांबे
के पात्र मे 6 मुट्ठी गेहूं भरकर छत पर रखना चाहिए या तांबे की छड़ी बनवाकर छत पर
लगानी चाहिए
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